“मेरी नर्मदा अब नहीं रही...पहली परिक्रमा (1977) के दौरान नर्मदा वैसी ही थी, जैसी वह सैकड़ों साल पहले थी। मगर अब नर्मदा वैसी नहीं रही। वह झीलों को जोड़ने वाली कड़ी बनकर रह गई।“
नर्मदाप्रेमी अमृतलाल
बेगड़ ने अपने अनुभवों से यह बात उस वक्त लिखी थी जबकि नर्मदा पर इतना अधिक दबाव
नहीं था। पर बीते चालीस—पचास सालों में उस पर हर लम्हा कई तरह के संकट बढ़ते गए
हैं और अब एक नया शिगूफा आया है रेवा की धार में पर्यटकों के मनोरंजन के लिए क्रूज
चलाए जाने का। मध्यप्रदेश की पूर्व मुख्यमंत्री साध्वी उमाश्री भारती इसे नर्मदा
के लिए एक नया संकट बता रही हैं। उन्होंने अपने ट्विटर अकाउंट से चिंता जताते हुए
कहा है कि “आधा तो अवैध खनन ने ही
नर्मदाजी को निगल लिया और रही सही कसर क्या क्रूज से भी पूरी कर देंगे ?” सवाल बड़ा और लाजिमी है।
वेद व्यास ने स्कन्द
पुराण में नर्मदा के बारे में कहा है कि “नर्मदा का प्रलय
में भी नाश नहीं होगा। वह सदैव बहती रहेंगी उनका एक एक कंकड़ पूजनीय होगा,” लेकिन ये क्या है
कि हमें इस तरह की बातें सुनने को मिल रही हैं, और हम देख भी रहे हैं कि किस तरह से नर्मदा को रात—दिन
तरह—तरह से खत्म किया जा रहा है !
नर्मदा इस मायने में
अनूठी है कि वह एक सौंदर्य भी रचती है और जीवनदायिनी भी है। भू वैज्ञानिक अरुण
सोनकिया की नर्मदा मानव की खोपड़ी की ऐतिहासिक खोज ने स्थापित किया है कि नर्मदा
के किनारे लाखों सालों से मानव सभ्यता रही है। इसलिए इस नदी के बारे में बहुत
चिंता करने की जरूरत है, लेकिन इस
संवेदनशील वक्त में जिस तरह के संकटों को हम बढ़ता हुआ देख रहे हैं, उस पर नर्मदा के प्रति असल श्रद्धा और प्रेम
रखने वाले लोगों को सोचना चाहिए।
पहला संकट तो उसके प्रवाह
का ही। बेगड़ जी ने लिखा है कि “प्रवाह नदी का प्रयोजन है। नदी अगर बहेगी नहीं तो
वह नदी नहीं रहेगी। अपने अस्तित्व के लिए उसे बहना ही चाहिए।” लेकिन जिस तरह से
नदी को बड़े—बड़े जलाशयों में परिवर्तित कर दिया है, और उसके आसपास बहने वाली सैकड़ों नदियों का स्वभाविक प्रवाह
भी प्रभावित हुआ है उससे सबसे बड़ा खतरा यही है। नर्मदा मास्टर प्लान के अनुसार,
नर्मदा बेसिन में 30 बड़े, 135 मध्यम और 3,000 छोटे बांधों का निर्माण होना है। कल्पना से
परे सूखी नर्मदा की तस्वीरें देखकर हमारा दिल दहल उठता है।
दूसरा खतरा अवैध खनन का
है, इस पर बहुत कुछ लिखे जाने
की जरूरत नहीं है, लेकिन यदि सरकार
चाहे तो इसे रोकने के प्रभावी इंतजाम कर सकती है, लेकिन ईमानदारी से ऐसा होता दिखाई नहीं देता, अब जबकि बारिश का वक्त है और नदी में पानी का
अच्छा प्रवाह है तब भी अखबारों में नावों के माध्यम से रेत निकाले जाने की खबरें
छप रही हैं।
तीसरा खतरा पानी के
प्रदूषित होने का है। पर्यावरण निवारण मंडल की रिपोर्ट बताती हैं कि नर्मदा में कई
जगह पानी अब सी और डी ग्रेड को हो गया है, ये बढ़ता ही जा रहा है। अजब विडंबना है कि जिस पानी को लोग अपने घरों में
आध्यात्मिक शुद्धि के लिए इस्तेमाल करते हैं, विज्ञान अब उस पानी को सीधे आचमन करने तक की इजाजत नहीं
देता। नर्मदा पर इंदौर—भोपाल जैसे शहरों के साथ अब कई छोटे शहरों की प्यास बुझाने
का भी एक अतिरिक्त बोझ बीते एक दो दशक में ही बढ़ गया है। सारे ट्रेंड यही बताते
हैं कि पूरी मानव प्रजाति नदी (जिसे अपनी मां
कहते हैं) उससे अधिक से अधिक पा लेने में ही लगी है, सवाल यही है कि क्या उस पर केवल मनुष्यों का ही हक है?
त्वदंबु लीनदीन
मीन दिव्य संप्रदायकं,
कलौ मलौघभारहारि
सर्वतीर्थनायकं ।
सुमत्स्य,
कच्छ, नक्र, चक्र, चक्रवाक शर्मदे,
त्वदीय पादपंकजं
नमामि देवि नर्मदे ।।
आदिशंकराचार्य रचित
नर्मदाष्टक के इस श्लोक को पढ़ें तो बहुत साफ है कि नर्मदा केवल मनुष्यों के लिए
नहीं है, उसमें रहने वाले मछली,
कछुआ, मगर पूरा जल जीव समुदाय, पक्षी समुदाय और
सभी पर उसकी कृपा है, लेकिन इस वक्त
में यह भी खबर आती है कि मछलियों की टाइगर कही जाने वाली महाशीर मछली नर्मदा से
विलुप्त हो चुकी है, यह किसकी करनी का
परिणाम है ?
और अब नर्मदा में मनोरंजन
के लिए किए जाने वाला यह उपक्रम क्या परिणाम लाएगा कहना मुश्किल है। अदद तो यही है
कि नर्मदा ऐसी अकेली नदी है जिसकी परिक्रमा होती है, उसके आसपास का सौंदर्य अनुपम है, तो यदि पर्यटन बढ़ाना ही है तो क्यों न उससे बिना छेड़छाड़
किए हुए उसके आसपास के पर्यटन को बढ़ाने पर जोर दिया जाए, लेकिन इस मामले में जाने कहां पर कमजोरी है कि सांची,
खजुराहो, भीमबैठका जैसी विश्व विरासत होने के बावजूद यहां पर
देसी—विदेसी पर्यटक दूसरे राज्यों से कम हैं, जबकि यह संभावनाओं से भरा सर्किट है।
आध्यात्मिक नजरिए से भी
देखें तो नर्मदा के मूल स्वरूप को बचाए जाने की जरूरत है, लेकिन दूसरी तरफ नर्मदा पर बनाए गए बांधों के डूब क्षेत्र
में चार सौ से ज्यादा प्राचीन मंदिर जलमग्न हो गए हैं। पुराने घाट डूब गए हैं,
और अब नया नया विकास करके नर्मदा के घाटों का
प्राकृतिक सौंदर्य सीमेंट के जंगलों में बदलता जा रहा है।
नर्मदा में लोगों की यह आस्था है कि हर अमावस्या और पूर्णिमा पर लोग नियमित स्नान करने आते हैं, लोग उन्हें अपनी मां के स्वरूप में पूजते हैं, लेकिन इस तरह के पर्यटन से उसी नर्मदा में जब क्रूज चलेगा और उस पर मांस—मदिरा भी परोसी जाएगी और उसका मल—मूत्र भी जाकर नर्मदा में सीधे मिलेगा तो क्या यह लाखों नर्मदाभक्तों की आस्था के खिलाफ नहीं होगा? इस निर्णय के बारे में नीति—नियंताओं को सोचना चाहिए कि हम किस हद तक अपने प्राकृतिक संसाधनों पर अपनी अपेक्षाओं का बोझ डालेंगे और उनके मूल स्वरूप को कैसे बचाकर रखेंगे ?-
राकेश कुमार मालवीय
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