राकेश कुमार
मालवीय
संयोग से जिस शाम गंतव्य के लिए मैं
रेलगाड़ी में सवार हुआ उसी शाम देश के सबसे प्रतिष्ठित अवार्ड भारत रत्न और
पद्मश्री की घोषणा हुई। जिस इलाके के लिए मैं सवार हुआ उस इलाके से इस सूची में दो
नाम थे। पहला नाम भारत रत्न के लिए नानाजी देशमुख का। दूसरा नाम एक ठेठ गंवई किसान
बाबूलाल दाहिया का पद्मश्री के लिए था। संयोग से इन दोनों के कामों को देखने का
मौका मुझे पहले भी मिला, लेकिन कई बार
घटनाएं उनको और महत्वपूर्ण बना देती हैं। यात्रा में एक नया आयाम जुड़ चुका था।
यह सतना जिले का मझगवां इलाका है। यह
इलाका उस चित्रकूट से कोई तीस किलोमीटर दूर है जहां नानाजी देशमुख ने सक्रिय
राजनीति से अलग होकर अपने काम के लिए चुना। इसके लिए उन्होंने जहां चित्रकूट में
ग्रामोदय विवि की स्थापना की वहीं इसी इलाके गांवों को अपने काम के लिए चुना। तब
इस इलाके में डाकुओं का खासा आतंक था।
इसमें उनका खास जोर गांव में कृषि के जरिए उन्नत बनाना था,
वहीं इलाके के मसलों को इलाके में ही हल करना था।
मझगवां से कोई सात किलोमीटर की दूरी पर
बसा देवलाहा पंचायत और इससे ठीक दो किलोमीटर की दूरी पर बसा पटनी पंचायत ऐसे दो
गांव थे, जिन गांवों को नानाजी देशमुख ने गोद
लिया था। यहां इनके ग्रामशिल्पी दंपत्ति रहते थे और गांव के विकास में अपना योगदान
देते थे। इसके साथ ही यहां बड़ा काम पानी की संरचनाएं विकसित करना था। इन दोनों
गांवों में मिलाकर सैकड़ों जलसंरचनाएं बनाकर पानी को रोकने का काम किया गया।
यह गांव तब चर्चा में अधिक आए जब यहां
पर 2003 में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी खुद पहुंचे। पटनाखुर्द ग्राम पंचायत
के पटनी में 27 मार्च-2003 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी जलग्रहण
क्षेत्र प्रबंधन परियोजना चकरा नाला का लोकार्पण किया था, उस समय अटल बिहारी वाजपेयी ने क्षेत्र
के विकास एवं लोगों के जीवन स्तर को ऊपर उठाने की कई घोषणाएं की थी।
उन्होंने इन गांवों में ग्रामीणजनों के
साथ वक्त बिताया था। इसके दो साल बाद तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम
ग्राम पटनी डाड़िन में तालाब का लोकार्पण करने आए थे। उन्होंने प्रोटोकॉल तोड़कर यहां ग्रामीणों के
साथ जमीन पर बैठकर भोजन किया। इस पंचायत की 90 प्रतिशत आबादी आदिवासियों की है। यह
संभवत: देश का अकेला ऐसा दूरदराज का गांव होगा जिसे एक प्रधानमंत्री और एक
राष्टपति की मेहमाननवाजी का मौका मिला। ऐसा होने से तो इन गांवों की सूरत ही बदल
जानी थी, सूरत
बदली भी। इन गांवों में सड़कें बनवाई गई, तकरीबन 14 साल गुजर जाने के बाद अब गांव की सूरत जैसी की तैसी ही
है।
आप पटनी गांव में उन पत्थरों को देखकर
ही जान पाएंगे कि कभी इस गांव में देश के शीर्ष नागरिक पधारे थे। उसके अलावा इन
गांवों का चेहरा अब भी वैसा ही है, एक बदहाल हिंदुस्तान के जैसा। अब भी यहां पर स्थानीय संगठन कुपोषण, शिक्षा, स्वास्थ्य, पानी, रोजगार जैसे
मसलों पर अब भी संघर्ष कर रहे हैं। पटनी पंचायत के डाडिन टोले में तो मिनी आंगनवाड़ी
तक नहीं खुल पाई।
नानाजी देशमुख की गोद ली पंचायत में
गणतंत्र दिवस के दिन राष्टीय खाद्य सुरक्षा कानून 2013 के अंतर्गत एक सामाजिक
संपरीक्षण आयोजित किया जाना था। इस प्रक्रिया में निकलकर आया कि केवल एक राशन
दुकान पर तीन महीने में चालीस किलो अनाज का अंतर है। मतलब जितना खाद्यान्न इस गांव
में बांटा गया और जितना खाद्यान् आवंटित हुआ उसमें चालीस किलो का अंतर। गांव में
ऐसे चार लोग मिले जिनके मरने के बाद भी राशन मिल रहा है, और ऐसे लोग भी निकले जिनका नाम पात्र
होने के बावजूद पात्रता सूची में नहीं है। मसलन इस पंचायत के अहिरान टोला के
राजाराम यादव और रामधनी,
गोडानटोला के संपत गोंड और उमरिहा के बादे कोल का निधन हो चुका है।
जब इंटरनेट से इस गांव की राशन दुकान का रिकॉर्ड इस संपरीक्षा से निकाला गया तो
पता चला कि इन लोगों के नाम से अब भी राशन निकाला जा रहा है। देवलहा गांव के
प्यारे मवासी, किशोरी
मवासी और रोहनिया गांव के के दादा गोंड भाई और बुल्लारे गोंड गांव से पलायन करके
चले गए हैं, लेकिन
उनके नाम भी राशन बांटा गया है, जबकि वह गांव में हैं ही नहीं।
इस गांव में 18 महिलाएं उस
प्रधानमंत्री मातृत्व वंदना योजना की पात्र मानी गईं जिसकी घोषणा स्वयं
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने 31 दिसम्बर 2016 को की थी। इस योजना का लाभ नानाजी
देशमुख के गोद लिए गांव में केवल एक महिला को मिला है, उसे भी महज तीन हजार रुपए का ही भुगतान
हुआ है। इस संपरीक्षा में निकलकर आया कि केवल 9 प्रतिशत बच्चों को आंगनवाड़ी में
सुबह का नाश्ता और गर्म पका हुआ भोजन मिला है, 91 प्रतिशत बच्चे इन तीन माहों में
आंगनवाड़ी की इस सेवा से वंचित हैं, और तीसरा भोजन तो एक भी बच्चे को नहीं मिला। कमाल की बात यह है कि
आंगनवाड़ी में पका हुआ भोजन मिल नहीं रहा, लेकिन जब टेक होम राशन यानी घर ले जाने
वाले पैकेट की बात आती है तो छह माह से तीन साल तक के बच्चों को 453 पैकेट, गर्भवती माताओं
को 67 पैकेट ज्यादा बांट दिए गए।
मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाकों में
भयंकर कुपोषण है, इसे
दूर करने के लिए आंगनवाड़ी में अंडा खिलाने की मांग स्वयंसेवी संगठन करते रहे हैं।
इस मांग को सरकार ने कभी नहीं माना यह अलग बात है कि सरकार अपनी पर्यटन होटलों में
खुलेआम मांसाहार परोसती है। अंडे के विकल्प के रूप में यहां पर बच्चों को दूध
वितरित करने का प्रावधान शिवराज सिंह चौहान ने किया था। पिछले तीन महीनों से इस
गांव के एक भी बच्चे को मिड डे मील और आंगनवाड़ी में दूध नसीब नहीं हुआ है।
यह उस आदर्श गांव की स्थिति है जहां एक
राष्ट संत अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा लगाते हैं, उनको भारत रत्न भी दिया जाता है, लेकिन उस गांव
में भ्रष्टाचार का दैत्य तो अब भी अट्टाहस करता नजर आता है, सवाल यह है कि
आखिर इन समस्याओं से लड़ने के लिए और कितना और किस स्तर का काम करना होगा, जब हिंदुस्तान
अपने इन कलंकों से मुक्त हो पाएगा।
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