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भय भूख और भ्रष्टाचार से चाहिए आजादी


राकेश  कुमार मालवीय
हम आजाद हैं। हर साल अपनी आजादी का पर्व 64 सालों से मनाते आ रहे हैं। हर साल लाल किले की प्राचीर से याद दिलाया जाता है कि हमारा लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है । यहां हर व्यक्ति को अपना जीवन स्वतंत्रतापूर्वक, सम्मानपूर्वक, न्यायपूर्वक बिताने का पूरा-पूरा अधिकार है। कमोबेश  इन्हीं साठ-पैंसठ सालों के बाद अब देष में नए सवाल खड़े हैं। सवाल भूख के हैं। भूख जिसे तमाम सरकारें अनाज के रिकाॅर्ड उत्पादन के बावजूद दूर नहीं कर पाई। भय। भय अंग्रेजों का तो दूर हुआ, लेकिन अपने ही देष के कई कोनों में हमारे तंत्र ने भय करके अपने खिलाफ ही बगावत के बीज बोए। इसी भय के कारण आज देष के कई कोने ऐसी अराजक और अनियंत्रित व्यवस्था के हवाले हैं जहां सरकार की नहीं चलती। और भ्रष्टाचार। इस समय का सबसे बड़ा सवाल। सवाल जिससे पूरा देश  हिला है, लेकिन इसके उपाय के रूप में की जा रही कोशिशों  ने सरकार के जनविरोधी को बेनकाब कर दिया। इन तीनों प्रासंगिक सवालों यानी भय, भूख और भ्रष्टाचार की चक्की में पिसकर तिलमिला रहे देश  को इस जकड़न से आजादी चाहिए। 

देष में भय की अलग-अलग तस्वीरें देखने को मिलती हैं। सच कहा जाए तो जितना खतरा देश  के बाहर के लोगों से है, उससे ज्यादा खतरा देष के अंदर पनप रहे आक्रोष का भी है। यह सबसे बड़ी चुनौती है कि देष के आंतरिक असंतोष को दूर करने के लिए प्रभावी प्रयास होने चाहिए। कमोबेश  इस दिश  में हमने जो कोशिशें  की हैं उन पर ही सवालिया निशान  खड़े हैं। छत्तीसगढ़ में जिस तरह से नक्सलवाद को खत्म करने की दिषा में कदम बढ़ाए गए, उन्हें सर्वोच्च न्यायालय ने बाद अब असंवैधानिक ठहराया हैं। सलवा जुड़ूम अभियान सरकार ने लोगों को लोगों के खिलाफ ही इस्तेमाल करने का जो तरीका अख्तियार किया, वह बिलकुल भी जायज नहीं ठहराया जा सकता है। लगातार बढ़ते असंतोष को रोकने में असफल हो रही सरकार का यह चेहरा इस पूरी प्रक्रिया से स्पष्ट होकर सामने आता है। यहां तक कि सरकार ने सलवा जुडूम के तहत जब विषेष पुलिस अधिकारियों को जब हथियारबंद कर आपस में ही लड़वाने की नीतियां बनाईं। यह कितना बड़ा सवाल है कि किसी समाज में सवालों को हल करने की बजाय एक-दूसरे को आपस में लड़वा दिया जाए, और इस लड़ाई को रोकने के लिए जिम्मेदार लोग हाथ पर हाथ धरे बैठे रहें। बहरहाल सलवा जुडूम के तहत इस प्रक्रिया को सुप्रीम कोर्ट के आदेश  के बाद ही विराम लग सका कि विशेष  पुलिस अधिकारियों को हथियारबंद करने की यह कोशिश  उस सूरत में खतरनाक हो सकती है जबकि लोग राज्य के खिलाफ हो जाएं। यह देष में शर्म को विषय होगा कि सरकार के हथियार सरकार के लिए ही चलने लगें। बहरहाल काॅरपोरेट और बाजार के पक्ष में खड़ी सरकारों को यह तस्वीर साफ समझ नहीं आ रही है, और वह लोगों को एक भयमुक्त वातावरण देने में नाकामयाब सिद्ध हो रही हैं। 

सरकार भूख के सवालों को कितनी गंभीरता से ले रही है, यह भी बेहद दिलचस्प है। यह शर्म का विषय है कि आजाद भारत में अब भी कई लाख लोग रोज रात को भूख के साथ सोते रहे हैं, इस तथ्य को जानने समझने के बाद भी सरकार सुविधाओं को बढ़ाने के बजाए उन्हें सीमित करने के षडयंत्रों में लगी दिखाई देती है। पता नहीं ऐसा कौन सा दबाव है जो सरकार को देष में गरीबों की संख्या को कम करके दिखाना है। संभवत आठ और नौ प्रतिषत विकास दर हासिल करने में हमें गरीबों का आंकड़ा कम करना है ताकि शाइनिंग इंडिया की तस्वीर को दुनिया में पेष किया जा सके। यही कारण है कि अब सरकार को नए सिरे से गरीबों का सर्वे करना है। इस सर्वे का सबसे दिलचस्प पहलू यह है कि इसमें ग्रामीण क्षेत्रों में प्रतिदिन 15 रूपए  और शहरी क्षेत्र में प्रतिदिन बीस रूपए से कम कमाने-खाने वाले व्यक्ति को रखा जाएगा। सरकार को संभवतः यह दिखाई नहीं देता कि मौजूदा दौर में जब तेल की कीमतें आसमान छू रही हैं, सब्जियां, दूध, फल, रोजमर्रा की चीजों के भाव किसी नियंत्रण में नहीं हैं तब किसी भी परिवार का 15 से 20 रूपए में गुजारा संभव है ? इस 15 रूपए में भी षिक्षा, स्वास्थ्य और मनोरंजन का व्यय शामिल है। पर सरकार को अपने विकास के आंकड़े दुरूस्त रखने के लिए जरूरी है कि जीडीपी की दर को उच्च स्तर पर रखा जाए। जीडीपी बढ़ाने के लिए जरूरी है कि लोगों की जेब से जितना पैसा निकालकर बाजार के हवाले किया जा सके, उतना कर ही दीजिए। पर इस चक्की में अंततः उस आम आदमी को ही पिसना पड़ रहा है। आने वाले समय में स्थिति और भी भयानक हो सकती है जब वह गरीबी के नए सूचकों और मापदंड़ों पर खरा न उतरकर गरीबी रेखा से भी बाहर हो जाएगा और अमीरों की उस सूची तक भी नहीं पहुंच पाएगा जहां उसे एक सम्मानजनक जीवन मिल सके। वैसे गरीबी रेखा की सूची में आने भर से कोई जादू हो, ऐसा नहीं है। लेकिन इतना जरूर है कि यह सूची उन्हें सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत सस्ता खाद्यान्न मुहैया जरूर करवा देती है। देष के अस्सी करोड़ लोगों के लिए सार्वजनिक वितरण प्रणली एक अहम भूमिका अदा करती है। लेकिन भारत में आर्थिक उदारीकरण की नीतियों के बाद जिस तरह से सार्वजनिक वितरण प्रणाली को खत्म करने के लिए काम कर रही है, वह निष्चित ही जनविरोधी नीतियों का एक हिस्सा माना जा सकता है। संभवत: लोगों को बाजार को साल दर साल बाजार के हवाले किए जाने की तस्वीरें पिछले बीस सालों में हमने स्पष्ट रूप से देखी हैं। पहले तो 1992 से अगले पांच सालों में सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत मिलने वाले अनाज के दाम बार बार बढ़ाए गए। इससे बाजार और पीडीएस के मूल्य लगभग एक बराबर पर आ गए। इसके बाद यह तय किया गया कि पीडीएस के तहत अब सिर्फ गरीबों को ही सस्ता राषन मिलेगा। इसके साथ ही स्वास्थ्य संबंधी कोई दूसरी योजनाओं में थोड़ी-बहुत रियायत मिल जाती है। लेकिन देष में करोड़ों मीट्रिक टन का उत्पादन करने वाले देष में यदि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए सस्ते दामों पर खाद्यान्न  देने मे सरकार को पसीना आ रहा हो, तब इससे और क्या उम्मीद की जा सकती है। 

भ्रष्टाचार देष में किस कदर व्याप्त है यह अब साबित करने का विषय नहीं है। भ्रष्टाचार पर हरिषंकर परसाई का व्यंग्य सुदामा के चावल एक दम सटीक बैठता है। नीचे से उुपर तक का हर व्यक्ति शासन की कढ़ाई से खुरचन निकालने में व्यस्त है। इसका सबसे ज्यादा खामियाजा भी उसी आम आदमी को भुगतना पड़ता है। संभवतः यही कारण है कि आजादी के आंदोलन के बाद पहली बार भ्रष्टाचार के मुद्दे पर आम लोगों का समर्थन मिला। लेकिन यहां भी सरकार ने अपना असली चेहरा सामने ला दिया है। आम लोगों की मांग है कि प्रधानमंत्री को लेाकपाल के दायरे में आना चाहिए। सरकार इस बात पर आमादा है कि प्रधानमंत्री को इस दायरे में नहीं लाया जा सकता। होना तो यह चाहिए था कि सरकार लोगों की कसौटी पर आने की कोषिष करती और लोग यदि यह चाहते हैं कि एक ठोस लोकपाल बिल संसद के जरिए आए तो वह इसके लिए अपनी कोषिषें करती। पर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में ऐसा नहीं हो पा रहा है। कारण एक दम साफ है। देष में कड़े कानूनों का सबसे बुरा और पहला असर उन लोगों पर होगा जो सबसे ज्यादा भ्रष्ट हैं। जाहिर सी बात है देष में राजनीति और नौकरषाही का गठजोड़ इसके निषाने पर सबसे पहले होगा। संभवतः तभी हम देष में भ्रष्टाचार की एक ऐसी व्यवस्था को बना रहने देना चाहते हैं, जिससे सभी लोगों का काम चलता रहे। बहरहाल आजादी के चैसठ सालों के बाद हमें यह सोचना होगा कि देष में भय, भूख और भ्रष्टाचार की गुलामी से कैसे मुक्त हुआ जा सकता है। 

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