· राकेश कुमार मालवीय
अभिनेत्री विदया
बालन देश में स्वच्छता के लिए चल रहे अभियान में अब ब्रांड एम्बेसडर होंगी। अच्छी
बात है। क्रीम, पाउडर, शैम्पू की दुनिया से निकलकर एक फिल्मी बाला साफ’ सफाई का
पाठ पढाएगी। पर क्या खुले में शौच की प्रक्रिया को पूर्ण कर रहा आधा भारत किसी
मजबूरी में ऐसा कर रहा है या वह उसका शौक है। जाहिर है खुले में निपटान किसी भी
सभ्य प्राणी का शौक नहीं हो सकता । हां, ग्रामीण समाज के लिए यह व्याख्या कुछ
अलग की जा सकती है, लेकिन बदलती तस्वीरों में अब गांव पर भी यह बात लागू नहीं की
जा सकती है।
खुले में शौच
सामाजिक जीवन में एक नैसर्गिक प्रक्रिया का अंग होता था कभी। पर अब नहीं। इसलिए कि
शहर से लेकर ग्रामीण समाज तक भौगोलिक स्थितियां एकदम भिन्न्ा हो गयी हैं। अब वे
झाडियां , खेत, तालाब, पेड्, नदी- नाले उस रूप
में नहीं बचे हैं जहां कि शौच क्रिया को निर्बाध रूप से संपन्न किया जा सके। यह
विषय बहुत ही उटपटांग सा भी है लिखने में, लेकिन वाहनों की
आवाजाही के बीच सड्क किनारे महिलाओं को अचानक बीच से खडे हो जाने और अपने अंगों को
छुपा लेने की कोशिश में शौच करना एक बहुत बडी चुनौती के रूप में सामने आता है।
सरकार ने इस कठिनाई को समझा भी। गांव से लेकर कस्बों तक में समग्र स्वच्छता अभियान
चलाया गया। हजारों पक्के टॉयलेट इस अभियान के अंतर्गत बनाने का दावा किया जा रहा
है। कई गांवों ने निर्मल पंचायत होने के खिताब भी हासिल कर लिए। बजट को देखें तो अकेले
समग्र स्वच्छता अभियान पर सरकार ने पूरे देश में 1999 से अब तक 8181136,01 लाख
रूपए खर्च किए हैं। मध्यप्रदेश में इसी अवधि में अब तक 70744 लाख रूपए खर्च किए
जा चुके हैं। यह रकम कम नहीं होती। सरकार की ही वेबसाइट कहती है कि इसमें केवल 14 प्रतिशत बजट का खर्च होना बाकी है। इसी बीच
जनगणना 2011 के आंकडे सामने आकर खडे हो गए हैं। यह आंकडे
केवल चौंकाते ही नहीं चिंतित भी करते हैं। इसके मध्यप्रदेश में सत्तर प्रतिशत
लोग अब भी खुले में शौच कर रहे हैं और पूरे भारत में आधी आबादी।
घरों और घरेलू
सुविधाओं पर 2011 की जनगणना के आँकड़ों के अनुसार भारत में 49.8 फीसदी लोगों के पास शौचालय नहीं है, लेकिन 63.2 फीसदी लोगों के
पास टेलीफोन कनेक्शन हैं, जिसमें से 53 फीसदी लोगों के पास मोबाइल फोन कनेक्शन है. झारखंड में सबसे ज्यादा 77 % लोगों को शौचालय
नसीब नहीं है. दूसरा स्थान ओडिशा और तीसरा स्थान बिहार का है। सहस्राब्दि विकास लक्ष्य
(एमडीजी) पर संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर खुले में शौच
करने वाले लोगों की कुल संख्या का 60 फीसदी हिस्सा हिंदुस्तान में
मौजूद है। सवाल वही है।
देश में नीतियों और नियंताओं की प्राथमिकताओं का है। हम अक्सर कहते हैं वहीं आरोप
प्रत्यारोप करते हैं जैसा कि ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश कहते हैं कि
भारतीय महिलाएं शौचालय से ज्यादा मोबाइल फोन को तरजीह देती है। अब सवाल यह है कि
आखिर कैसे दूर दराज के गांवों तक मोबाइल कंपनियों के टैरिफ प्लान पहुंच जाते हैं, दीवारों पर शीतल
पेय के विज्ञापन रंगे दिखाई देते हैं और आखिर क्यों नहीं स्वच्छता का संदेश
पहुंच पाता। आखिर क्यों नहीं नरेगा की मजदूरी की दरें लोगों को पता चल पातीं। असल
में मुददा केवल प्राथमिकताओं भर का है। हमारे सरकारी सिस्टम ने कॉरपोरेट से लड्ने
की ताकत ही अपने अंदर पैदा नहीं की, यही कारण है कि लोग सरकारी सिस्टम के समर्थक
होते हुए भी जहां मौका मिलता है कॉरपोरेट से गलबहिया कर लेते हैं। और जबकि ग्रामीण
विकास मंत्री शौचालयों की संख्या बढ्ने की नाकामी का ठीकरा महिलाओं और मोबाइल
कंपनियों पर फोड्ते हैं तब वह इस ओर क्यों नहीं देखते कि उन्होंने स्वच्छता के
मुददे पर क्या उसी तरीके से लोगों को जगाने के प्रयास किए। केवल एक फिल्म
अदाकारा को ब्रोड एम्बेसडर नियुक्त कर दिए जाने से जिम्मेदारी पूरी नहीं होगी।
असल में उस सिस्टम को भी दुरूस्त करना होगा।
शौच के साथ
महिलाओं की सुरक्षा का पक्ष एक महत्वपूर्ण पक्ष भी जुडा है।महिलाओं के साथ्ा
छेड्छाड् और बलात्कार की घटनाओं में यह समय भी अधिकतर शामिल होता है जब वे शौच के
लिए घर से बाहर निकलती हैं। अमूमन शाम के अंधेरे में यह एक तयशुदा वक्त होता है
जबकि महिलाओं को इस प्रक्रिया के लिए घर से निकलकर बाहर आना ही है। इस बात को कोई
आधिकारिक आंकड्ा भी नहीं है कि देश में ऐसा कितनी महिलाओं के साथ कितनी बार हुआ, लेकिन अखबार के
पन्नों पर यह खबर जरूर हर दूसरे-तीसरे दिन जरूर शामिल होती है। जाहिर तौर पर यह
सुरक्षा से जुडा एक गंभीर विषय है और किशोरी लड्कियां इस संघर्ष से कैसे निपटती
हैं वह खुद ही जान सकती हैं। खासकर शहरी इलाकों में जहां कि रहने के लिए ही
पर्याप्त जगह नहीं हो वहां शौचालय की बात कैसे करें। नतीजा एक छोटी सी जगह
में सैकडों लोगों का मल बीमारियों और संक्रमण को न्यौता देता नजर आता है।
यूनिसेफ की एक रिपोर्ट कहती है कि हिंदुस्तान
के कई राज्यों को अपनी संपूर्ण आबादी के लिए शौचालय की सुविधा विकसित करने में 90 साल से अधिक का समय लग सकता
है। हालांकि मिलेनियम डेवलपमेंट के तहत उम्मीद की गई है कि इस लक्ष्य को (सभी के लिए
शौचालय) वर्ष 2015 तक पूरा कर लिया जाएगा। मध्यप्रदेश और ओडीशा
जैसे राज्यों को इसे हासिल करने में 90 साल का समय लगेगा जबकि बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड और राजस्थान को अपनी
संपूर्ण आबादी के लिए शौचालय की सुविधा मुहैया कराने में करीब 62 सालों का समय लगेगा। यूनिसेफ
द्वारा जारी किए गए आंकड़ों के मुताबिक केवल 17 राज्य पूरी आबादी के लिए
शौचालय की सुविधा मुहैया कराने में कामयाब रहे हैं।
सरकारी योजनाओं के साथ एक समस्या भी है कि शौचालय बनाने की
जिम्मेदारी ग्रामीण विकास मंत्रालय की है जबकि गरीबों को ध्यान में रखकर चलाई जा
रही इंदिरा आवास योजना (वर्ष 1985 से शुरू) दोनों ही अलग अलग
तौर पर संचालित होते हैं। इसलिए इस बात की कोई गारंटी नहीं दी जा सकती है कि जिस
व्यक्ति को इंदिरा आवास के तहत मकान मिला हो उस घर में शौचालय हो ही। योजनाओं में
सही समन्वय नहीं होने से वर्ष 1985 से लाखों मकान बिना किसी
शौचालय के बनाए गए। मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक
वर्ष 2011-12 में इंदिरा आवास योजना के तहत करीब 30 लाख मकानों का निर्माण किया
गया, लेकिन उनमें से महज 3 लाख मकानों में ही शौचालय का निर्माण हो
पाया।
भारत के अधिकांश कस्बों एवं नगरों में स्वच्छता की समुचित सुविधाएं न होने के
कारण लोग स्वास्थ्य के लिए हानिकारक परिस्थितियों में निवास करते हैं। जिसके
फलस्वरूप झोपड़पटिटयों आदि में अक्सर महामारी फैलती है। आंकड़ों के हिसाब से हर
साल दुनिया भर में तकरीबन 2 मिलियन बच्चे डायरिया, 6 लाख सेनीटेशन से जुड़े तमाम रोगों और
बीमारियों के कारण एवं 5.5 मिलियन बच्चे हैजा के कारण
मरते हैं। इन बच्चों में एक बड़ा आंकड़ा भारतीय बच्चों का होता है। युनिसेफ की
रिपोर्ट के अनुसार भारत में प्रतिदिन पांच साल से कम आयु के एक हजार बच्चे डायरिया, हैपाटाइटिस और सैनिटेशन से जुड़ी दूसरी
कर्इ बीमारियों की वजह से काल के मुंह में समा जाते हैं। इस स्थिति को समझने हुए
हमें अपनी नीतियां तय करनी चाहिए। अब यह बात भी साफ हो चली है कि बच्चों और
शिशुओं की मौत में केवल कुपोषण ही नहीं, साफ सफाई का अभाव भी एक महत्वपूर्ण कारक
होता है। अफसोस है कि साफ सफाई के मामले में ध्यान नहीं दिया जाता है और कई बारगी
साफ सफाई का अभाव उस आसपास के माहौल पर भी निर्भर हो जाती है।
केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने साल 2022 तक खुले में शौच करने की प्रवृति को जड़ से खत्म करने के लिए एक सामाजिक
आंदोलन का आह्वान किया जिसमें महिलाओं की बड़ी भागीदारी हो। रमेश ने कहा कि भारत
के ढाई लाख गांवों में 25,000 ऐसे हैं जहां खुले
में शौच करने की प्रवृति पर पूरी तरह रोक लगाई जा चुकी है। ऐसे 25,000 गांवों में से 9,000 सिर्फ महाराष्ट्र में हैं। जाहिर है भारत के शेष राज्यों में स्थिति खतरनाक है।
इंडिया की इस डर्टी पिक्चर की सफाई करने के लिए हमें तेजी से कदम बढ्ाने चाहिए।
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