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News18: पांच सौ का पिज्जा भारी नहीं, पचास रुपए की पत्रिका अखरती है



राकेश कुमार मालवीय

नंदन बचपन की यादों का अभिन्न हिस्सा है। गांव में तब न तो कोई अखबार आता था न कोई अन्य पत्रिका। हर महीने पापा शहर से नंदन लेकर आते थे। सालों तक यदि कक्षा की पुस्तकों के अलावा हमें कुछ पढ़ने को मिला तो वह यही पत्रिका थी। बस्ते की किताबों से अलग नंदन पढ़ते हुए ज्यादा खुशी होती थी क्योंकि इसमें नयापन होता और पापा की सहमति भी, इसलिए ज्यादा अधिकार से उसके पन्ने पलटते। पढ़ने का चस्का नंदन की ही देन रही, वरना हम किस्सेकहानियों की संभावनाओं से भरी दुनिया में घुस भी नहीं पाते।

बाद में कुछ और बाल पत्रिकाएं भी पढ़ने को मिलीं, लेकिन उनमें इतना मजा नहीं आया। नंदन नएपुराने का मेल था। उपदेश नहीं थे। केवल जंगल और जानवरों की कहानियां भी नहीं थीं। आप कितने बुद्धिमान हैं जैसे नियमित कॉलम हमारी दोस्ती को मजबूत करते। हम भाई बहनों में दो एक जैसे चित्रों में अंतर खोज लेने की प्रतियोगिता होती, तेनालीराम की अक्लमंदी, चीटूनीटू की मस्ती, सब कुछ गुदगुदाने वाला। भाईबहनों में पहले पढ़ने को लेकर झगड़े भी और झगड़ों को सुलटाने के कई तरीके भी खोजे गए। हम जैसी उम्र वाले कितने ही लोगों के ऐसे दिलचस्प किस्से जुड़े होंगे।

पत्रिकाओं पर संकट नया नहीं है। इससे पहले भी कई स्थापित पत्रिकाएं बंद हो चुकी हैं। नंदन बाल साहित्य में राष्ट्रीय स्तर की अकेली स्थापित प​त्रिका थी जो लगातार 56 साल से प्रकाशित हो रही थी। ऐसे में इसका बंद होना उन पाठकों को अखर रहा है जिनकी बचपन की यादों से यह गहरे जुड़ी हुई है। हालांकि बालसाहित्य को किसी तरह के विमर्श का जरुरी विषय नहीं माना जा रहा। टीवी पर गैर जरुरी विषयों पर सैकड़ों घंटों की बहस हो सकती है, लेकिन बचपन की ऐसी पत्रिकाओं की खबर उनके लिए कोई विषय बने भी तो कैसे, क्योंकि उस समाज पर तो इसका कोई असर ही नहीं पड़ता है। समाज ने भी बाल साहित्य से किनारा कर लिया है।

इंटरनेट ने समाज पर इस तरह का प्रभाव पैदा किया है, कि पत्रिकाओं की अब जरुरत कहां, अब तो सब एप्प पर चल रहा है। बाल साहित्य तो और भी, क्योंकि न उसके गढ़ने में वैसी रुचि और दक्षता रही और न उसको ग्रहण करने में ही समाज का जोर है। खिलौनों पर, या पिज्जा पार्टी पर हजारों रुपए खर्च करने में जिन्हें गुरेज नहीं होता, उन्हें पचास रुपए महीने की एक पत्रिका अखरती है। आखिर क्यों ? ऐसे में यदि एकएक कर बाल साहित्य और ऐसी पत्रिकाएं दम तोड़ती जाएं तो इसमें आश्चर्य नहीं करना चाहिए।

1949 में देश के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने सूचना मंत्रालय के प्रकाशन विभाग की ओर से प्रकाशित बाल पत्रिका बाल भारती की बढ़ती लोकप्रियता पर बधाई देते हुए रंगनाथ रामचंद्र दिवाकर को पत्र लिखकर बधाई दी थी। उन्होंने बाल भारती जैसी पत्रिकाओं को शैक्षणिक गुणवत्ता और हिंदी भाषा के विकास के लिए बहुत जरुरी बताया था। उन्होंने सूचना मंत्रालय के अधीन बच्चों के लिए प्रकाशन के लिए एक विशेष शाखा की स्थापना पर जोर दिया था।

यह पत्र उन्होंने कमजोर अर्थव्यवस्था के चलते बाल भारती पत्रिका के प्रकाशन बंद किए जाने के प्रतिक्रिया में लिखा था और इस बात पर जोर दिया था कि हर हाल में यह सोचा जाना चाहिए कि ऐसा क्या किया जाए जिससे कि बाल भारती बंद न हो।

बच्चों के चाचा नेहरु का केवल बच्चों ही नहीं बाल साहित्य के प्रति भी यह नजरिया प्रेरक है। नंदन का विमोचन 1964 में चाचा नेहरु ने ही किया था। दुर्भाग्य से देश में इस वक्त कोई ऐसी सरकारी या गैरसरकारी लोकप्रिय बाल पत्रिका नहीं हैं जिसे नंदन के समकक्ष रखा जा सके। ऐसा नहीं है कि केवल नंदन ही बंद होने का रोना है। इससे पहले धर्मयुग जैसी पत्रिकाएं भी बंद हुईं। चंदामामा बंद हुई। तमाम खेल पत्रिकाएं बंद हो गई। नंदन के साथ कादम्बिनी भी बंद हुई। ये सभी अपनी तरह के स्थापित नाम रहे हैं। इन सभी का बंद होना दुखद है। पर नंदन का दुख बड़ा इसलिए कहा जा सकता है क्योंकि यह यह उन पत्रिकाओं में है जिनसे पाठक रचने की शुरुआत होती है। इससे पढ़ने की दुर्लभ होती जा रही आदत लगती है। बच्चों की कल्पनाशीलता को पंख लगते हैं। उनको नए आयाम मिलते हैं। बच्चों में रचनाशीलता को जगाने वाली होती है। यह बच्चों की खतरनाक होती वर्चुअल दुनिया का एक विकल्प है।

 

हालांकि नंदन, चंदामामा की भी बच्चों की भी परीकथाओं, भूतप्रेत और मायावी संसार रचने की एक आलोचना रही है, पर वह कभी भी ऐसे मुकाम तक नहीं पहुंची जहां कि बच्चे इतने डूब जाएं कि आत्महत्या करने पर उतारू हो जाएं, जैसा कि हम पिछले सालों में कई इंटरनेट गेम्स में देख ही चुके हैं।

इसके विकल्प में कुछ एक पत्रिकाएं जरूर हैं, पर उनका दायरा एक व्यावसायिक पत्रिका की तरह का नहीं है। शैक्षणिक संस्था एकलव्य द्वारा इसी साल चकमक चार सौ वें अंक का विमोचन किया गया है। यह 1985 से निकल रही देश की अकेली विज्ञान पत्रिका है, जिसमें बाल सहभागिता को भी प्राथमिकता से जोड़ा गया है। इस पत्रिका का जोर वैज्ञानिक चेतना पर आधारित है।

इधर इकतारा समूह ने भी दो बेहतरीन बाल पत्रिकाओं साइकिल और प्लूटो के माध्यम से लंबे समय बाद कुछ अलग रचने की कोशिश की है। इन पत्रिकाओं का मकसद केवल छपकर बिक जाना नहीं बल्कि बच्चों के संसार में कुछ अलग रंग भरने की कोशिश है। देश के इस वक्त के सबसे बेहतरीन बाल रचनाकर इन दोनों पत्रिकाओं में अपना सक्रिय योगदान दे रहे हैं, केवल कलम के ही नहीं चित्रों और रंगों के, लेकिन फिर भी चिंता यह है कि यह दोनों ही मॉडल क्या केवल इसलिए सफल रूप से चल रहे हैं क्योंकि उनके पीछे एक संस्थागत योगदान भी है। वह केवल विज्ञापन और बिक्री पर आधारित नहीं हैं। यदि इनको गति देने वाला वित्तीय योगदान बंद हो जाए, क्या तब भी यह पत्रिकाएं पाठकों के खरीदने या विज्ञापनदाताओं की मेहरबानी पर अपना भविष्य सुरक्षित कर पाएंगी, यह विश्वास दिलाना बहुत कठिन है, क्योंकि हमारा पढ़ने और अपने बच्चों को कुछ अच्छा पढ़ाने में अब ज्यादा यकीन नहीं रहा।

अब सब कुछ एप्प आधारित हो गया है। एप्प एक व्यक्ति के जीवन में कितना स्थायी भाव ला पाएगा, यह तो वक्त ही बताएगा। पर क्या वह वैसी याद बन पाएगा जब पापा के झोले से निकलकर नंदन हम सभी बच्चों के हाथों में आती थी, जिसे पहले पढ़ने के लिए झगड़े हो जाया करते थे, और जिसे हम सभी अब तक एक मीठी याद की तरह अपनी स्मृति में सजाए रखना चाहते हैं।

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