प्रतिष्ठित वेब पत्रिका रविवार पर प्रकाशित।
राकेश कुमार
मालवीय
देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के
छत्तीसगढ़ दौरे के ठीक एक दिन पहले दरअसल तेज हवा ने सब कुछ ढहाकर जो कुछ कहा उसे
देखा—समझा जाना चाहिए। यह तो केवल इत्तेफाक भर है कि लोहे के खंभों पर
खड़ा टेंट जो संभवत: प्रधानमंत्री के कार्यक्रम होने के चलते सबसे अच्छी क्वालिटी
का होगा, भरभराकर गिर गया, लेकिन देखा जाए तो छत्तीसगढ़ में जिस
तरह के विकास को दुनिया के सामने प्रस्तुत किया जाता है वह क्या ऐसा है। क्या उसकी
नींव इतनी मजबूत है जो किसी भी तरह के तूफान का सामना करने के लिए तैयार हो। या
फिर यह वैसा है जिसे प्रायोजित तरीके से दुनिया के सामने पेश किया जाता है। वह भले
ही चिकनी—चौड़ी सड़कों के बीच बसा रायपुर हो, या फिर उन चंद
बच्चों की तरह जिन्हें लिखा—पढ़ाकर प्रधानमंत्री से सवाल करवाने के
लिए तैयार करवा दिया जाता है, जबकि ठीक उसी वक्त मानव तस्करी का
शिकार हुए छत्तीसगढ़ के बच्चे देश के कई राज्यों के ईंठ—भटटों पर पसीना
बहा रहे होते हैं।
यह सच बात है कि साल 2000 में अटल
बिहारी वाजपेयी ने देश में जिन तीन नए राज्यों को बनाया उनमें छत्तीसगढ़ एक तरह से
सबसे आगे रहा है। वह संभवत: इसलिए भी क्योंकि इस राज्य के पास प्राकृतिक संसाधनों
का एक अनमोल खजाना था। पिछले 14 सालों में राज्य ने अपने इस खजाने का भरपूर
इस्तेमाल कर राज्य की प्रगति को आगे बढ़ाया है, लेकिन दूसरा पक्ष यह भी है कि ठीक इसी वक्त में यह माओवाद के ज्वलंत
सवालों को अब तक हल नहीं कर पाया है। इसकी बानगी इसी बात से समी जा सकती है कि
प्रधानमंत्री जिन दिनों छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सरकार की पीठ थपथपा रहे थे, उन्हीं दिनों में माओवादी एक दो नहीं
पूरे के पूरे गांव का अपहरण कर अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहे थे। वह भी उस स्थिति
में जबकि छत्तीसगढ़ सरकार ने पड़ोसी राज्यों से भारी सुरक्षा बल भी मंगवा रखा था।
अपने एक सालाना प्रधानमंत्रित्व में
मोदीजी कई कारणों से चर्चा में रहे। उनमें सबसे प्रमुख बात यह भी कि जहां भी वे
जाते हैं कुछ काम ऐसा जरूर करते हैं जिस कारण वह मीडिया की खबरों में अपनी अलग छवि
लेकर आते हैं। बस्तर दौरे में उन्होंने ऐसा ही एक काम किया बच्चों से बात करके।
केवल बात ही नहीं कि बल्कि कुर्सी को अपने हाथों से ठोंककर ताल भी दी। निश्चित ही
अपने प्रोटोकॉल से निकलकर एक प्रधानमंत्री का बच्चों से यूं मिल जाना एक अलग छवि
का निर्माण करता है। इससे पहले भी वह राष्ट्रीय पर्व के मौके पर बच्चों से आधुनिक
संचार माध्यमों से बात कर चुके हैं। मन की बात।
पर क्या प्रधानमंत्रीजी सहित तमाम
सरकारों बच्चों के बुनियादी हकों के लिए, उनके अधिकार वास्तव में दिलाने के लिए
प्रतिबदध हैं। हम उजला ही उजला देखना चाहते हैं या उस सच को भी देखना चाहते हैं,
जो
सचमुच प्रायोजित नहीं है। जिस बस्तर में देश के मुखिया को बच्चों से मिलवाया जा
रहा था ठीक उसी बस्तर में दस दिन पहले ऐसे बच्चे भी पाए जाते हैं जिनका अपहरण कर
महाराष्ट्र की होटलों में काम करवाने के लिए बंधक बनवा लिया जाता है। ठीक उसी
बस्तर के सैकड़ों बच्चे आंध्रप्रदेश के कारखानों में बंधुआ मजदूरी पर लगे होते
हैं। और केवल बस्तर ही क्यों, पूरे छत्तीसगढ़ की बात करें तो मानव
तस्करी की खबरें हर जिले से यहां पर आती हैं। जाहिर तौर पर इनमें बच्चे होते हैं,
पूरे
परिवार के साथ। वह बनारस से लेकर जम्मू कश्मीर के ईंट भट्ठों पर मिल जाते हैं। ऐसा
नहीं है कि इसकी जानकारी है।
एक अनुमान के मुताबिक 2001 से
2013 के बीच राज्य से 65 हजार लोग गायब थे। इन्हें पता लगाने
का सिस्टम भी इतना लचर है कि गायब होने वाले केवल 40 हजार लोगों का
ही पता लगाया जा सका। गौर करने वाली बात यह भी है कि इसी राज्य में 2008 से लेकर 2012 तक
9034 लड़कियां गायब हुई हैं। पुलिस ने दावा यह किया कि गायब हुई इन लड़कियों
की संख्या में से 8000 लड़कियों का पता लगा लिया गया, लेकिन
सवाल वही उठता है कि आखिर लड़कियां और बच्चे लगातार गायब ही क्यों हो रहे हैं ? आखिर क्या कारण है कि जशपुर जैसे
दूरस्थ इलाकों से लेकर राजनांदगांव जैसे मुख्यमंत्री के नेतृत्व वाले प्रमुख जिलों
में भी यह
नेटवर्क कैसे सक्रिय है ? आखिर क्या कारण है कि झारखंड जैसे राज्यों में सरकार ‘प्रोजेक्ट
मुस्कान’ चलाकर ऐसे बच्चों का देश के कई राज्यों में पता लगा रही है और छत्तीसगढ़ जैसे
राज्यों का जोर आईपीएल जैसे आयोजनों पर है।
दरअसल जब प्रधानमंत्री से बच्चों को मिलाया
जाता है तब इस प्रायोजित प्रक्रिया में उस अप्रयोजित को देखा जाना जरूरी है। वह
इसलिए क्योंकि जब तक आप उस सच और यथास्थिति को स्वीकार नहीं करेंगे तब तक उसके
स्थाई इलाज की कोई व्यवस्था भी नहीं करेंगे। केवल बाहरी आवरण को दिखाकर पूरे शरीर
कि स्वस्थता का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता, इसलिए जब कोई
छत्तीसगढ़ और वहां के बच्चों का हाल देखे तब वह केवल नया रायपुर नहीं हो सकता. तब वह केवल
प्रयास, नवोदय और एकलव्य विद्यालयों में पढ़ रहे चंद बच्चे नहीं हो सकते।
उसके लिए यह देखा जाना जरूरी है कि बस्तर का आम बच्चा क्या है, सरगुजा
का आम बच्चा कैसा है। दुखद यह है कि प्रधानमंत्री नवोदय स्कूलों में पढ़ रहे उन
बच्चों के साथ तो ताल दे देते हैं, लेकिन देश के कई हिस्सों में कारखानों
से लेकर ईंट भट्ठों पर पसीना बहाते बच्चे के साथ कौन है ?
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