राकेश कुमार मालवीय
विश्व मानसिक स्वास्थ्य दिवस निकल गया.
मौजूदा दौर में यह एक बढ़ती हुई समस्या है जिस पर लगातार संवाद करने की जरूरत है, लेकिन ऐसा नहीं हो पा रहा। तमाम किस्म की
स्वच्छताओं की बात है, लेकिन दिमाग की
स्वच्छता पर बातचीत नहीं के बराबर है. समस्या इतनी भयावह है जिसका अनुमान आप इसी
बात से लगा सकते हैं कि
2001 से 2015 तक के 15 सालों में मानसिक रोगों के चलते सवा लाख लोगों
ने आत्महत्या की. यानी समस्या भयावह होती गई है.
आंकड़ों के मुताबिक भारत में 16.92 करोड़ लोग मानसिक, स्नायु
विकारों और गंभीर नशे की गिरफ्त में है. प्रसिद्ध जर्नल द लांसेट ने भारत और चीन
में मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति और उपचार-प्रबंधन की व्यवस्था पर शोध पत्रों की एक
श्रृंखला प्रकाशित की है. इसके मुताबिक इन दोनों देशों में मानसिक बीमारियाँ अगले
दस सालों में बहुत तेज़ी से बढेंगी. वर्तमान में ही इन दोनों देशों में दुनिया से 32 प्रतिशत मनोरोगी रह रहे हैं.
राष्ट्रीय अपराध अनुसंधान संस्थान
(एनसीआरबी) द्वारा जारी 2016 के आंकड़ों से
पता चला कि एक साल में भारत में पैरालिसिस और मानसिक रोगों से प्रभावित 8409 लोगों ने एक साल के अंदर आत्महत्या की. सबसे
ज्यादा आत्महत्याएं महाराष्ट्र में (1412) हुईं.
देश में वर्ष 2001 से 2015 के
बीच के 15 सालों में कुल 126166 लोगों ने मानसिक-स्नायु रोगों से पीड़ित होकर
आत्महत्या की. पश्चिम बंगाल में 13932, मध्यप्रदेश
में 7029, उत्तरप्रदेश में 2210, तमिलनाडु में 8437, महाराष्ट्र
में 19601, कर्णाटक में 9554
आत्महत्याएं इस कारण हुईं.
99 प्रतिशत रोगी
इलाज को जरूरी नहीं मानते:
मानसिक रूग्णता का सबसे भयानक पक्ष यह
है कि इससे पीड़ित 99 प्रतिशत रोगी
इलाज को जरूरी नहीं मानते हैं. मानसिक रूग्णता जब तक एक तीव्र और गंभीर स्तर तक
नहीं पहुंचती तब तक उसके प्रति गंभीर नहीं हुआ जाता. रोगी को या तो परिवार या समाज
से अलग कर दिया जाता है, या फिर उसकी
अन्य तरीकों से उपेक्षा कर दी जाती है. हमें यह समझना होगा कि मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं
को सामान्य लोक स्वास्थ्य सेवाओं से जोड़ कर देखने का जरूरत है. केवल विशेष और
गंभीर स्थितियों में ही विशेष मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं की जरूरत होती है. इसी तरह
अनुभव यह बताते हैं कि मानसिक स्वास्थ्य की नीति बनाने में अकसर गंभीर विकारों
(जैसे स्कीजोफ्रेनिया) को प्राथमिकता दी जाती है और आम मानसिक बीमारियों (जैसे
अवसाद और उन्माद) को नज़रंदाज़ किया जाता है; जबकि ये सामान्य मानसिक रोग ही आम तौर
पर समाज को और समाज के सभी तबकों को बहुत ज्यादा प्रभावित करते हैं.
भारत में वर्ष 1990 में भारत में 3 प्रतिशत
लोगों को किसी तरह के मानसिक, स्नायु रोग होते
थे और लोग गंभीर नशे की लत से प्रभावित थे; यह
संख्या वर्ष 2013 में बढ़ कर दो गुनी यानी जनसँख्या का 6 प्रतिशत हो गयी है, लेकिन
इसके अनुपात में मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता नहीं दिखाई देती है और न ही स्वास्थ्य
ढांचा भी मजबूत किया जा रहा है.
जरूरत है मानसिक रोग विशेषज्ञों की
राष्ट्रीय मानव अधिकार आयोग के मुताबिक
भारत में लगभग 7 करोड़ लोग मानसिक रोगों से ग्रस्त हैं.
यहाँ 3000 मनोचिकित्सकों की उपलब्धता है, जबकि जरूरत लगभग 12 हज़ार
की और है. यहाँ केवल 500 नैदानिक
मनोवैज्ञानिक हैं, जबकि 17259 की जरूरत है. भारत में 23000 मनोचिकित्सा सामाजिक कार्यकर्ताओं की जरूरत है, जबकि उपलब्धता 4000 के
आसपास है. भारत में जो भी व्यक्ति मानसिक रोग के लिए परामर्श लेना चाहता है, उसे
कम से कम दस किलोमीटर की यात्रा करना होती है. हांलाकि 90 फीसदी को तो इलाज़ ही नसीब
नहीं होता.
महानगरों में ही उपलब्ध है इलाज
हालात यह हैं कि भारत में 3.1 लाख की
जनसँख्या पर एक मनोचिकित्सक उपलब्ध है. इनमें से भी 80 प्रतिशत महानगरों और बड़े
शहरों में केंद्रित हैं. अतः यह माना जाना चाहिए दस लाख ग्रामीण लोगों पर एक
मनोचिकित्सक है भारत में. हमारे स्वास्थ्य के कुल बजट में से डेढ़ प्रतिशत से भी कम
हिस्सा ही मानसिक स्वास्थ्य के लिए खर्च होता है. 650 से ज्यादा जिलों वाले देश
में अब तक कुल जमा 443 मानसिक रोग अस्पताल हैं. छः उत्तर-पूर्वी राज्यों, जिनकी
जनसँख्या लगभग 6 करोड़ है, वहाँ एक भी मानसिक स्वास्थ्य केंद्र नहीं है. इसलिए जरूरी
नहीं है कि केवल जागरूकता बढ़ाई जाए, मानसिक स्वास्थ्य का ढांचा भी उसी स्तर पर मजबूत किए जाने की जरूरत
है. और इसलिए किसी एक दिन को मानसिक रोगों
के लिए समर्पित करने से काम नहीं चलने वाला। उसके लिए एक मुहिम चलाने की जरूरत है.
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