राकेश कुमार
मालवीय
हमारे देश में दिवाली पर बीस—तीस
रुपयों में मिलने वाली चाइनीज झालरों पर खूब हल्ला मचता है अबकी चाइनीज आइटम का
विरोध दिवाली के अलावा भी टॉप ट्रेंड कर रहा है। इसलिए कि पुलवामा हमले के कर्ता
धर्ता आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्मद के सरगना अजहर मसूद को वैश्विक आतंकी घोषित
करवाने में भारत का साथ नहीं दिया, बल्कि चाइना के रवैये के कारण ही ऐसा होते—होते
रह गया। अब इसका गुस्सा कहीं तो निकलना ही है, चाइनीज आइटम पर
ही निकालें!
सोशल मीडिया के अवैतनिक मजदूर किसी
भेड़ियाधसान की तरह ही ऐसी परिस्थितियों में रैलमपेला मचा देते हैं, इससे
आक्रोश जो सड़कों पर होना चाहिए, उसकी इतिश्री एक मैसेज फारवर्ड भर करके
हो जाती है। अच्छा है कि गांधी के जमाने मे यह सुविधाएं नहीं थीं, वरना
विदेशी वस्त्रों के होली जलती तो कैसे ? अलबत्ता यह गंभीर सवाल हैं !
वैश्विक बाजार और भूमंडलीकरण की
नीतियों के बावजूद हमें यह विमर्श करते रहने की बहुत जरूरत है कि इस देश की सेहत
के लिए स्वदेशी कितना जरूरी है, वह गाहे—बगाहे नहीं हो
सकता है। इसके लिए न केवल नीतियों में बल्कि हिंदुस्तानियों के जेहन में भी
स्वदेशी चीजों के प्रति वास्तविक प्रेम होना चाहिए, फौरी और अस्थायी
नहीं। यह सोचने की भी उतनी ही जरूरत होगी कि यदि हमने उन चीजों का बहिष्कार भी
किया, तो हमारी अपनी चीजों के जरिए क्या होंगे ? क्या हम थोड़ा महंगा
खरीदने को तैयार हैं।
अब दवाओं को ही लें, भारत
में इस वक्त आयात होने वाली दवाओं का 66 फीसदी हिस्सा चाइना से आयात हो रहा
है। पिछले तीन सालों में चाइना से 38 हजार करोड़ रुपए की दवाओं का आयात हुआ
है। इसी अवधि में भी आयात होने वाली दवाओं के घटक 316 से बढ़कर 354 तक
जा पहुंचे हैं। हम बड़ी मात्रा में चाइनीज दवाओं का सेवन कर रहे हैं। अब दवाओं का
क्या विकल्प होगा ? क्या विदेशी सामान के बहिष्कार का मतलब मतलब केवल चाइनीज झालर
हैं ?
गांधी की स्वदेशी का भावना का मूल
मंतव्य यही था कि किसी उद्योग को स्वदेशी कहलाने के पूर्व यह सिद्ध करना होगा कि
वह आम जनता के हित में है या नहीं। इस परिभाषा को गौर से देखें और अर्थजगत में
बढ़ती गैरबराबरी को देखें तो स्वदेशी का मूलमंत्र ध्वस्त होता चला जा रहा है।
गांधी का स्वदेशी दर्शन कहता है कि हममें यह वह प्रेरणा है जो हमें इस बात के लिए
प्रेरित करती है कि हम नजदीक के वातावरण का प्रयोग करें और दूर के वातावरण को
छोड़ें, जैसे धर्म से हम अपने धर्म से हम अपने धर्म का पालन करें, राजनीतिक
संस्थाओं का प्रयोग करें, आर्थिक क्षेत्र में हम प़ड़ोसी द्वारा
बनाई गई वस्तुओं का प्रयोग करें और उन भारतीय उद्योगों को कुशल एवं पूर्ण बनाएं
जिनमें कमजोरियां नजर आती हैं।
आज देखिए कि मशीनों ने आम लोगों के
रोजगार को खत्म कर दिया है और बड़ी कंपनियों ने छोटी कंपनियों को निगल लिया है। अब
भले ही हम स्टार्ट अप के जरिए रोजगार देने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन
वास्तव में तो पिछले दशकों में हमारी नीतियों ने हमारे छोटे—छोटे बने—बनाए
स्टार्ट अप को खत्म कर दिया। स्टार्ट अप की कब्रगाहों पर नए स्टार्ट अप रचे गए, यह कहां तक टिकाउ होंगे, उनकी
जमीनें तो वास्तव में खोखली हैं !
देश में ज्यादा समय शासन करने वाली
कांग्रेस ही गाँधी की स्वदेशी नीति को आत्मसात नहीं कर पाई, और उसने उन्मुक्त
बाजार के दरवाजे खोलकर देश की अर्थव्यवस्था पर पहली छूट की, स्वदेशी केवल एक वस्तु
ही तो नहीं है एक विचार भी है। यह विचार तिल-तिल मरता ही गया ! तो यह विरोध किसलिए
? यह माजरा किसलिए ? यदि वास्तव में मेड इन इंडिया की ताकत को दिखाना है तो वह इन
उथले तौर—तरीकों से होने वाला है क्या ?
केवल चाइना ही नहीं, दवा के मामलों में तो हमारी परनिर्भरता
बढ़ी ही है। 2015 में हम 44 देशों से दवाओं
का आयात कर रहे थे, अब हम तकरीबन साठ देशों से दवाएं खरीदने लगे।
यह आंकड़ा घटने की बजाए बढ़ क्यों गया। इसे रोकने के लिए हमने क्या किया। अपने देश
में नए उद्योग—धंधो, मेडिकल अनुसंधान और प्रोत्साहन के लिए
क्या है ? जब हमारे देश का शीर्ष नेतृत्व ही भले ही वह किसी भी पार्टी का हो अपना
इलाज कराने के लिए विदेशों में भाग जाया करता हो, तो वह कैसे अपने
देश की दशा सुधारेगा ?
वास्तव में हमें केवल दवाओं के मामले
में ही नहीं किसी भी क्षेत्र में ऐसी नीति बनाने की जरूरत है जिससे आम लोगों का
भला हो। हमें यह संदेश भी देना होगा कि यदि आतंकवाद का साथ दिया गया तो हम
हिंदुस्तानी तुम्हारी किसी भी चीज का उपयोग न करने के लिए कमर कस लेंगे। तभी
वास्तव में कुछ सबक मिल पायेगा.
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