राकेश कुमार
मालवीय
नया इंडिया अखबार के पहले पन्ने पर यह खबर है
कि नोटबंदी के निर्णय पर देश का रिजर्व बैंक ऑफ़ इंडिया सहमत नहीं था। नोटबंदी के
ढाई घंटा पहले तक भी इस निर्णय पर सवाल किए गए थे और शंका जताई गई थी कि जिस
लक्ष्य को लेकर यह फैसला लिया जा रहा है वह इससे हासिल नहीं होगा ! यानी काला धन
के लौटने पर आशंका जताई गई थी। रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया में सूचना के अधिकार के तहत
एक आवेदन से यह बात ऐन चुनाव के वक्त एक बार फिर सामने आ गई है, हालांकि मुख्यधारा के अखबारों ने इस
खबर को कोई खास तवज्जो नहीं दी।
जब आरबीआई सहमत नहीं था तो फिर आखिर क्या वजहें
थीं, जिनके
चलते ऐसा निर्णय लिया गया ? क्या भारतीय सांख्यिकी संस्थान कोलकाता की वह रिपोर्ट
ही इस फैसले के पीछे काफी थी जिसमें बताया गया था कि हिंदुस्तान के अंदर वर्ष
2014—15
में 411 करोड़ रुपए के जाली नोट प्रचलन में थे। देश में बड़े पैमाने पर चल रहे इन
जाली नोटों और असली नोटों में फर्क करना मुश्किल होता जा रहा था और बड़े नोटों के
मार्फत देश में काला धन जमा किया गया था। इसलिए यह निर्णय लिया जाना बहुत जरूरी
था।
निश्चित ही यह भारत की अर्थव्यवस्था के लिए
जरूरी था भी तो क्या इसके लिए पूरी तैयारी थी ? जिस तरह से इसे लागू किया गया, उसकी तो अनंत कथाएं देश भर में हैं ही, लेकिन अब जबकि चुनावों को बिगुल बज
गया है, और
तमाम मुद्दे रह—रह
कर ट्विटर के हैशटेग में ट्रेंड किए और कराए जा रहे है तब यह सवाल उठना भी लाजिमी
है कि इस सरकार के सबसे बड़े फैसलों में से एक नोटबंदी का हासिल क्या है ? क्या वह
महज सरकार की जिद थी, या वाकई एक सही फैसला जिससे वह सबकुछ हासिल कर लिया गया है, जिसका दावा किया जा रहा था।
यदि नोटबंदी सफल हो ही गई है तो जाहिर तौर पर
वह इस चुनाव में बैनर पोस्टर में नजर भी आएगी जैसे कि हमारे अभिनन्दन की सफल घर
वापसी के बाद कहीं—कहीं यह उपलब्धि बैनर—पोस्टर में नजर आने लगी, लेकिन इतने सालों बाद भी कोई ऐसा उम्दा पोस्टर
किसी भी माध्यम पर हमें नहीं दिखा है, जिसमें विमुद्रीकरण को महिमामंडित किया
गया हो, आपको
कहीं दिखा हो तो जरूर ट्विट कीजिएगा।
यही नहीं नोटबंदी के प्रभावों के लिए देश में
कोई ठीकठाक अध्ययन ही करवाने की जरूरत नहीं समझी गई। लोकसभा में दी गई एक जानकारी
में वित्त राज्यमंत्री ने यह बताया कि 15—16 में जहां देश में जाली नोटों की
संख्या 632926, 2016—17 में 7,62, 072 थी वह 2017—18 में घट कर 522783 हो गई। इस जानकारी
का मतलब तो यह है कि नोटबंदी के बाद भी 522783 अदद जाली नोट देश में नोटबंदी के
बाद भी पकड़ में आए।
दूसरी एक बड़ी उपलब्धि यह भी बताई गई जो यह
बताती है कि नोटबंदी के बाद के महीनों में तकरीबन 900 समूहों पर आयकर विभाग ने
छापामारी की, और
900 करोड़ से अधिक की आस्तियां जब्त कीं। 7900 करोड़ रुपए की अघोषित आय का भी पता
चला। नवंबर 17 तक 360 और समूहों की तलाशी ली गई और 700 करोड़ की आस्तियां, और तकरीबन दस हजार करोड़ की आय का
प्रकटन हुआ।
सवाल यह है कि पूरे देश को लाइन में खड़ा करने
के विकल्प के अलावा क्या कोई विकल्प था, जिससे यह टैक्सचोरी का यह खेल का
खुलासा हो पाता। देश में आयकर विभाग का अपना काबिल ढांचा है, क्या यह एक विकल्प हो सकता था कि सरकार
इस काबिल ढांचे को भी सेना की तरह ही काम करने को कहती, और ऐसे तमाम चोरों का काला चिट्ठा
सामने आ पाता। क्या यह भी नहीं हो सकता था कि देश से ऐसे भगोड़ों पर भी सर्जिकल
स्टाइक करके सरकार अपने नंबर बढ़ा लेती, जिससे उनका दोबारा सरकार बनाने का दावा
और पुख्ता हो जाता। लंदन की गलियों में पिछले दिनों टहलते पाए गए अकेले नीरव मोदी
ही इस पूरी नोटबंदी के हासिल बराबर यानी तकरीबन 11 हजार करोड़ रुपए का धन डकार के
बैठे हैं।
नोटबंदी के बाद आतंकवाद की रीढ़ आर्थिक रूप से
तोड़ देने के दावे को तो सरकार भूलकर भी नहीं कह पाएगी क्योंकि पुलवामा के हमले के
बाद तो यह देश के मतदाताओं के दिल और दिमाग पर उलटा ही असर करेगी।
अब धीरे—धीरे जब आदर्श आचार संहिता की छाया में
देश दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का प्रधानमंत्री या प्रधानसेवक चुनेगा तब यह
सवाल बार—बार
आएंगे कि जनता चुने तो किसे चुने और चुनने का आधार क्या हो ? क्या वह नोटबंदी के
दर्द को पुलवामा हमले के बाद पाकिस्तान को दिए गए जवाब से संतुष्ट होगी या फिर
उसे भी नोटबंदी की तरह ही दबे मन से शंका की नजरों से देखेगी ?
देश की सुरक्षा के मामलों में देश की जनता को
किसी पर भी कोई शंका नहीं है, कोई अविश्वास भी नहीं है, लेकिन यह भी सही बात है कि जिस तरह से
राजनीति ने समाज में अपनी प्रतिष्ठा को रसातल तक गिरा लिया है, और कोई चार—पांच बरस से नहीं, दशकों से लोकतंत्र में ‘लोक से तंत्र’
की खाई बढ़ती गई है, उसने जनता के विश्वास को हिलाकर भी रख दिया है। इसलिए भी व्यक्ति की
जुबान को खामोश किया जा सकता है, लेकिन उसके मन में उठे सवालों का जवाब तो देना ही चाहिए, इसलिए नहीं कि वह मांगा जा रहा है, इसलिए नहीं कि कोई सवाल कर रहा है, इसलिए क्योंकि भारत जैसे लोकतांत्रिक
समाज में अभी यह गुंजाइश पूरी तरह से बची हुई है और लोकतंत्र पर इस भरोसे को बनाए
रखना, लोकप्रतिनिधियों
की साख को बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि वह सब कुछ उन लोगों को बताया जाए जो
लोगों के मन में है। उसे शब्दों की बाजीगरी से बरगलाया न जाए।
नोटबंदी भी एक ऐसा ही सवाल है ? देखना होगा कि
सरकार अपने को बचाने के लिए इस मुद्दे को कैसे आगे ले जाते हैं और क्या विपक्ष
आरबीआई की ताजा जानकारी के मार्फत क्या इस पर सरकार को लोकसभा चुनाव में घेर पाता
है ?
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