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जंगल में मौत के मायने



राकेश कुमार मालवीय

दो खबरें हैं, गौर कीजिए। एक इंसान की है, एक जानवर की है। दोनों खबरें जंगल से ताल्लुक रखती हैं। दोनों घटनाएं दुनियाभर में मनाए जाने वाले जैव विविधता दिवस के आसपास की हैं। पहली खबर एक बाघ की है। बाघ किसी दुर्घटना (संभवतः किसी रेल अथवा टक की टक्कर में) में बुरी तरह से जख्मी हो गया। वह पानी की तलाश में भटककर रेल लाइन के आसपास तक पहुंचा। कुछ रेलकर्मियों ने उसे देखा। सूचना दी। जब तक वन विभाग के कर्मचारियों तक यह खबर पहुंची और अमला कछुआ गति से बाघ को बचाने के लिए पहुंचा, वह तड़प-तड़प कर मर चुका था। यह खबर मध्यप्रदेश के रिजर्व फारेस्ट एरिया रातापानी के इलाके की है। इसी दिन अखबार में एक दूसरी खबर छत्तीसगढ़ के अंबिकापुर क्षेत्र की थी। यहां जंगल में भटककर एक बच्चे की मौत हो गई। डाॅक्टरों के मुताबिक जिस मौत से चौबीस घंटे पहले से उसके पेट में एक अन्न का दाना नहीं गया था। भीषण गर्मी और लू मौत का तात्कालिक कारण बनी।

हमारे देश में सैकड़ों सालों से लोग जंगलों में रहते आए हैं। संभवतः सभ्यता की शुरूआत से मनुष्य और जानवर दोनों ही पूरे अधिकार, जिम्मेदारी और जिंदगी के एक ताने-बाने के साथ न केवल रहे हैं बल्कि जंगलों से उन्होंने अपना पेट भी भरा है। बिना जंगल को नुकसान पहुंचाए। जंगल आधारित व्यवस्था केवल जानवरों के लिए नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से कई-कई पीढि़यों से होते हुए यहां तक पहुंची थी। इस सदी की शुरूआत तक की स्थिति यह बताती है कि  सैकड़ों सालों की इस व्यवस्था ने जंगलों का उस तरह से शोषण नहीं किया, जो पिछले लगभग सौ सालों में हम कर चुके हैं और लगातार कर रहे हैं। क्योंकि वह व्यवस्था ऐसा मानती थी कि हमारी अगली पीढि़यों के लिए भी हमें कुछ बचाए रखना है। इसलिए वह व्यवस्था यह सिखाती थी कि जितनी जरूरत है, उतना ही लेना है। मौजूदा व्यवस्थाएं इससे ठीक उल्टा करने में यकीन रखती हैं।

लेकिन केवल जंगल ही नहीं बल्कि प्राकृतिक संसाधनों के दोहन की शुरूआत अंग्रेजों ने जिस तरह के कानून बनाकर की और उसके बाद उनकी मंषाओं को हमारे अपनी सरकारों ने भी आजादी मिलने के बावजूद बनाए रखा उसमें इस तरह की खबरें आनी ही थी। बल्कि यह अभी शुरूआत भर है। इससे पहले ऐसी खबर हमें सुनाई नहीं दी है जिसमें एक बच्चा जंगल के अंदर भूख से मर गया। क्या उसे खाने को एक फल भी न मिल सका।  या जंगल की छांव उसे लू लगने से नहीं बचा सकी। आखिर जंगल में मौत के मायने क्या हैं।

मीडिया में प्रकाशित इन खबरों पर गौर करें तो दोनोें ही खबरों में हमारे जंगल का एक ऐसा सच सामने आ रहा है जिसपर गौर करना बेहद आवष्यक है। बाघ और युवक दोनों ही जंगल में भटकते रहे, न बाघ को इलाज मिला और न ही भूखे को भोजन। जबकि हमारे जंगल कभी इतने समृदध हुआ करते थे कि कम से कम जानवरों की और मनुश्यों की इस तरह कोई मौत नहीं होती थी। एक परस्पर जीवन चक्र हुआ करता था। जिस छत्तीसगढ़ के जंगल में एक लड़का भूख से मर जाता है उसी छत्तीसगढ़ में कभी राम ने अपना पूरा वनवास बिताया। उसी जंगल में इतने प्रकार के फल पाए जाते थे जिससे बिना किसी दिक्कत के 14 साल का समय बिताने की बात सामने आती है।

लेकिन हमारे विकास ने जिस तरह से विविधता वाले जंगलों का नाष करके वनों को फिर से विकसित किया, उसमें ऐसी घटनाओं पर कोई  आश्चर्य नहीं होना चाहिए।

देश में बाघों की संख्या पहले घटी, एक वक्त ऐसा आया जब दुनिया भर से बाघों के विलुप्त होने का ही खतरा हो गया। ऐसे में हमारे कर्ताधर्ताओं ने देश  के कई हिस्सों में बाघों के लिए जंगलों को आरक्षित किया और बाघों के बचाने का बीड़ा उठाना पड़ा। आंकड़े बड़े भी। साल 2010 में विभाग जहां 1706 बाघ होने का दावा जता रहा था वहीं अब इनकी संख्या तीस फीसदी बढ़कर 2226 हो गई है। हालांकि कितने बाघ बचे हैं वास्तव में इस पर कई तरह की डिबेट भी है। सरिस्का में टाइगर रिवर्ज होते हुए भी एक समय कहा गया वहां एक भी बाघ नहीं बचा है। बहरहाल तथ्य यह जरूर है कि देश  के 18 राज्यों के टाइगर रिजर्व के लिए लगभग 3ण्7 लाख किमी जमीन आरक्षित की गई है और इस जमीन के अंदर हजारों लोगों को बाहर खदेड़ा गया है।

बहस का बिंदु यह भी है कि जिन बाघों के नाम पर हमने हजारों आदिवासियों को जंगल और जानवरों का दुष्मन मानकर बाहर खदेड़ दिया उन बाघों को भी हम बचा पा रहे हैं। आखिर क्या कारण है कि प्रदेष की राजधानी तक में इन बाघों की आमद बनी हुई है। क्या जानवरों की आड़ में जंगलों को माफिया अंदर ही अंदर खोखला तो नहीं बना रहे। आखिर ऐसा क्या है कि जिन जंगलों से लोगों को खदेड़ दिया जाता है वहीं टूरिज्म के लिए बड़ी कंपनियों के पंचतारा होटल भी खुल जाते हैं और एक नए किस्म का टूरिज्म शुरू हो जाता है। उसकी सुविधा के लिए रिजर्व फारेस्ट के बंद रहने का समय भी बकायदा घटा दिए जाने का उपक्रम होता है। आखिर क्या वजह है। आखिर क्या वजह है कि जिन जंगलों के अंदर सबसे ज्यादा समृदध और हष्ट-पुष्ट समाज रहा करता था, उसी समाज के नयी पीढ़ी के बच्चे सबसे ज्यादा कुपोषण का शिकार हो जाते हैं।

हमारे मुख्यमंत्री टिवट करके जैव विविधता को बचाने का आग्रह करते हैं। जल,जंगल जमीन बचाने का संदेश  देते हैं। अच्छी बात है। लेकिन जब हम विविधता की बात करते हैं तो क्यों एक जैसे पेड़ लगाकर नर्सरी तैयार करके भरपाई की जाती है। और जानकार तो कहते भी हैं कि कोशिशों से एक नर्सरी ही लगाई जा सकती है, जंगल तो कई हजार सालों में विकसित होता है। जंगल कभी किसी को मरते नहीं देखता है। उसकी अपनी बायोडायवर्सिटी ऐसी होती है जो सभी जीवों को खुद में समाकर रखती है।

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