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कृषि अवकाश: किसानों का ‘शुभ संदेश’


चिन्मय मिश्र, 
संपादक 
सर्वोदय प्रेस सर्विस  


पिछले दिनों जब हम अन्ना हजारे के नेतृत्व में नई दिल्ली में जनलोकपाल अधिनियम को लेकर हो रहे आंदोलन, अनशन और भारत सरकार से उनकी टकराहट के बाद सरकार से समझौते की प्रक्रिया में डूबे थे उसी दौरान दिल्ली से करीब 2 हजार किलोमीटर दूर आंध्रप्रदेश के पूर्वी और पश्चिमी गोदावरी जिले के किसान भारत के आंदोलनों के इतिहास में एक नई इबारत लिख रहे थे। लेकिन अधिकांश देश इस क्रांतिकारी व साहसिक कदम से अनभिज्ञ था। किसानों द्वारा अपनी फसल के ठीक दाम न मिलने से इस क्षेत्र के धान के किसानों ने अपने खेतों में इस खरीफ के मौसम में ‘कृषि अवकाश’ की घोषणा कर दी है। अर्थात वे विरोध स्वरूप अपने खेतों में बुआई नहीं करेंगे। इसे आजाद भारत की संभवतः सबसे महत्वपूर्ण घटनाओं में शुमार किया जा सकता है क्योंकि अब तक हम सब इस पशोपेश में थे कि अंततः किसान के पास विरोध प्रकट करने का कौन सा तरीका उपलब्ध है?

गौरतलब है इस बार इस इलाके में रबी की जबरदस्त फसल हुई है, इसके बावजूद किसान आंदोलन पर उतर आए हैं। इस विरोध की शुरुआत आंध्रप्रदेश के पश्चिमी गोदावरी जिले के एक छोटे से गांव ‘अचंता’ से हुई है। विस्तार में जाने से पहले इस गांव का इतिहास जानना भी रुचिकर होगा। ‘अचंता’ गांव हरित क्रांति के शुरुआती दौर यानि सन् 1967 की खरीफ फसल के दौरान पहली बार चर्चा में आया था। उस समय इस गांव के एक किसान एन. सुब्बराव ने आई आर-8 नामक धान की किस्म के एक किलो बीज से 40 बोरे (एक बोरा 75 किलो) अनाज पैदा कर इतिहास रच दिया था। अब अचंता एक बार पुनः सुर्खियों में है। यहां के 3500 किसानों ने अपने 4500 एकड़ के धान बुआई क्षेत्र में नहर द्वारा सिंचाई के माध्यम से गतवर्ष 6 लाख बोरे धान का उत्पादन किया और उसमें से वे अब तक केवल 60 हजार बोरे धान बेच पाए हैं वह भी अधिकतम समर्थन मूल्य 1030 रुपए प्रति क्विंटल से 150 से 200 रुपए से कम में।

यानि देश के इतिहास में पहली बार इतना गंभीर कदम उठा भी है तो ऐसे स्थान से जो कि पहली हरित क्रांति की नींव रहा है। 73 वर्षीय स्थानीय किसान सुब्बाराव जिन्हें सन् 1985 में अंतर्राष्ट्रीय चावल अनुसंधान संस्थान ने असाधारण चावल (धान) किसान के खिताब से नवाजा था, का कहना है ‘वास्तव में यह निर्णय दुःखद और कठोर है, लेकिन हमारे पास अन्य कोई विकल्प ही नहीं है। फसल की लागत दिनों दिन बढ़ती जा रही है और किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल रहा है, गोदाम भरे पड़े हैं और हमारे अनाज का कोई खरीददार ही नहीं है।’ अचंता नामक छोटे से गांव से उठी यह चिंगारी अब पूर्वी व पश्चिमी गोदावरी जिले के अन्य गांवों जुटिट्गा, ईडूर, रमनपलम, डंडामुरुलंका, कुमार गिरिपट्नम, वडालारेवु, तुमल्लापल्ली तक फैल चुकी है। पूर्वी गोदावरी जिले के ही और राज्य के सबसे उपजाऊ रायलसीमा क्षेत्र के सभी 16 विकासखंडों के किसानों ने भी ‘कृषि अवकाश’ घोषित कर दिया है और अब नजदीक के कृष्णा और गुंटूर जिले के किसान भी बड़ी मात्रा में ‘अवकाश’ ले रहे हैं। एक अनुमान के अनुसार यहां पर करीब 5 लाख हेक्टेयर से अधिक भूमि ‘कृषि अवकाश’ पर या तो चली गई है या जाने वाली है।

आंध्रप्रदेश पश्चिम बंगाल के बाद देश में दूसरा सबसे बड़ा धान उत्पादक राज्य है और यहां 48 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में धान की खेती होती है। धान की बिक्री न होने से सबसे ज्यादा प्रभावित बंटाई पर कार्य करने वाले किसान होते हैं क्योंकि उन्हें न तो बैंक से कर्जा मिलता है और न ही वे किसी मुआवजे के ही हकदार होते हैं। यहां किसानों की मांग है कि उन्हें प्रो. एम.एस. स्वामीनाथन समिति की अनुशंसा यानि लागत पर 50 प्रतिशत लाभ की दर से गणना कर न्यूनतम समर्थन मूल्य दिया जाए। प्रसिद्ध कृषि शास्त्री जी.वी. रमनजानेयुलु का कहना है कि सन् 1997 से 2007 के मध्य के दस वर्षों में कृषि उत्पादों के मूल्यों में 25 प्रतिशत से अधिक की वृद्धि नहीं हुई जबकि लोहा, सीमेंट आदि के मूल्यों में 300 से 600 प्रतिशत, इसी दौरान सरकारी कर्मचारियों के वेतन में 150 प्रतिशत (छठे आयोग की गणना नहीं) और विधायकों के वेतन में 500 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। वहीं अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी बताती है कि भारतीय कृषक की आमदनी 2115 रुपए प्रति माह व खर्च 2770 रुपए है और सीमांत किसान जो कि कुल किसानों की संख्या के 84 प्रतिशत हैं की मासिक आय (सभी स्रोतों से) मात्र 1818 रुपए प्रति माह है एवं उनका खर्च 2678 रुपए प्रति माह है। यानि वर्ष दर वर्ष कर्ज में दबते जा रहे किसान गरीबी के अंतहीन चक्र में फंस गए हैं।

किसानों की वर्तमान स्थिति के लिए आंध्रप्रदेश सरकार की धान खरीद नीति भी जिम्मेदार है। भारत के अन्य प्रदेशों में धान को किसानों से सीधा खरीद कर मिलों को दिया जाता है। लेकिन आंध्रप्रदेश में मिलों से लेवी के रूप में धान की खरीदी की जाती है। यानि चावल प्रसंस्करण मिल मालिक किसानों से धान खरीदते हैं, इसका प्रसंस्करण करते हैं और 75 प्रतिशत चावल भारतीय खाद्य निगम को दे देते हैं और बाकी के 25 प्रतिशत की उन्हें खुले बाजार में बेच देने की अनुमति है। इसके बाद मिल वाले एक प्रमाणपत्र दे देते हैं जिसमें उल्लेख किया गया होता है कि उन्होंने किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य चुका दिया है। इस पर उन्हें भारतीय खाद्य निगम से चुकाये गये मूल्य के अलावा प्रसंस्करण व्यय और भाड़ा मिल जाता है। किसानों का आरोप है कि मिल मालिक कभी भी न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं देते। इसके अलावा किसानों का कहना है कि राज्य सरकार द्वारा चावल योजना में 2 रुपए किलो चावल देने एवं अच्छे चावल का बाजार मूल्य अधिकतम 20 रुपए तय करने से सोना मसूरी नामक लोकप्रिय चावल जो पिछले वर्ष 1250-1500 रुपए प्रति क्विंटल बिका था इस वर्ष मात्र 600 से 750 रुपए प्रति क्विंटल बिका है।

उपरोक्त परिस्थतियों को क्या कहा जा सकता है? प्रसिद्ध उर्दू शायर मजाज ने पूंजीवादी व्यवस्था में किसानों की स्थिति की व्याख्या करते हुए सन् 1937 में लिखा था,

ये वो आंधी है जिसकी रौ में मुफलिस का नशेमन (घर) है,
ये वो बिजली है जिसकी जद (चपेट) में हर दहकाँ (किसान) का खिरमन (खलिहान) है।

आज सरकार मिलों और उपभोक्ताओं को सब्सिडी किसान की कीमत पर दे रही है। आंध्रप्रदेश की धान की सरकारी खरीद नीति ने तो किसानों को व्यापारियों के हाथ गिरवी रख दिया है और इस पर अब राज्य के पक्ष व विपक्ष दोनों ओर के राजनीतिक दल 20 लाख टन चावल निर्यात की मांग कर रहे हैं। परंतु इसका फायदा तो मात्र मिल मालिकों और व्यापारियों को ही मिलेगा। इसका एक ज्वलंत उदाहरण मध्यप्रदेश है जहां पर कुल बुआई क्षेत्र के 60 प्रतिशत में सोयाबीन उगाया जाता है और जिसका कि अधिकांश निर्यात होता है। इसके बावजूद मध्यप्रदेश में अभी भी गरीबी की दर काफी ऊँची है।
बहरहाल आंध्रप्रदेश के किसानों ने ‘कृषि अवकाश’ लेकर भारत के किसानों को एक नई राह दिखाई है। किसानों ने आजादी के बाद से देश के कृषि वैज्ञानिकों, कृषि विषेषज्ञों, नीति निर्माताओं और राजनीतिक नेतृत्व के कहने पर स्वयं को नई तकनीक के हवाले कर दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि किसान के अलावा सभी के वारे न्यारे हो गए और किसान लगातार ऋण की चपेट में आता चला गया। केंद्र व राज्य सरकार अभी इस ‘अवकाश’ पर त्वरित गंभीर समाधान की दिशा में अग्रसर नहीं हैं। उसकी एक वजह यह है कि सरकार के पास अभी धान का पर्याप्त भंडार है और वह समझती है कि किसान अधिक दिन तक संघर्ष नहीं कर सकते। लेकिन भारत के आम नागरिक जिनमें किसानों की बहुलता है, ने हमेशा चकित ही किया है। वैसे केंद्र सरकार ने ‘कृषि अवकाश’ की घोषणा के बाद अगली फसल के लिए 1110 रुपए प्रति क्विंटल का मूल्य घोषित किया है जबकि किसानों का मानना है कि उनकी लागत ही करीब 1800 रुपए क्विंटल आ रही है। ऐसे में किसानों के पास और कोई विकल्प ही नहीं बचा रहता कि वे अपना ‘अवकाश’ जारी रखें। साथ ही सरकार को किसानों के पास बचा धान अपने वायदेनुसार तुरंत खरीदना चाहिए।

आज देश भर के किसान त्रस्त हैं। लेकिन सरकार किसी भी तरह की कृषि नीति को अंतिम रूप देने को तैयार नहीं है। वह कृषि मूल्य निर्धारण को लेकर भी कठोर रवैया अपनाए हुए है और इसके कारण किसानों में असंतोष बढ़ रहा है। आंध्र के किसानों ने स्वयं को संकट में डालकर विरोध का एक तरीका अविष्कृत किया है। यदि सरकारें नहीं चेतीं तो इसकी गूंज देर-सबेर पूरे देश में हो सकती है। मजाज ने सन् 1947 में अपनी नज्म ‘पहला जश्ने आजादी’ में लिखा था,
ये इंकलाब का मुजदा (शुभ संदेश) है, इंकलाब नहीं।
ये आफताब (सूरज) का परतौ (आभास) है, आफताब नहीं।
ठीक इसी तरह आधंप्रदेश के किसानों का यह संघर्ष एक शुभ संदेश है कि भारतीय किसानों को भी अब अपने अधिकारों को पाने का एक जरिया मिल सकता है, बशर्ते वे इसके लिए तैयार हों।

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