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चक्रव्यूह को देखते हुए

चक्रव्यूह को देखना, कई जुड़ावों के सामीप्य का अनुभव था। फिल्म पचमढ़ी, मढ़ई मेरे अपने भोपाल, नर्मदा में शूट हुई थी। हम साडा के जिस होटल में बीती मार्च में अपना अड्डा जमाए थे, उसी जगह अगले दो महीने तक चक्रव्यूह की व्यूह रचना होती रही। जिस जगह में यह फिल्म देख रहा था वहां फिल्म का मूल मुद्दा समाज का सबसे ज्वलंत सवाल है। बारह साल पहले मध्यप्रदेश से अलग होकर पावर स्टेट बन रहे छत्तीसगढ़ में विकास की चकाचौंध के बीच कुछ और भी पकता है, जिसे पूरा देश एक कलंक की तरह देखता है। हां, रायपुर शहर ने विकास की गति को जिस तेजी से आत्मसात किया, खबरें बताती हैं वह गति शहर से गांव तक जाते—जाते कैसे मंद रफतार हो जाती है। यह प्रोपेगंडा है या अधूरा सच, सभी के अपने—अपने मायने हैं।


फिल्म से जुड़ाव ही था कि खुद को मंगलवार और बुधवार वाले सस्ते शो तक रोक नहीं सका। क्या करो, ​िफल्मों के नाम पर घिसटती कहानियां और अभिनय के नाम पर कपडे उतारू कार्यक्रमों के लिए रकम खर्च करने का साहस अपने बस में नहीं।
पर विडंबना यह भी है कि सार्थक सिनेमा केवल सार्थक सिनेमा की पसंद वाले दर्शकों तक सिमटता दिखाई देता है, वह भी पिछले सालों में कई अर्थों में दम तोड़नी वाली स्थिति में दिखाई देता है और मुख्यधारा का सिनेमा केवल समाज के मुख्यधारा के पेट भरे लोगों तक की जरूरतों को हर तरह से पूरा करने की जुगाड़ में होता है। यह दो विभाजन हैं, हर समाज की तरह।

चक्रव्यूह की तारीफ इसी बिंदु पर पहले करना सबसे मुफीद होगा। यह एक मुख्यधारा की फिल्म में सार्थक सिनेमा का इतना महीन मिश्रण है, जो आसानी से समझ नहीं आता। फिल्म की कसावट एक मिनट भी बोर नहीं होने देती और वह इतनी आसानी से नक्सलवाद ​जैसे पेंचीदे विषयों को उठाती भी है। यह विषय का एकपक्षीय विस्तार भी नहीं हैं, हर दृष्टिकोण के साथ, हर पक्ष को सामने रखने की ईमानदार कोशिश भी है। इसलिए यह प्रकाश झा कि राजनीति, आरक्षण सरीखी फिल्मों के बाद की सबसे नायाब फिल्म है। इसकी सफलता की सफलता—असफलता को लेकर समीक्षक चाहे जो कहें, लेकिन इसे मल्टीप्लेक्स के पेट भरे दर्शकों की इंटरवल में ही एक नंबर फिल्म की उपाधियों से समझा जा सकता है। न केवल एक नंबर फिल्म बल्कि शो खत्म होने के बाद वह इसके सेकंड पार्ट की भी कल्पना में लगे दिखाई देते हैं। शायद इसलिए भी क्योंकि हमारे नायकों के चरित्र में कमाल कर देने की अदुभुत ताकत के साथ जो क्लाइमेक्स को देखने—समझने और उसी में संतुष्टि की जो चाहत रही है, यहां आकर वह असमंजस में पड़ जाता है। पर क्या वह इस फिल्म के नायक को पहचान पाता है।
 पुलिस का एक आला अधिकारी या लाल सलाम का नारा लगाने वाला दुर्घटनावश माओवादी बना क्रांतिकारी। कमोबेश यह हमारे समाज की सबसे बड़ी विडंबना है। जिन नायकों पर हम भरोसा करके समाज की बागड़ोर सौंप रहे हैं, वह घोटालों भ्रष्टाचार में गले—गले डूबे हैं और निजी स्वार्थों के चलते सचमुच आदिवासियों को उनकी जमीन से उजाड़ रहे हैं, वहीं अपने हकों की लड़ाई के लिए आवाज बुलंद करने वाले आंदोलन में भी नागा सरीखे क्रांतिकारी हैं। दहशत दोनों तरफ से है। इस दहशत से आजादी कहां।
बहरहाल। एक सार्थक फिल्म के लिए प्रकाश झा एंड पार्टी को बधाई तो बनती है।

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