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गणतंत्र में बच्चों के अधूरे अधिकार



राकेश  कुमार मालवीय

देश  में गणतंत्र जरूर है, पर बच्चे इस गणतंत्र में कहां हैं। देश में महिलाओं की आवाज है, दलितों की आवाज है, अल्पसंख्यकों की आवाज है, पर बच्चों की आवाज कहां हैं। बच्चे मुद्दा नहीं हैं। इसलिए कि बच्चे वोट नहीं देते। इसलिए कि बच्चे संसद और विधानसभाओं में मौजूद नहीं होते। संभवतः यही कारण है कि बच्चों के अधिकार महज कागजों तक ही सीमित दिखाई देते हैं। बच्चों में हमारे लोकतंत्रों के स्तंभों की कोई रूचि नजर नहीं आती है। वह एक गणतंत्र में जीवित तो दिखाई देते हैं, लेकिन उनका अस्तित्व बड़ों के रहमोकरम पर टिका नजर आता है। 
विकास की समूची अवधारणा समाज की बेहतरी पर केंद्रित होनी चाहिए। इसे देश   के आर्थिक विकास से जोड़ने का मकसद जीवन स्तर में सुधार, व्यक्ति के सम्मान को बढ़ाने और हमारे चरित्र को और जवाबदेह बनाने से है। लेकिन यह विकास तो भूख और असमानता पैदा कर रहा है। देष की 90 फीसदी आबादी के सामने भरपेट भोजन का संकट है और 10 फीसदी लोग पूँजी-संसाधनों पर कब्जा करने की भूख से ग्रसित हैं। कुछ लोगों ने यह तय कर लिया है कि मिट्टी से अनाज नहीं, उसके खनिज निकाल लिए जाने चाहिए। उन्हें आर्थिक लाभ कमाना है, इसलिए वे हर उस संसाधन और वस्तु पर मालिकाना हक हासिल कर लेना चाहते हैं, जिसके बिना जीवन संभव नहीं है। यह गणतंत्र भी उन्हीं दस फीसदी लोगों के पक्ष में खड़ा दिखाई देता है। संभवत: इसलिए कि आजादी के इन छह दशकों  में जिस खाई को पाटने की कोशिश होनी चाहिए थी, वह तो और बढ़ती जा रही है। 

आधुनिक विकास की बहस में बार-बार यह कहा जाता है कि हमें सबसे पहले आर्थिक वृद्धि यानि ग्रोथ चाहिए। ग्रोथ होगी तो सब कुछ हासिल कर लिया जाएगा। पर अब यह स्थापित हो चुका है कि वृद्धि तो उस मुखौटे का नाम है, जिसके जरिये नव-उपनिवेशवाद की प्रक्रिया को तेज गति से आगे बढ़ाया गया। हम बार-बार यह भी कहते हैं कि यदि खेत सूने होंगे और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के दबाव में जीएम बीजों, रासायनिक खाद और कीटनाषकों के रूप में जहरीली फसल उगाई जाएगी तो केवल किसान आत्महत्या नहीं करेगा, बल्कि समाज भी मरता जाएगा। जैसे-जैसे जंगल अपनी हरियाली खोएगा, उसी अनुपात में सामाजिक हिंसा भी बढ़ेगी। हमारी आर्थिक प्रगति ने नदी के पानी को सुखा दिया है। अब वहां बीमारी बहती है। हम जमीन की उत्पादकता से जुड़ी तमाम संभावनाओं को अपने विलास के लिए आज ही पूरा निचोड़ लेना चाहते हैं। इन सबके बावजूद योजना आयोग का कोई दस्तावेज यह नहीं बताता कि 50 वर्ष बाद लोगों के लिए क्या बचा रहने वाला है ! इस वक्तव्य का भी अब कोई विश्लेषण नहीं होता कि वृद्धि की इस आपा-धापी में हमारी राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक स्वतंत्रता कहीं कैद की जा चुकी है। 

जिस दौर में भारत ने वृद्धि की ऊँची दर हासिल की, उसी दौर में बचपन की भुखमरी यानि कुपोषण के घटने की दर सबसे कम रही। हर तिमाही में जारी होने वाले आर्थिक विकास के आंकड़ों के साथ यह कभी नहीं जोड़ा जाता कि कितने लोग और कितने बच्चे भूखे जीवन जी रहे हैं। यह आंकडे़ अलग से और चुपचाप जारी किए जाते हैं। कोई मंत्री या योजना आयोग का प्रतिनिधि प्रेस कांफ्रेंस करके देश को यह नहीं बताता कि हमारे देश में हर साल 15 लाख बच्चे अपना पांचवा जन्मदिन नहीं मना पाते हैं और दुनिया छोड़ कर चले जाते हैं। बच्चों के लिए दुनिया का सबसे बड़ा पोषण आहार कार्यक्रम भारत में 1975 से चल रहा है, जिसका मकसद था कुपोषण और असुरक्षा को खत्म करके बच्चों को विकास और सहभागिता का सकारात्मक माहौल देना। हम इस कार्यक्रम के जरिये बचपन को भुखमरी से मुक्ति   और महिलाओं के पोषण और मातृत्व के हकों को सुनिश्चित करना चाहते थे। पर 36 वर्ष बाद भी संघर्ष इसी बात पर जारी है कि आंगनवाड़ी कैसे खुलें और इसके जरिए सुनिष्चित की गईं सेवाओं में बच्चों को उनका हक कैसे मिले। 

वर्ष 2001 में सर्वोच्च न्यायालय में भूख से मुक्ति के सन्दर्भ में राज्य की भूमिका और गैर-जवाबदेहिता के बारे में एक जनहित याचिका दायर हुई थी। इस याचिका में यह मांग की गयी थी कि सरकार द्वारा संचालित खाद्य, रोजगार और सामाजिक सुरक्षा से सम्बंधित योजनाओं का सही क्रियान्वयन सुनिश्चित कराया जाए। इन योजनाओं में मातृत्व सुरक्षा योजना, आंगनवाड़ी (एकीकृत बाल विकास सेवाएँ) और मध्याह्न भोजन योजना भी शामिल रही हैं। बात योजनाओं से शुरू हुई थी, पर अब बहस यह है कि बचपन की भुखमरी केवल बचपन तक सीमित थोड़े ही है। यह तो परिणाम है असमानता और नव-उपनिवेशवादी नीतियों का। बच्चे अपने आप भूखे नहीं रह जाते हैं। उन्हें भूखा रखा जाता है, ताकि जाति व्यवस्था बनी रहे, ताकि कुछ तबके शिक्षित न हो पायें। कुपोषण बच्चों के सीखने, जोड़ने-घटाने और विरोध करने की क्षमता भी छीन सकता है। हमने यह भी देखा कि बड़े-बड़े संघर्षों  और मुद्दों की बड़ी बहसों से बच्चे बाहर ही रखे जाते हैं, जबकि वे तो इसके केंद्र में होने चाहिए। बच्चे एक भेद-भाव के शिकार होते हैं। बच्चों के साथ यह भेद-भाव कहीं जानबूझकर होता है तो कहीं अनजाने में भी। भोजन और पोषण के अधिकार के मामले में हम सभी एक ऐसे दौर में पंहुचे, जब हमने देखा की बचपन की खाद्य सुरक्षा के मायने बिलकुल भिन्न हैं। जीवन के शुरुआती छह माह में उनकी खाद्य सुरक्षा का मतलब है माँ का दूध। फिर अगले डेढ़ साल तक उन्हें अलग तरह का खाना, अलग तरह से खिलाने की जरूरत होती है। यदि दो साल की उम्र तक उन्हें यह न मिले तो उनका 80 प्रतिशत शारीरिक और मानसिक विकास रुक जाता है या बाधित होता जाता है। भोजन के साथ ही जुड़ी रहती हैं, स्वास्थ्य और देखभाल की जरूरतें। इन्हीं सब बातों ने हमें रोजी-रोटी अधिकार अभियान के तहत ही बच्चों के भोजन के अधिकार पर एक अलग पहल करने के लिए प्रेरित किया, ताकि बच्चे नव-उपनिवेषवादी नीतियों के कुचक्र में कहीं खो ना जाएँ। तब जन स्वास्थ्य अभियान और रोजी-रोटी अधिकार अभियान के द्वारा एक संयुक्त मंच बना, यानी छह वर्ष तक के बच्चों के लिए कार्यकारी समूह। इस समूह ने ग्यारहवीं पंचवर्षीय योजना के लिए भी अपने विस्तृत सुझाव दिए थे। हम लगातार इस मसले पर बहस को दिशा देने की कोशिश कर रहे हैं। अभी यह समूह बारहवीं पंचवर्षीय योजना में भी इस मसले पर दखल देने की कोशिश कर रहा है। 

बाजारीकरण और पूँजी के दखल की चुनौती का सामना जैसे दूसरे क्षेत्र कर रहे हैं, उसी तरह, या कहें कि उससे भी ज्यादा चुनौती बच्चों के भोजन के अधिकार के मामले में सामने खड़ी दिखाई दे रही है। कम्पनियाँ आंगनवाड़ी के पोषण आहार में रासायनिक पोषक तत्व डालने का ठेका लेना चाहती हैं। बहुत सी कम्पनियाँ इस कोशिश में हैं कि आंगनवाड़ी में गरम-पके हुए खाने के स्थान पर डिब्बाबंद आहार शुरू हो जाएं। इसी से स्वास्थ्य और देखभाल के लिए संस्थागत प्रयासों की पहल भी जुड़ी हुई है। पोषण के अभाव में भी बहुत से पक्षों को फायदे की भारी संभावनाएं दिखाई दे रही हैं।  देश में इस मसले पर कई कार्यक्रम चल रहे हैं। बावजूद इसके कुपोषण कायम है, नतीजतन जीवन कमजोर होता जा रहा है। योजनाओं के क्रियान्वयन में भ्रष्टाचार होता है। बच्चों के लिए नियत अधिकार उन तक नहीं पहुँच पाते। फिर भी कहीं पर किसी की जवाबदेहिता तय नहीं होती। वहां लापरवाही के लिए किसी को कोई सजा नहीं मिलती।  
बच्चों के लिए खाद्य सुरक्षा का क्या मतलब है ? हमें इस सवाल को दो अलग-अलग स्तरों पर विश्लेषित करने की जरूरत होगी- 1.  सरकार की भूमिका, नीतियां और कार्यक्रम और 2. समाज और संसाधनों का महत्त्व फिर से स्थापित करना। बच्चों की खाद्य सुरक्षा का मतलब है, उनकी उम्र की जरूरत के मुताबिक ऐसा भोजन मिलना, जो उनके शारीरिक और मानसिक विकास की प्रक्रिया को सही दिशा दे सके। यदि ऐसा नहीं हो तो बच्चों का शारीरिक-मानसिक विकास बाधित होता है, उनकी सीखने और समझने की क्षमता कम हो जाती है, वे स्कूल में शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाते। बच्चों को यदि सभी तरह के पोषक तत्व, विटामिन, प्रोटीन्स और मिनरल्स (खनिज पदार्थ) नहीं मिलते तो यह तय है कि वे कहीं न कहीं पूरी तरह से पनप नहीं पाएंगे। पोषण की कमी उन्हें विकलांग भी बना सकती है। देश में हर साल होने वाली 15 लाख बाल मृत्यु में कुपोषण एक बड़ा कारण होता है। 

यदि परिवार भूख के साथ जीने को मजबूर है, तो बच्चे भी उससे अछूते नहीं रहेंगे। इसके साथ ही अब यह साफ नजर आता है कि संसाधन होने के बाद भी बच्चों की खास जरूरतों को पहचाना नहीं जाता है। शायद हमारा समाज अभी भी बच्चों की भाषा को समझ नहीं पाता है। उसके ऊपर आधे-अधूरे भोजन को थोपे जाने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है। मतलब यह कि कुपोषण से मुक्ति का एक मतलब समुदाय के व्यवहार में भी बदलाव लाने से भी जुड़ा हुआ है। राज्य की नीतियां ऐसी हों जो बच्चे की जरूरत को पूरा कर सकें। बच्चे के जन्म सेे पहले की खाद्य सुरक्षा, गर्भवती महिला की खाद्य व पोषण सुरक्षा के साथ जुड़ी हुई है। यदि महिला को भुखमरी का सामना करना पड़ रहा है, उसके साथ भेदभाव हो रहा है तो इसका स्वाभाविक असर बच्चे पर भी पड़ेगा। केवल गर्भावस्था के दौरान एक कार्यक्रम चलाकर हम महिला के भोजन के अधिकार को सुनिश्चित नहीं कर सकते। हमें महिला अधिकारों के प्रति सामाजिक ढाँचे में रचे-बसे लैंगिक भेदभाव को मिटाने का काम करना होगा।  

हमें यह नही भूलना होगा कि परिवार और समुदायों की खाद्य सुरक्षा को सुनिश्चित किए बिना बच्चों को पूरी तरह से कुपोषण के मुक्त नहीं किया जा सकेगा। हमें एक स्तर पर यह जरूरी लगता है कि उनकी विशेष और खास जरूरतों को सही ढंग से पूरा करने के लिए योजनाबद्ध और नजरिया आधारित कार्यक्रम चलाने की जरूरत है। इनमे स्वास्थ्य निगरानी, पोषण शिक्षा, विकास की निगरानी और पोषण आहार जैसे हिस्से होते हैं। दूसरी और यह भी देखना होगा कि परिवार की खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए साधनों की सुरक्षा है भी या नहीं। .

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