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बालू भाई उर्फ बुधन से फर्स्ट डे फर्स्ट शो का
वायदा करने के बावजूद पूरे दो सप्ताह की देरी से यह फिल्म देखी। फिल्म देखने पर
पैसे खर्च करने का पहला कारण तो वही बनता है, लेकिन बालेन्द्र सिंह को फिल्म से एक बारगी निकाल दिया जाए या
उन्हें अपने भोपाल का नहीं भी माना जाए तो भी यह फिल्म देखा जाना निहायत जरूरी है
कई कारणों से।
हालांकि इस बीच कई—कई
समीक्षाएं आ गई हैं और उस पर भी इस फिल्म के बारे में लिखना वर्चुअल स्पेस को
बर्बाद करना तो नहीं होगा, लेकिन
यह मानते हुए कि इससे सीधे तौर पर पर्यावरण को नुकसान नहीं हो रहा है तो कोशिश तो
कर ही सकते हैं। इसलिए भी कि एक उम्मीद तो देती ही है, इसलिए भी कि फिल्म एक बहस तो नहीं
लेकिन एक सवाल तो जरूर उछालती है मौजूदा विकास पर। हालांकि मल्टीप्लैक्स की
स्क्रीन पर यह सवाल विसंगति पैदा करता है, लेकिन हमारे पास कई बार विकल्प मौजूद नहीं होते। फिल्मी किरदारों में
यह बात दिखाई जा सकती है कि अपने पुश्तैनी मकान को न बेचना भी एक रास्ता है, लेकिन असल जीवन में इस सवाल के पार जा
पाना इस दौर में बेहद कठिन है।
मुझे इस बारे में बिलकुल नहीं पता कि
अमिताभ बच्चन ने इस फिल्म के लिए क्या फीस ली होगी। लेकिन सदी के तथाकथित महानायक
को उम्र के इस पड़ाव पर एक ऐसे रोल में देखना निश्चित ही नया अनुभव रहा। उनकी
अदाकारी का जो जलवा सत्तर के दशक से भारतीय दर्शकों ने देखा है, और जिसे वह लगातार एक व्यवस्थित रूप
में खड़ा करते आए हैं उससे इतर एक बंगाली के रूप में आना क्या उम्र का असर माना
जाए या वाकई अब वह एक नया अमिताभ रचने की कोशिश में हैं। केवल किरदार के रूप में
ही नहीं, कहानी के रूप
में भी। इस संभावना को यदि इस उम्र से पहले भी तराश लिया जाता तो एक वर्ग जो उनकी
महानायिकी को तथाकथित उपसर्ग के साथ सामने लाता है, जरूर हतोत्साहित होता।
और पीकू। फिल्म में महिला किरदार को
निभा भर देने से आगे तारीफ करनी होगी दीपिका की, लेकिन ज्यादा
नंबर तो उस कहानीकार और निर्देशक को भी देने ही होंगे जो उसने बॉलीवुड की हीरोगिरी
के बीच एक हीरोइन को स्थापित किया। इरफान लाजवाब लगे, अपने रोल में
पूरे ईमानदार। और अपने बालू भाई, जहां मौका मिला चौका मारा। हालांकि
उनका रोल बहुत सीमित था, उनके सीन कैमरों के लेंस में सीधे
देखकर दर्शकों की आंख से आंख मिलाने वाले भी नहीं थे। बावजूद इसके बेहतरीन। उनका
रंगमंचीय प्रतिबिम्ब झलकना ही था, सो हुआ भी।
और अब मैं उस बात पर आता हूं जिससे
दरअसल इस स्टोरी की बात शुरू करना चाहता था। और वह राणा चौधरी का वह संवाद जिसमें
वह कहता है कि ऐसा ही तो विकास है जिसमें हम अपनी रूट से कट रहे हैं। अमूमन हवाई
शॉट से दुनिया के नजारे पेश करती कमर्शियल फिल्म ऐसी बात नहीं ही करती है, लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि विकास
की आंधी हमें जड़ों से उखाड़ रही है। यह बहस तो है, और इसके सवाल वहीं से पैदा होते हैं कि आखिर जिस मल्टीप्लैक्स के
स्क्रीन पर हम फिल्म देख रहे होते हैं उसकी बुनियाद में क्या है। कितने परिवारों
को उजाड़ कर उसे ताना गया है। चलिए मान भी लिया जाए कि ऐसा होना ही था, लेकिन जिन लोगों के बलिदान पर विकास
होता है उन बलिदानियों को विकास क्या देता है। और मध्यमवर्गीय समाज जो ऐसे महान
भवनों की चकाचौंध रोशनी में स्वचलित सीढ़ियों से उतर—चढ़ कर अपने को विकसित मान लेता है, उसके खाते में क्या आता है सिवाय इसके
कि वह लगभग चार—पांच
गुने ज्यादा दामों में समोसा खरीद कर खा लेता है। या पीने की पानी की बॉटल भी अंदर
ले जाने की इजाजत उसे नहीं होती।
विकास का यह सवाल हर कहीं दिखता है
हमारे आस—पास ही। वह
हमारे पुराने भवनों से लेकर सड़कों,
इमारतों और रूट की चीजों से जुड़ा होता है। हमें अपने इतिहास की
चिंता नहीं होती, तभी
तो विकास के सागर में करोड़ो साल पुरानी सभ्यताओं को डुबा दिया जाता है। यह फिल्म
केवल एक भवन की बात करती है, लेकिन
हमारे आसपास बहुत कुछ ऐसा है जो हमारी जड़ों के अनुकूल नहीं है। यदि हम मानते हैं
कि वेस्टर्न कमोड पर बैठकर मोशन करना ही विकास है, तब तो हमें सोचना होगा कि यह कैसा विकास है।
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