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National Media Conclave: स्वास्थ्य: जय जयकार बनाम हाहाकार



एकै त्वचा हाड़ मल मूत्रा, एक रुधिर एक गूदा।
                    एक बूंद से सृष्टि रची है, को ब्राह्मण को सूद्रा।।      - कबीर
   
                                 
संत कबीर का यह दोहा हमारी जाति व्यवस्था पर बहुत तीखी चोट करता है। यदि इसमें थोड़ा सा संशोधन कर अंत में ‘‘को अमीरा को गरीबा‘‘ कर दें तो भारतीय स्वास्थ्य सेवाओं को समझने, समझाने, उसकी समीक्षा व सुधार में सहायता मिल सकती है। ‘‘विकास संवाद‘‘ भोपाल स्थित एक संस्था है जो कि मूलतः सार्वजनिक नीतियों के विश्लेषण का कार्य करती है। प्रति वर्ष किसी एक विशिष्ट स्थान पर विशिष्ट विषय पर केंद्रित मीडिया सम्मेलन का आयोजन करती है। अपने नौवें उपक्रम में विकास संवाद ने झाबुआ (म.प्र.) में ‘‘मीडिया में स्वास्थ्य‘‘ पर संवाद किया। इस सम्मेलन में देशभर से एक सौ से अधिक मीडियाकर्मियों ने शिरकत की थी। इसमें प्रिंट, इलेक्ट्रानिक सोशल व वेब मीडिया यानि चारों प्रकारों से संबंद्ध पत्रकार/भागीदार मौजूद थे। 17 से 19 जुलाई तक चले इस सम्मेलन में करीब 10 सत्रों में स्वास्थ्य से संबंधित विषयों का मीडिया में क्या स्थान है एवं मीडियाकर्मी इससे जुड़ी राजनीतिक अर्थव्यवस्था को कैसे समझें। इन विषयों पर विस्तार से सारगर्भित चर्चा हुई। विषय विशेषज्ञों के रूप में डा. ऋतुप्रिया, डा. अमित सेनगुप्ता, अमूल्य निधि के साथ वरिष्ठ पत्रकार अरुण त्रिपाठी, भाषा सिंह, अन्नू आनंद, सुधीर जैन,  प्रसून लतांत आदि वरिष्ठ पत्रकार भी मौजूद थे।

यह सम्मेलन भारत व विश्व में स्वास्थ्य क्षेत्र की वर्तमान स्थिति को समझने व परखने का माध्यम बन गया। यह बात उभर कर आ रही है कि भारत में स्वास्थ्य सेवाएं दो अतियों, जय जयकार और हाहाकार पर स्थित हैं। एक वर्ग यह कहते फूला नहीं समा रहा है कि भारत में ‘‘वल्र्डक्लास‘‘ यानि विश्वस्तरीय स्वास्थ्य सेवाएं मौजूद हैं और कभी विश्वगुरु रहा भारत शायद ‘‘मेडिकल टूरिज्म‘‘ अर्थात् स्वास्थ्य पर्यटन के माध्यम से एक बार पुनः ‘‘धन्वंतरी‘‘ के अवतार के रूप में प्रकट होकर सारी दुनिया, नहीं-नहीं पूरे ‘‘विस्व‘‘ में अपना लोहा मनवा लेगा। पिछले एक वर्ष में हम इस दिशा में छलांग लगा भी रहे हैं। वहीं दूसरी ओर हाहाकार करता 80 प्रतिशत भारतीयों का वर्ग है, जिसके करीब 3.5 करोड़ लोग हर साल स्वास्थ्य सेवाएं पाने की विवशता में गरीबी रेखा से नीचे जा रहे हैं। गांवों और शहरों में नागरिकों की संपत्तियां इसी वजह से रोज बिक रही हैं। झाबुआ जैसे आदिवासी बहुल जिले में यह विरोधाभास और तीव्रता से सामने आता है।

सम्मेलन में समाज में स्वास्थ्य पर हुई चर्चा के दौरान यह बात भी सामने आई कि एलोपैथिक दवाओं और उपचार पद्धति पर अत्यधिक निर्भरता ने भी स्थितियों को प्रतिकूल बनाया है। दवा कंपनियों की विराटता और पहुंच सच में डरावनी होती जा रही है। पिछले दिनों  एक अमेरिकी दवा कंपनी इली लिली पर अमेरिका में करीब 57000 करोड़ रु. का जुर्माना लगाया गया था दूसरी ओर भारत जैसे ‘‘120 करोड़ आबादी वाले देश‘‘ का स्वास्थ्य पर (केंद्र सरकार) बजट करीब 35000 करोड़ रु. है। इससे भी ज्यादा चिंताजनक बात यह है कि भारत में नई  एनडीए सरकार ने आजादी के बाद पहली बार स्वास्थ्य पर बजट आवंटन कम किया है।

वहीं पेंटेंट कानून की भुजाओं में भारतीय दवा उद्योग दम तोड़ रहा है। भारत आज दुनिया के गरीब देशों को उचित मूल्य पर दवाइयाँ उपलब्ध करवा कर एक महत्वपूर्ण मानवीय कार्य कर रहा है। एक समय जब एच आई वी/एड्स की दवाई विकसित देश 10 हजार डालर प्रतिवर्ष, प्रति व्यक्ति के हिसाब से बेच रहे थे तब एक भारतीय कंपनी ‘‘सिप्ला‘‘ ने यह औषधि मात्र 350 डाॅलर प्रति व्यक्ति प्रतिवर्ष के हिसाब से उपलब्ध कराई थी। गौरतलब है अब इसी दवा की कीमत मात्र 90 डाॅलर रह गई है। लेकिन भारत भी अब बजाए निर्माण के इसके व्यापार में ज्यादा रुचि लेने लगा है और कच्चा माल चीन से खरीद रहा है। इसके अलावा जेनेरिक दवा निर्माण की भारतीय कंपनियों को विदेशी कंपनियां बड़े पैमाने पर खरीद रही हैं जिससे विश्व की स्वास्थ्य सेवाओं पर विपरीत असर पड़ेगा।

कबीर कहते हैं, ‘‘कबीरा सोइ पीर है, जो जाणे पर पीर‘‘ यानि वही संत है जो पराये की पीड़ा जानता है। हमारी चिकित्सकों से यही उम्मीद रहती है। सम्मेलन में चिकित्सकों के व्यवहार व उनके द्वारा किए जा रहे अनैतिक आचरण पर भी विस्तृत चर्चा हुई। इसमें ज्यादा दवाई (विशिष्ट) लिखना, अनावश्यक आपरेशन खासकर प्रसव के दौरान, कन्याभ्रूण हत्या, सरोगेसी जैसी मनोवृतियों को काफी विस्तार से विश्लेषित किया गया। विशेषज्ञों ने चिकित्सा क्षेत्र के लिए दो विशेषणों ‘‘मरीजों का शोषण‘‘ व ‘‘व्यवसाय के अपराधीकरण‘‘ का बहुत खेद के साथ इस्तेमाल करते हुए कहा कि अब यह एक सच्चाई है। प्रतिभागियों ने भी इस व्यवसाय में ‘‘नष्ट होती करुणा व मानवता‘‘ का विस्तार से जिक्र किया। डाक्टरों द्वारा दवा कंपनियों के इशारे पर किए जा रहे कतिपय अनैतिक व गैरकानूनी क्लिनिकल ट्रायल के साथ ही चिकित्सकों द्वारा दवा कंपनियों के माध्यम से विदेश यात्रा एवं उपहार लेेने पर भी चर्चा की। विभिन्न सत्रों में सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर मीडिया की बेरुखी पर भी सभी साथियों ने चिंता व्यक्त की। चिकित्सा क्षेत्र में आए बदलाव पर भी वे आश्चर्यचकित थे। जिगर

मुरादाबादी ने लिखा है,

इब्तिदा वो थी कि था जीना मुहब्बत में मुहाल,
इन्तिहां यह है कि अब मरना भी मुश्किल हो गया।।

दो सत्रों में विकास के नए माडल से जुड़ी कुछ बीमारियों पर भी चर्चा हुई। ऐसा नहीं है कि यह बीमारियां औद्योगिक क्रांति के पहले अस्तित्व में नहीं थीं लेकिन उनकी सघनता इतनी नहीं थी। ऐसी दो बीमारियों, सिलिकोसिस और फ्लोरोसिस पर यहां विस्तार से चर्चा हुई। सिलिकोसिस के प्रमाण मिस्त्र के पिरामिडों में रखी ममियों में भी मिले हैं। वर्तमान मशीनीकरण की वजह से सिलिका (विशिष्ट धूल) के कण अत्यंत महीन हो जाते हैं और यह असाध्य व जानलेवा बीमारी सिलिकोसिस को जन्म दे देते हैं। मध्यप्रदेश के गुजरात से सटे तीन आदिवासी बहुल जिलों झाबुआ, अलिराजपुर व धार में यह बीमारी आम है। 500 से अधिक लोगों की मृत्यु हो चुकी है और हजारों लोग इससे पीडि़त हैं।

देशभर में करीब 2 लाख लोग प्रतिवर्ष इस कष्टदायक बीमारी से मरते हैं। चर्चा के दौरान यह सामने आया कि इससे पीडि़त मजदूरों को मुआवजा इसलिए नहीं मिल पा रहा है क्योंकि गुजरात सरकार का कहना है कि यह मध्यप्रदेश के निवासी है, वहीं मध्यप्रदेश सरकार का मत है इन्हें बीमारी तो गुजरात में लगी है। जाहिर है यह सीमा पड़ोसी शत्रु देशों जैसी तो नहीं होनी चाहिए। वहीं फ्लोरोसिस हमारे द्वारा बहुत नीचे से भूगर्भ जल को निकालने से फ्लोराइड की चट्टानों से संपर्क वाले पानी के सतह पर आने से होता है। हम पानी उलीच कर मौत पी रहे हैं। लाखों लोगों के हाथ पाँव टेड़े हो रहे हैं। इतना ही नहीं जिन खेतों में इस पानी से सिंचाई होती है, उसमें पैदा उपज को खाने वाले को भी यह बीमारी हो सकती है। इस सबके साथ विशिष्ट विषयों ‘‘महिला स्वास्थ्य एवं मीडिया व स्वास्थ्य के संबंध में कानूनी प्रावधान पर भी सारगर्भित चर्चा हुई। एक अन्य सत्र में नई स्वास्थ्य नीति (प्रस्तावित) में निजीकरण को बढ़ावा देने व नई पर्यटन नीति में स्वास्थ्य पर्यटन पर जोर दिए जाने पर विस्तृत चर्चा हुई।

यह चर्चा सुनते हुए एकाएक सन् 1789 की फ्रांसीसी क्रांति की याद हो आई। वहां मूूल प्रश्न रोटी का था। लेकिन भारत में आज जिस तरह से 80 प्रतिशत से अधिक आबादी स्वास्थ्य व पोषण को लेकर लगातार जूझ रही है उससे धीरे-धीरे ही सही असंतोष का वातावरण तैयार हो रहा है। सरकारों को ऐसा लगने लगा है कि हम सब बास्तीय के किले के बंदी हैं और शायद हमें अपनी जंजीरों के साथ सोने की आदत पड़ गई है। हमें अपने इस स्वनिर्मित किले को ध्वस्त करना ही होगा। चिकित्सा सेवा क्षेत्र को ‘‘केयर से कवर‘‘ में परिवर्तित करने वाली परिस्थितियों को भी बेनकाब करना होगा। मीडिया सम्मेलन में उठे सभी विषयों पर लगातार चर्चा होना जरुरी है।

कबीर कहते हैं,

       जिस बकरी का दूध पिया, हो गई माँ के नाते।
      उस बकरी की गर्दन काटी, अपने हाथ छुराते।।      

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