टिकर

5/recent/ticker-posts

भाग 12 - भारतीय विशिष्ट जाति परंपरा की सड़ांध

demo pic from google image. 

भारतीय परिप्रेक्ष्य में जातिवाद को समझने में डा. लोहिया इसीलिए अत्यन्त मददगार सिद्ध होते हैं। जैसा कि उन्होने साफ कहा भी था कि, कोई भी सुधारक गिरोह भी, स्वयं एक गिरोह के रूप में समा लिया जाता है। अपने आसपास नजर दौड़ा कर हम जब हिन्दू धर्म से परे इस्लाम, ईसाई, सिख और यहां तक कि जैन धर्म को भी विश्लेषित करते हैं तो पाते हैं कि भारतीय विशिष्ट जाति परंपरा की सड़ांध किसी न किसी रूप में उनमें भी प्रविष्ट कर गई है। 

दूसरे शब्दों में कहें तो जाति व्यवस्था अब सिर्फ हिंदू धर्म की बपौती नहीं रह गई है। सैकड़ों साल पहले जिन लोगोेें ने अपना धर्म भले ही छोड़ दिया लेकिन स्वयं को जाति व्यवस्था से मुक्त नहीं कर पाए। इसीलिए आज यह अपनी जाति व्यवस्था में आक्रामकता को एकदम नए तेवर के साथ पुनः स्थापित करने में लगे हैं। 

समाजों में सामुहिक विवाहों की बढ़ती परंपरा इसे और अधिक मजबूती प्रदान कर रही है। दूसरी ओर दलितों पर बढ़़ते अत्याचार, जिसमें सर्वाधिक घृणित अपराध बलात्कार है, वर्ष दर वर्ष बढ़ते ही जा रहे हैं। 

डा. लोहिया कहते भी थे, ''कई हजार बरसों से गलती को सुधारने और न्याय और समता के नए युग का आरंभ करने के लिए द्विज को वक्ती अन्याय सहने के लिए तैयार रहना चाहिए। जिस दिन ब्राह्मण और बनिये अपना वर्चस्व समाप्त कर देंगे वह उनके लिए बड़ा गौरवान्वित दिन होगा।'' वहीं दूसरी ओर चेताते हुए यह भी कहते है कि, ''लेकिन पिछड़ी जातियों की कमजोरियों से भी सचेत रहना चाहिए, विशेषतःः उनकी उस प्रवृति से कि जब वे समृद्ध अथवा शक्तिशाली बनते हैं तो वे उँची जातियों की आदतो और तौर तरीकों की नकल करने लगते हैं।'' इसका एक उदाहरण हमारे सामने दलित समुदाय में महिलाओं के विरुद्ध बढ़ती आक्रामकता से सामने आता भी है।

जातिप्रथा के गुणदोषों पर हम पिछले 500 वर्षो से लगातार विमर्श कर रहे हैं। मध्यकाल के संत-कवियों ने काफी स्पष्टता से इसका प्रतिकार किया भी था। लेकिन जितना परिवर्तन अपेक्षित था वह नहीं हो पाया। आजादी के आंदोलन के दौरान यह दूरियां थोड़ी पटी भी थीं। लेकिन स्वतंत्रता के बाद शासन व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन न हो पाने की वजह से बदलाव की रफ्तार थोड़ी धीमी भी पड़ी। सिर्फ आरक्षण से इस व्यापक व जटिल मसले का हल निकल पाने की आशा रखना भी नादानी ही होगी। इस दिशा में दोनो ही वर्णो को बहुत सोच विचारकर कदम बढ़ाने होंगे। 

दुःखद यह  है कि वर्तमान राजनीतिक व सामाजिक दायरे में इस दिशा में प्रयत्न करना अब शायद संभव नहीं हो पा रहा है। आवश्यकता उस दायरे को तोड़ कर बाहर आने की है। लेकिन हमारे यहां होने वाले चुनावों का तानाबाना कुछ ऐसा हो गया है कि निकट भविष्य में कोई राह निकलती नजर नहीं आ रही है। बहरहाल यह तो तय है कि हमारी आक्रामकता में जाति व्यवस्था का काफी योगदान है।

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ