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बच्चों पर टीबी का साया

- स्कन्द विवेक 

भारत दुनिया में टीबी की राजधानी बन चुका है। पिछले साल देश में 20 लाख से अधिक टीबी के नए मरीज सामने आए। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार दुनिया के 20 फीसदी टीबी मरीज भारत में पाए जाते हैं। ये तथ्य निश्चय ही हमारे माथे पर चिंता की लकीरें खींच सकते हैं। इसमें सबसे बड़ी चिंता उन बच्चों की है जो टीबी के मुहाने पर खडे हैं, जिन्हें टीबी कभी भी अपनी ओर खींच सकती है।

 हमारे देश में स्वास्थ्य के लिए हानिकारक उद्योगों में सबसे अधिक बालमजदूरी बीड़ी उद्योग में होती है। यह एक ऐसा काम है, जिसमें टीबी होने की आशंका सबसे अधिक रहती है। डॉक्टरों के अनुसार, लंबे समय तक तंबाकू से सीधा संपर्क, खानपान में पौष्टिक पदार्थो की कमी टीबी के हमले के लिए सबसे आसान अवसर मुहैया कराता है। चूंकि बीड़ी बनाने का 90 फीसदी से अधिक काम घरों में होता है, इसलिए न तो बालश्रम पर कोई रोक है नही बीड़ी बनाते समय कोई मास्क या दस्ताना उपलब्ध होता है। नतीजा दिन में 12-14 घंटों तक सीधा तंबाकू से संपर्क बच्चों को अंदर से कमजोर कर देता है। 20 से 25 वर्ष की आयु तक पहुंचते-पहुंचते कई मजदूर टीबी के शिकार हो जाते हैं। 

 बीडी बनाने वाले यादातर मजदूर गरीबी रेखा से नीचे वाले हैं। काम भर के पैसों अधिक पैसे के लिए जरूरी है वे यादा से यादा बीड़ी बनाएं, ऐसे में वे चाह कर भी बच्चों को इस काम से दूर नहीं रख पाते हैं। इसके अलावा दूसरा कोई रोजगार नहीं होने के चलते मां-बाप चाहते हैं कि बच्चे इस काम में निपुण हो जाएं जिससे उनके सामने जीवनयापन का संकट न आए। लड़कियों को यह काम विशेषतौर पर सिााया जाता है, क्योंकि उनकी शादी के समय यह विशेषगुण माना जाता है। एक अनुमान के मुताबिक 3,00,000 से यादा बच्चे इस काम में शामिल हैं। एक बार टीबी हो जाने के बाद मजदूर शारीरिक रूप से बेहद कमजोर हो जाते हैं। सरकार ने टीबी के मुफ्त इलाज की व्यवस्था की हुई है, लेकिन बच्चों को टीबी से कैसे बचाया जाए इस पर कोई काम नहीं हो रहा है। बच्चों को घर पर बीड़ी बनाने से रोकने में सरकारी अधिकारी भी हाथ खडे क़र देते हैं। ऐसे में टीबी के साये में खडे बच्चों का भगवान ही मालिक है।

 कानून भी बेबस बच्चों को बीड़ी बनाने जैसे काम से बचाने के लिए एक कानून बना है, दि चाइल्ड लेबर प्रोटेक्शन एक्ट 1986, इस कानून में 14 साल तक के बच्चों  को बीड़ी बनाने जैसे खतरनाक काम करवाने को अपराध माना गया था। शुरुआत में इसमें घर में काम करने की छूट थी, लेकिन 2006 में एक कानून संशोधन के जरिए इसपर भी रोक लगा दी गई, लेकिन यह कानून यहां पूरी तरह असफल रहा है। दरअसल घर पर बीड़ी बनाने वाले बच्चों  पर कोई मामला नहीं बनता है, अगर मां-बाप की गिरतारी भी हो जाए, तो कोर्ट में बच्चा कभी अपने मां-बाप के खिलाफ नहीं बोलता है। जिसके चलते श्रम विभाग चाह कर भी कोई कार्यवाई नहीं कर पाता है। बीड़ी में यादा समय देने के चलते बच्चोेंं की पढाई पर भी बुरा असर पडता है। कई बच्चे तो पांचवी की पढाई तक नहीं कर पाते हैं। 

(लेखक नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया के फेलो हैं)  

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