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बाढ़ का वह मंजर याद आ जाता है - 1


PIC From Prashant Malviya's FB wall
चारों ओर से लहरों की आवाजें कान के अंदर तक घुसकर डराती थीं। नजर जहां जाती वहां तक पानी ही नजर आता। दिमाग में हर घंटे पानी—उतरने चढ़ने का गणित ही चलते रहता। अच्छी खासी जगह एक आईलैंड में तब्दील हो चुकी थी और यह आईलैंड समय के साथ और छोटा होता जा रहा था। हम बाढ़ में पूरी तरह घिर चुके थे। 

जब भी बाढ़ शब्द सुनता हूं तो 15 साल पहले के वे चार दिन जरूर याद आ जाते हैं। हम नर्मदा के किनारे आंवली घाट में थे। एक कार्यक्रम के सिलसिले में वहां लगातार रहना था। नर्मदा का दक्षिण तट हथनापुर कहलाता था और उत्तरी तट आंवली घाट। पता नहीं क्यों दक्षिण तट वाले लोगों से भी कभी दक्षिणी तट को ह​थनापुर नाम से नहीं सुना। यह प्रचलन में आंवली घाट ही कहलाया। जबकि ऐतिहासिक नजरिए से दक्षिणी तट कहीं ज्यादा कथाओं में कहा—सुना गया। सुना गया कि भीम ने यहीं पर नर्मदा को रोकने की कोशिश की, बड़ी—बड़ी चटटानें उसकी गवाह बनीं। कहा गया कि हथनापुर वास्तव में हस्तिनापुर था। यहां पर कुंती का कुंड भी पाया गया और रथ के पहियों के निशान भी। लिखते—लिखते यह भी याद आ रहा है कि एक बार एक बाबा ने पत्थरों के बीच मुझे विशालयकाय मानव के पंजों के निशान भी दिखाए। उसके फोटो भी खोजूं तो शायद कहीं​ मिल ही जाएंगे। बहरहाल यह स्थान अब भी एक शांतिप्रिय जगह है जहां जाकर अपार आनंद मिलता है। मॉल, शहर, ट्रैफिक, इंटरनेट, फेसबुक जितने आधुनिक दुनिया के शब्द हैं वह उससे उतना ही विपरीत पाता हूं, आनंद, उत्सव, प्रकृति, नदी, हवा, जल, शांति। 

PIC From Pallav Azad FB wall
खैर, मैं बाढ़ पर था। 1999 में सितम्बर का महीना था। हम अपने कार्यक्रम को लगभग संपूर्णता की ओर ले जा रहे थे कि उसकी अगली सुबह तक हालात बिगड़ने वाले थे। हममें से कई लोग सुबह—सुबह निकल चुके थे। सुबह तक वह जगह आईलैंड बनने में शेष थी और कुछ रास्ते शेष थे। हम चूंकि थ​क चुके थे सो उस दिन वहीं विराम लेने का निर्णय लिया। हम बीस—बाइस लोग ही बचे थे। पूरा दिन कुछ अलसाये से काम में, कुछ नींद में और कुछ बातचीत में जाता रहा। मोबाइल उस समय थे नहीं और टेलीफोन भी उतनी पूरी जगह में केवल मंदिर में था, जिसका कोई भरोसा नहीं था। हमें अंदाजा नहीं था कि हम जिन पलों को अपनी आंखों से देख रहे हैं वह बाहर की दुनिया के लिए कितने खतरनाक बने हुए हैं। शाम को मंदिर में चलने वाले टीवी से भोपाल दूरदर्शन ने हमें बताया कि हम भयंकर बाढ़ का सामना कर रहे हैं। सचमुच। होशंगाबाद शहर में पानी घुस चुका था। और हमें वहां के बुजुर्ग अपने पुराने अनुभव बता रहे थे। उनके पास कई मापक थे, और सन भी याद था। उनकी नजर में 73 की बाढ़ सबसे खतरनाक बाढ़ थी। 

उस समय तक बहुत ज्यादा समझ तो नहीं थी लेकिन थोड़ी—बहुत जो पढ़ालिखी थी उससे यह बहुत अच्छे से समझ आता था कि नर्मदा में बहुत कुछ बदल गया है। 73 की तुलना में 99 आते—आते नदी पर कई बांध बनकर तैयार हो गए थे। उनमें से तीन बरगी, बारना और तवा तो ठीक हमारे उपर थे। मैं सोच रहा था कि इतनी ज्यादा बारिश हुई नहीं तब भी यह पानी लगातार आखिर बड़ा क्यों। उसका जवाब भी टीवी ने ही दिया। तीनों बांधों से एकसाथ पानी छोड़ दिया गया था। सितम्बर के महीने में पूरे चार दिन निचले क्षेत्र को इसलिए सजा मिल रही थी। और यह सिलसिला अब भी जारी है। 

PIC From FB wall of Kamlesh Deewan Sir. 
15 साल बाद आज भी मेरे प्यारे शहर होशंगाबाद में गलियों तक पानी घुस गया है। कई अपने इस संघर्ष से जूझ रहे हैं। तकनीक का ही कमाल है कि कई दोस्तों की फेसबुक वॉल पर इसके अपडेट हैं चित्र हैं वीडियो हैं। पर एक चीज तो वही कॉमन है। बांधों से पानी छोड़ना। विकास के आधुनिक तीर्थ बर्बादी बरपा रहे हैं। मुखिया हवाई सर्वे के बाद आंसू बहा रहे हैं लेकिन बांध और विकास की बहस शायद कोई छेड़ना ही नहीं चाहता जिसपर दुनिया भर में कई सवाल हैं। 

प्रकृति से यही प्रार्थना है कि वह अपना कहर कम करे। आमीन।  

क्रमश:


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5 टिप्पणियाँ

Barun Sakhajee Shrivastav ने कहा…
shreshth.....manazar vo jalim aisa tha ki hum ahfte rahe or vo thakate rahe....bahut khoob
विकास प्राकृति के साथ चल के होना चाहिए न की उसके विरुद्ध जा के ...
Asha Joglekar ने कहा…
विकास के आधुनिक तीर्थ बर्बादी बरपा रहे हैं। मुखिया हवाई सर्वे के बाद आंसू बहा रहे हैं लेकिन बांध और विकास की बहस शायद कोई छेड़ना ही नहीं चाहता ।
Shekhar Suman ने कहा…
हमने भी झेली है बाढ़ की त्रासदी... अछि पोस्ट....

वैसे आपके ब्लॉग पर फ़ालोवर का ऑप्शन क्यूँ नहीं दिखा....