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मानवीय नहीं है भूमि अधिग्रहण बिल का मसौदा


राकेश  कुमार मालवीय  
आजाद भारत में साढ़े तीन हजार परियोजनाओं से लगभग दस करोड़ लोगों को विस्थापित कर सरकार अब यह मान रही है कि लोगों की जीविका की क्षति, पुनर्वास-पुनस्र्थापन एवं मुआवजा उपलब्ध कराने हेतु एक राष्ट्रीय कानून का अभाव है तब निष्चित ही इतने सालों के अत्याचार, अन्याय पर सरकार खुद अपनी ही मुहर लगाती दिखाई देती है। इस सवाल को तमाम जनसंगठन कई सालों से उठाते आ रहे थे कि लोगों को उनकी जमीन और आजीविका से बेदखल करने में तो तमाम सरकारों ने कोई कोताही नहीं बरती हैं, लेकिन बात जहां उनके हकों की, आजीविका की बेहतर पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन की आती है वहां कई बहानों से कन्नी काटी है। दूसरा बड़ा छेद उस तंत्र का भी है जिसने खैरात की तरह बांटी गई सुविधाओं में भी अपना हिस्सा नहीं छोड़ा है। 

हमारे सामने तमाम उदाहरण हैं। उदाहरण है कि किस तरह सैकड़ों सालों पुराने बाईस हजार की आबादी वाले हरसूद शहर को एक बंजर जमीन पर बसाया गया। उदाहरण है कि कैसे तवा बांध के विस्थापितों को उनकी ही जमीन पर बनाए गए बांध से मछली पकड़ने का हक भी छीन लिया गया। और उदाहरण यह भी है कि कैसे बरगी बांध से हर विस्थापित परिवार के एक सदस्य को सरकारी नौकरी का एक झुनझुना पकड़ाया गया। बांध बनने के तीन दषक बाद अब तक भी हर विस्थापित परिवार तो क्या एक परिवार को भी नौकरी नहीं मिल सकी। दरअसल जिस कानून का आधार और मंषा ही संसाधनों को छीनने और उनका अपने हक में दोहन करने के लिए बना हो, उससे आप अपेक्षा भी क्या की जा सकती है। लेकिन दुखद तो यह है कि ऐसे 1894 में बने ऐसे कानून को आजादी के इतने सालों तक भी ढोया गया। इस कानून में अधिग्रहण की बात तो थी, लेकिन बेहतर पुनर्वास और पुनस्र्थापन का सिरे से अभाव था। यही कारण था कि केवल मध्यप्रदेष में ही नहीं बल्कि भारत के उन सभी हिस्सों में भूमि अधिग्रहण, विस्थापन विकास का नहीं बल्कि विनाश  का प्रतीक बनकर आया। 

सरकार अब एक नए बिल का झुनझुना पकड़ाना चाहती है। निष्चित ही देश  में कोई राष्ट्रीय कानून नहीं होने से तमाम व्यवस्थाओं ने अपने-अपने कारणों से लोगों से उनकी जमीन छीनने का काम किया है। देश भर में भूमि अधिग्रहण अब तक 18 कानूनों के जरिए किया जाता रहा है। विरोध इस बात का नहीं है कि विकास योजनाओं के नाम पर जमीन नहीं ली जाए, बल्कि देश  में इतने सालों के अनुभव के बाद यह बात सामने आई है कि एक बार जमीन ले लेने के बाद उन तमाम लोगों को बलिदानी ही समझा जाता है, और उनके बलिदान के बदले उनको एक सम्मानपूर्ण जिंदगी देने में विफल ही रहे हैं। इस प्रस्तावित बिल में भी जितना जोर जमीन के अधिग्रहण का होना चाहिए वहीं प्रभावितों के पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन की भी होनी चाहिए। लेकिन उस नजरिए से बिल में कोई भी ठोस प्रबंध दिखाई नहीं देते हैं। बिल में मुआवजा, पुनर्वास एवं पुनस्र्थापन के प्रावधान सैदधांतिक रूप से तो हैं पर उन्हें जमीन पर लाने के लिए प्रक्रियाएं स्पष्ट नहीं हैं। 

आजादी के बाद से अब तक हुए विस्थापन के आंकड़े हमें बताते हैं कि जितना भी विस्थापन हुआ है उसमें आदिवासियों की संख्या सबसे ज्यादा है। सरदार सरोवर बांध से दो लाख लोग प्रभावित हुए, इनमें 57 प्रतिशत  लोग आदिवासी थी, महेश्वर  बांध की जद में भी बीस हजार लोगों की जिंदगी आई, इनमें साठ फीसदी  लोग आदिवासी थे। आदिवासी समुदाय के साथ प्रकृति का एक अटूट नाता है। विस्थापन के बाद उसके सामने सबसे पुनस्र्थापित होने की चुनौती सबसे ज्यादा होती है। जाहिर है आदिवासी, उपेक्षित और वंचित समुदाय के लिए इस बिल में सबसे ज्यादा ध्यान दिया जाना चाहिए। कमोबेश  बिल के इस मसौदे में इसी बिंदु पर सबसे बड़ा अंतर दिखाई देता है। बिल में कहा गया है कि ऐसे सभी जनजातीय क्षेत्रों में जहां कि सौ से अधिक परिवारों का विस्थापन किया जा रहा हो वहां एक जनजातीय विकास योजना बनाई जाएगी। भारत की भौगोलिक संरचना में बसे जनजातीय क्षेत्रों में एक ही जगह सौ परिवारों का मिल पाना बहुत ही कठिन बात है। मजरे-टोलों में बसे आदिवासियों के लिए इस मसौदे में रखी न्यूनतम सौ परिवारों की शर्त को हटाया जाना चाहिए। ऐसा नहीं किए जाने पर आगामी विकास योजनाओं के नाम पर जनजातीय क्षेत्रों से लोगों का पलायन तो जारी रहेगा ही, और उन्हें पुनर्वास और पुनस्र्थापन भी नहीं मिल पाएगा। बिल में जमीन के मामले पर भी सिंिचंत और बहुफसलीय वाली कृषि भूमि के अधिग्रहण नहीं किए जाने की बात कही गई है। जनजातीय क्षेत्रों में ज्यादातर भूमि वर्षा आधारित है, और साल में केवल एक फसल ही ली जाती है। तो क्या इसका आषय यह है कि आदिवासियों की एक फसलीय और गैरसिंचित भूमि को आसानी से अधिग्रहित किया जा सकेगा। 

तमाम विकास योजनाओं में टेबल से नीचे लाभ कमाने वाले तंत्र को साबित करने की अब जरूरत नहीं रही। सरकार जिस तरह अब खुद कहने लगी है कि तेल की कीमतें उसकी नियंत्रण में नहीं हैं उसी तरह इस तंत्र को सुधार पाना भी संभवतः उसके बस में नहीं है। लेकिन कानूनी और नीतिगत रूप से भी जब तंत्र पर नियंत्रण की कोषिषें नहीं दिखतीं तो तमाम आंदोलनों और विरोधों का भी क्या मतलब रह जाता है। भूमि अधिग्रहण का यह कानून भी ऐसी ही बात करता है। गलत सूचना, कपटपर्ण कार्रवाई के लिए यह बिल दंड की बात करता है। कोई भी गलत सूचना अथवा भ्रामक दस्तावेज प्रस्तुत करने पर एक लाख रूपए तक अर्थदंड और एक माह की सजा का स्पष्ट प्रावधान किया गया है। आरएंड आर लाभ गलत सूचना पर प्राप्त करने पर उनकी वसूली की बात भी कही गई है, लेकिन मामला जहां सरकारी कर्मचारियों द्वारा कपटपूर्ण कार्यवाही का आता है तो इस पर कोई स्पष्ट बात नहीं हैं वहां मामला केवल सक्षम प्राधिकारी द्वारा अनुषासनात्मक कार्रवाई भर का जिक्र आता है। जिस तंत्र में उपर से नीचे तक अनुषासनात्मक तरीके से मलाई मिल-बांट कर खाने की परंपरा हो जाहिर है यह कानून ऐसे मामलों में कोई सुधार नहीं कर पाएगा।   

इस कानून को दूसरी योजनाओं के संदर्भ में भी देखा जाना जरूरी है। सार्वजनिक वितरण प्रणाली के जरिए कम दरों पर खाद्यान्न की उपलब्धता इस देश के गरीब और वंचित और उपेक्षित लोगों के पक्ष में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। मौजूदा दौर में इस व्यवस्था को कई तरह से सीमित करने की नीतिगत कोशिशें  दिखाई देती हैं। विस्थापितों के पक्ष में इस योजना के महत्व को सभी मंचों पर स्वीकार किया जाता है। लेकिन भूमि अधिग्रहण और पुनर्वास का यह कानून ठीक इसी तरह पास हो जाता है तो तमाम विस्थापित लोग सार्वजनिक वितरण प्रणाली की इस व्यवस्था से बाहर हो जाएंगे। इस कानून के मसौदे में यह बात तो ठीक दिखाई देती है कि प्रभावित लोगों को ग्रामीण क्षेत्र और शहरी क्षेत्र के मापदंडों के मुताबिक पक्के घर बनाकर दिए जाएंगे। लेकिन इसका एक पक्ष यह भी होगा कि यह गरीबी की रेखा से अपने-आप ही अलग हो जाएंगे क्योंकि यह आवास गरीबी रेखा में आने वाले मकान के मापदंडों से बड़ा होगा। ऐसे में उन्हें सस्ता चावल, सस्ता गेहूं और सस्ता केरोसीन उपलब्ध नहीं हो पाएगा। जबकि होना यह चाहिए कि ऐसे प्रभावित परिवार जो विस्थापन से पहले गरीबी रेखा की सूची में शामिल हैं उन्हें पुनर्वास और पुनस्र्थापन के बाद भी गरीबी रेखा की सूची में विषेष संदर्भ मानते हुए यथावत रखा जाए।

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