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दूर गांव में...


दूर गांव में तब भी-अब भी
भूख की खबरें आती हैं
नहीं खिलौने, नहीं बिछौने
भूखे पेट सुलाती हैं

दिन भर की मजदूरी
नहीं समय पर मिलती है
खाली बर्तन बजते घर में
कैसे ये मजबूरी है

जिस देष के शहरों में आजकल
बाजार चमकते रहते हैं
उसी देष के बच्चे देखो
भूखे-नंगे रहते हैं

खुले आसमां के नीचे
कितना अनाज सड़ जाता है
उसी देष में देखो तुम भी
इतिहास रचा जाता है

दूर गांव में तब भी-अब भी
चूल्हे खामोष रहते हैं
राषन की दुकानों पर
ताले पड़े रहते हैं

दूर गांव में तब भी-अब भी
पसरा भेदभाव है
जिनको मिले पहले हक
वही सबसे बदहाल है

दूर गांव में तब भी-अब भी
आवाज दबा करती है
कानूनों की मार उल्टी
लोगों पर पड़ती है

दूर गांव में तब भी-अब भी
ऐसा भ्रष्टाचार है
पैसा नहीं पहुुंच पाता है
जुल्म अत्याचार है

दूर गांव में तब भी-अब भी
रोटी नहीं मिल पाती है
भूखे पेटों सोते हैं
जान चली जाती है

पता नहीं सोने की चिडि़या
काहे को कहते हैं
दूर गांव में तब भी-अब भी
क्या-क्या हम सहते हैं
क्या-क्या हम सहते हैं।            

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1 टिप्पणियाँ

बेनामी ने कहा…
Very very nice poem Mr. Rakesh I like it..