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पातालकोट में गणतंत्र

पातालकोट मतलब पाताल में बसी दुनिया। ऐसी दुनिया जहां सूरज की रोशनी तक नहीं पहुंची। जहां बौने लोग रहते हैं। अगर आप पातालकोट में गलती से उतर भी गए तो पातालकोटवासी आपको मक्खी बना देंगे या मार ही डालेंगे। कुछ साल पहले तक छिंदवाड़ा के तामिया ब्लॉक से 17 किमी दूर बसी इस छोटी सी दुनिया के बारे में यही कहा सुना जाता था। अब भी ऐसी खबरें तो पढ़ने को मिल ही जाती हैं कि पातालकोट में कोई रास्ता है जो पाताल तक जाता है, या आज भी बिना कपड़ों के रहते हैं यहां आदिवासी। ऐसी खबरें जो एक किस्म का रोमांच पैदा करती हैं। 


...पर ऐसा है नहीं। भले ही पातालकोट के 12 गांव किसी और दुनिया का आभास कराते हैं लेकिन यहां जाने के बाद आपको लगेगा कि पातालकोट के वाशिंदे अभावों के बाद भी कैसे अपने संघर्षों में जुटे हैं। भारिया आदिवासियों की यह दुनिया मशीनों के जमाने में अब भी मेहनत से ​नहीं कतराती। मेहनत उसके जीवन का एक हिस्सा है। जंगल उसकी जान है। कुदरत उसका प्यार है।


भले ही आजादी के पांच दशकों के बाद यहां की दुर्गम घाटी में सड़क जैसी कोई चीज पहुंची, लेकिन साल 2016 के आतेआते यहां गणतंत्र का वह चेहरा दिखाई देता है, जो इस देश के लिए थोड़ा सुकून भरा है। साल की 67वीं गणतंत्र दिवस की दोपहरी को जब मैं पातालकोट के घटलिंगा गांव में पहुंचा तो गणतंत्र दिवस मनाने के लिए पूरा गांव यहां जमा था। तीन हजार रुपए खर्च करके यहां पर टेंट लगाया गया था, एक टेंट में गणमान्यजन बैठे थे, खुले आकाश के तले उनका रंगमंच, मैदान में तकरीबन पूरा गांव और उसके पीछे पहाड़ का कुदरती परदा। 


प्रधानमंत्री का समग्र स्वच्छता अभियान यहां के एक गीत में दिखा खुले में शौच न जईयो भैया अपनी लाज बचईयो भैया। काई भैया जो का हो गो रे, तेरो पांव काई मोटो हो गो रे यह गीत यहां की एक बीमारी फाइलेरिया पर था। यह गीत यहां के स्थानीय शिक्षक एसएल भारती ने लोकधुनों पर ही लिखे। हाईस्कूल के बच्चों ने यहां पर अनपढ़ बीबी का नाटक प्रस्तुत किया। पारंपरिक सैताम और दूसरे लोकनृत्य बड़े लोगों ने प्रस्तुत किए। कार्यक्रम तकरीबन शाम तक चला। कार्यक्रम समाप्ति के बाद एक लड़की ने हिम्मत बांध ही ली। वह मंच पर आई और देश मेरा रंगीला गाने पर उसने बेहतरीन नृत्य प्रस्तुत किया। किसी भी मंझे हुए कलाकार से बेहतर, बिना किसी प्रशिक्षण के।



ऐसी प्रस्तुतियां कोई नयी बात नहीं है। हां, पातालकोट में मुझे ऐसा गणतंत्र मिलेगा, मैंने उम्मीद नहीं की थी। कुछ बच्चों से भेंट हुई यहां। इनकी आंखों में भी डॉक्टर, वैज्ञानिक और शिक्षक बनने के सपने तैरते हैं। यह बड़ी बात है। मुमकिन हो पाते हैं या नहीं यह अलग बात है। सरकारीगैरसरकारी कोशिशें चल रही हैं। घटलिंगा की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता के घर के आगे उसके नाम से नेम प्लेट लगी हुई है। 

आंगनवाड़ी का छोटा सा काम उसके लिए बहुत बड़ा है। गांव की लड़की संगीता पिछले रविवार ही मप्र पीएससी की परीक्षा में बैठी है। यहां के बच्चे यूनीसेफ और मप्र विज्ञान सभा की एक पहल के साथ जुड़े हैं। पहल इस बात की कि यहां के बच्चों को भी एक रचनात्मक माहौल मिले। इसके लिए इन गांवों में ज्ञानविज्ञान पोटली बनाई गई है। यहां किताबें, खिलौने और ऐसी सामग्री रखी जाएगी जो उनकी रचनात्मकता को मौके दे। यह लोग एक दीवार अखबार भी निकालते हैं, नाम रखा है गुइयां यानी दोस्त।



ऐसे दौर में जबकि गणतंत्र दिवस, स्वतंत्रता दिवस को एक और छुट्टी का दिन मान लिया जा रहा हो, ऐसा आयोजन सचमुच सुखद है। देर शाम जब हम एक स्थानीय निवासी के घर से चाय पीकर वापस उसी मैदान से गुजरे तो वे बच्चे गीतों पर नाच रहे थे, जो उजाले में शरम के मारे मंच पर नहीं आ पाए थे।



Article carried by Narad Times, Weekly news paper from Bilaspur. Editor is Mr Ratan JaswaniJi. 

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4 टिप्पणियाँ

ratan jaiswani ने कहा…
बेहतरीन लेख. राकेश जी, मेरे वीकली अखबार नारद टाइम्स के लिए आपका लेख उपयोग कर सकता हूँ क्या, अगर अनुमति दें तो,
Rakesh Malviya ने कहा…
रतन जी धन्यवाद, आपने इस आलेख को पसंद किया, आप इस आलेख का जरुर उपयोग करें. आपको बड़ी तस्वीरें चाहिए हों तो वो भी बता दें. मैं आपको मेल कर दूँगा. प्रकासहन के बाद एक कॉपी यदि मुझे भेज सकें तो आभारी रहूँगा.
ratan jaiswani ने कहा…
आभार राकेश जी, मेल आई डी - ratan.jaiswani@gmail.com पर फोटो भेज सकते हैं. आपका पता दीजिए, उस पर कापी भेज दूंगा।
tamanaa ने कहा…
बेहतरीन लेख,सही मायने में राष्ट्रीय त्यौहार पातालकोट निवासियों ने ही मनाया। आप साक्षी बने और हमें लेख के माध्यम से साक्षी बनने का मौका दिया। धन्यवाद।