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भोपाल से उठीं कुपोषण मुक्त भारत बनाने की आवाजें


बच्चों के भोजन के अधिकार का दूसरा राष्ट्रीय अधिवेशन संपन्न

राकेष कुमार मालवीय

सबसे ज्यादा षिषु मृत्यु दर, सबसे ज्यादा कुपोषण, उच्च मातृ मृत्यु दर के लिए बदनाम मध्यप्रदेष में देष भर के एक हजार लोगों का जमावड़ा। बहस के केन्द्र में बच्चे। तीन दिनों का चिंतन। सामाजिक कार्यकर्ता, विषय विशेषज्ञ, राजनीतिज्ञ, प्रशासनिक अधिकारी, चिंतक और पत्रकार। सवाल एक ही कैसे बच्चों की स्थिति सुधरे। लगभग 25 मांगें। और अंतत: बाल अधिकारों की लड़ाई को और तेज करने का जज्बा। झीलों के शहर भोपाल में भोजन के अधिकार अभियान के बैनर तले आयोजित तीन दिवसीय अधिवेशन बच्चों के स्वास्थ्य और पोषण पर केन्द्रित रहा। इससे पहले हैदराबाद में 2006 में ऐसा ही आयोजन किया गया था। इस आयोजन में बच्चों को पोषण सुविधा मुहैया कराने वाली मध्याहन भोजन योजना, आंगनवाडी आदि की समस्या और समाधान पर तो बात हुई ही प्रशासनिक, राजनीतिक और सामाजिक जवाबदेही को भी कठघरे में खड़ा किया गया। 

बच्चों के पोषण के संदर्भ में सुशासन और जवाबदेही पर केन्द्रित इस अधिवेशन में भागीदारी करते हुए राष्टीय बाल अधिकार आयोग की अध्यक्ष शांता सिन्हा ने कहा कि किसी भी बच्चे की मौत पर प्रशासन को जवाबदेही तय करनी चाहिए। उन्होंने बताया कि एक बच्चे की मौत पर महिला एवं बाल विकास विभाग और स्वास्थ्य विभाग आपस में एक दूसरे पर जिम्मेदारी थोप देते हैं, लेकिन इससे हल नहीं होने वाली है। मध्यप्रदेश बाल अधिकार आयोग के सदस्य विभांशु जोशी ने भी स्वीकार को उनके भी जमीनी अनुभव ऐसे ही हैं। श्रीमती सिन्हा ने कहा कि सिर्फ नारे लगाने के लिए ही लोकतंत्र नहीं है, लोकतंत्र वहा हैे जहां सामाजिक बराबरी के अधिकार होते है। उन्होंने कहा कि कभी-कभी गरीबी भी बच्चों की मौत का एक वजह बनती है, यदि सरकार सही तरह से बच्चों की हालत सुधारने के लिए पूरा मन लगाकर मुकाबला करे तो हर एक बच्चे को सुरक्षित रखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि हमें यह तय करना चाहिए कि अगले दस सालों में बच्चों की स्थिति ऐसी हो कि इस तरह के अधिवेशन की जरूरत ही न हो हमें यह तय करना चाहिए। 

हमारी व्यवस्था कभी यह नहीं मानती कि हममें कमी है। हमारे पूरे तंत्र में इस जवाबदेही को किसी पर भी नहीं डाला गया है। लेकिन नौकरशाह अपनी जवाबदेही नहीं निभा सकते तो उन्हें अपने पद पर रहने का कोई हक नहीं है। यह भी दिखाई देता है कि समाज खुद के लिए उतना जागरूक नहीं है जितना कि उसे होना चाहिए। देष मेें बच्चे मर रहे हैं और हम एक चेतनाषून्य समाज की तरह आगे बढ़ रहे हैं। दूसरी ओर हर साल लाखों-करोड़ों रूपए का व्यापार करने वाले काॅरपोरेट जगत की भी कोई जवाबदेही नहीं हैं। 

वरिष्ठ पत्रकार चिन्मय मिश्र ने कहा कि प्रधानमंत्री को भी नांदी फाउंडेषन की रिपोर्ट के बाद लगता है कि देष में कुपोषण राष्ट्रीय शर्म का विषय है, जबकि सरकार की ही कई रिपोर्ट इससे पहले कुपोषण की भयावह स्थिति को पेष करती रही हैं। कुपोषण, स्वास्थ्य, शिक्षा जैसे मसलों पर वंचित तबके को अपने हक के लिए लंबी लड़ाई करनी पड़ रही है दूसरी तरफ प्रशासन अपनी जिम्मेदारियों को अनदेखा करते हुए यह कहता है कि अगर कोई अधिकारी अपनी जवाबदेही नहीं निभा पा रहा है तो हम कुछ नहीं कर सकते समाज और लोगों को ही स्वनियमन का इस्तेमाल करना पड़ेगा। प्रमुख सचिव बीआर नायडू ने कहा कि सरकारी नौकरी में नतीजों का कोई निर्धारण नहीं होता यहां केवल प्रक्रिया की ही माॅनीटरिंग की जाती है। कितना कुपोषण घटा इस पर कोई सवाल नहीं पूछा जाता, इसलिए जवाबदेही तय करने की बड़ी आवष्यकता है लेकिन उसकी राह में रोडें बहुत हैं। शिशु रोग विशेषज्ञ डाॅ वंदना प्रसाद ने कहा कि यदि व्यक्ति को अपनी जिम्मेदारी खुद ही तय करनी है तो इस यह समझना होगा कि पूरे तंत्र की क्या भूमिका है। उन्होंने कहा कि निचले स्तर की अपेक्षा उच्च स्तर के तंत्र में ज्यादा परेषानियां हैं। सुप्रीम कोर्ट कमिष्नर के मुख्य सलाहकार बिराज पटनायक ने कहा कि लोगों का सरकार में जितना भरोसा है शायद सरकार का अपने आप में उतना भरोसा नहीं है। उन्होंने कहा कि जो निजी क्षेत्र हर साल लाखों-करोड़ों रूपयों का व्यापार कर रहा है, इसमें सरकारी पैसा भी शामिल है लेकिन वहां सूचना का अधिकार तक लागू नहीं है। 

खा़द्य सुरक्षा कानून भी होगा नाकामयाब

बहुप्रतीक्षित खाद्य सुरक्षा कानून को आनन-फानन में इसलिए लाया गया है क्योंकि पांच राज्यों में चुनाव हैं। इस नए कानून में राज्यों में अनाज के बंटवारे के विश्लेषण से पता चलता है कि किसी भी राज्य में इस कानून के बाद भी उतना ही गेहूं आवंटित किया जाएगा जितना कि इससे पहले हो रहा था। फिर इस कानून का मतलब क्या। यह आरोप लगाए पीयूसीएल की राष्टीय उपाध्यक्ष और भोजन के अधिकार अभियान की कन्वीनर कविता श्रीवास्तव ने। उन्होंने कहा कि किसी भी दल की सरकार ने अब तक कुपोषण और भूख से निपटने की ईमानदार कोशिश नहीं की है, न अपना राजधर्म  का पालन किया है। उन्होंने कहा कि सरकारों ने समुदायों के पास से जल-जंगल और जमीन के हक छीन लिए हैं इसलिए अब लोग बिना अकाल के भी भूख से मर रहे हैं। उन्होंने प्रशासनिका और राजनीतिज्ञों की मौजूदगी में कहा कि मध्यप्रदेश को देश का पहला ऐसा माॅडल राज्य बनना चाहिए जहां कि बच्चों के पोषण आहार और मिड डे मील को महंगाई से जोड़ा जाए ताकि उसकी गुणवत्ता बेहतर बन सके। 

अधिवेशन की प्रमुख मांगें

  • समेकित बाल विकास योजना का गुणवत्ता और न्यायोचित बराबरी के साथ सर्वव्यापीकरण  हो, 
  • कार्यकर्ताओं के अधिकार सुनिश्चित हों, बेहतर समन्वय हो, स्थानीय उत्पादन को महत्व मिले
  • पच्चीस प्रतिशत आंगनवाडी झूलाघर के रूप में भी काम करें 
  • राष्टीय खाद्य सुरक्षा विधेयक का दायरा व्यापक हो, खाद्य पदार्थों में विविधता हो
  • पीडीएस का सर्वव्यापीकरण हो, एपीएल-बीपीएल का दायरा न हो, स्थानीय उत्पादन से जुडे
  • सभी बच्चों को मध्याहन भोजन मिले, निजीकरण या ठेका आधारित व्यवस्था न हो
  • मातृत्व हकों का दायरा व्यापक हो
  • सामुदायिक निगरानी की व्यवस्था सुदृढ हो। 


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