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स्थानीयता और कूप मंडूकता

मीडिया के लोकलाइजेशन के नुकसान : पत्रकारिता के क्षेत्र में तेजी से आए बदलाव हतप्रभ करते हैं. पिछले 20-25 सालों में काफी कुछ बदल गया है. खबरों का अंदाज, तेवर, परिदृश्य, फलक... सब बदला है. बानगी देखिए. नीचे दो खबरें दे रहा हूं. एक वर्ष 1974 में प्रकाशित है तो एक इसी महीने. दोनों के फर्क को महसूस करिए....
पहली खबर...
"कल जे०एन०यू० में मुख्य द्वार के सामने एक सभा का आयोजन हुआ जिसमें परसों घाना के तख्ता-पलट और उसमें अमेरिका की सीआईए की संदिग्ध भूमिका पर विस्तृत चर्चा हुई. वक्ताओं का मानना था कि अमेरिका का यह कदम विस्तारवादी नीति, अंग्रेजी उपनिवेशवाद और नस्लवाद का नया संस्करण है और इस रूप में अमेरिका पूरे विश्व के लिए खतरनाक है. चूंकि घाना के अपदस्थ राष्ट्रपति अमेरिकी इशारों पर नहीं नाच रहे थे और अपने देश का विकास अपनी प्राथमिकताओं के आधार पर करने का पुरजोर प्रयास कर रहे थे, अतः अमेरिका ने सी०आई०ए० का उपयोग कर उन्हें सत्ता से ही हटा दिया"
प्रकाशन समय : 12 अगस्त, 1974
दूसरी खबर...
"कल स्थानीय ओंकारेश्वर शिव मंदिर, खजाना रोड, निकट ताड़ीखाना में एक रात्रि जागरण का कार्यक्रम आयोजित हुआ जिसमें मोहल्ले के सभी लोग इकट्ठा हुए. रात भर चलने वाले इस जागरण कार्यक्रम में स्थानीय कलाकार शम्भू शरण श्रीवास्तव, ममता तिवारी, मृदुला सिंह, मनमोहन चौरसिया, शिव जी, राकेश सिंह उर्फ़ पप्पू, राम नरेश उर्फ़ लालू, जीवन मल गुप्ता उर्फ़ जीतू ने अपने मनोहारी गीत प्रस्तुत किये. आयोजन समिति की तरफ से राहुल पाण्डेय, भजनी राम, लाल बहादुर, अनिल शर्मा, श्री प्रकाश यादव उर्फ़ शेरा, शंकर पासवान उर्फ़ राका, सरोज वर्मा, सिद्धनाथ मल्ल उर्फ़ सिद्धू ने हिस्सा लिया जबकि श्रोताओं में प्रमुख रूप से अ, ब, स, द, च, छ, ज, झ,त, थ, द वहां उपस्थित थे. "
प्रकशन समय : 12 अगस्त 2010



मैं जब छात्र था और उस समय के बिहार (और अब के झारखंड) के बोकारो में रहता था, तब हमारे घर पर दो अखबार आया करते थे. एक था इंडियन नेशन और दूसरा आर्यावर्त. दोनों संभवतः एक ही ग्रुप के थे और उस समय के बिहार के बड़े अखबारों में गिने जाते थे. मैं अपनी बुद्धि भर शुरू से ही अखबार पढता था पर मुझे नहीं याद कि मेरे गली, मोहल्ले, कस्बे का कोई समाचार उसमें कभी दिखा हो. हाँ, चूँकि बोकारो में काफी बड़ा इस्पात कारखाना है, तो उससे जुडी खबरें कई बार इकोनोमी पेज पर आया करती थीं. दो बार जरूर वहां की खबर दिखी थी- एक बार तो वहां के कुमार मंगलम स्टेडियम में फुटबाल के फाइनल मैच में दंगा हो गया था और पुलिस फायरिंग हो गयी थी जिसमें कई लोगों की जान भी चली गयी थी. मैं भी उस समय स्टेडियम में था और मुझे इस बात का कुछ विचित्र सा अनुभव हुआ था कि अखबार के एक समाचार से मैं भी स्वयं को जोड़ पा रहा हूँ. दूसरा मामला बोकारो में सीआईएसएफ़ द्वारा किये गए एक विद्रोह से सम्बंधित था जिसमे सेना बुलानी पड़ी थी और कई सीआईएसएफ़ कर्मियों की मौत भी हुई थी.
उसके बाद मैं आईआईटी से गुजरते हुए पुलिस में आ गया और फिर एएसपी हो गया. गोरखपुर में तैनात हुआ. वहां देखा कि कई सारे लोग जो पत्रकार कहे जाते थे, अक्सर मुझसे भी टकरा जाते थे. कभी-कभी कुछ खबर भी पूछते थे. फिर देखा कि दो-चार दिनों के बाद एक दिन एक अखबार में मेरा नाम भी कहीं अंकित था. मैं वास्तव में बहुत खुश हो गया था, शायद अखबार में नाम देखना और उससे गर्वित तथा प्रसन्न होना मूलभूत इंसानी फितरत है. उसके बाद कई बार नाम छपा. मैं सारे अखबार पढता क्योंकि पुलिसवाला होने के नाते पैसा तो लगता नहीं था- कुछ तो अखबारवाले ऐसे ही दे जाते थे और कुछ पुलिस लाइन से आते थे.
पढता और अपने कार्यों के बारे में छपी ख़बरों पर प्रसन्न होता. लेकिन एक बात जो मुझे बहुत खटकती थी वह यह कि इन अखबारों में देश-दुनिया के बारे में लगभग नहीं के बराबर जानकारी हुआ करती थी. यूगोस्लाविया में तख्ता पलट हुआ हो तो हो होने दो. ऑस्ट्रेलिया में नयी पार्टी सत्ता में आई हो तो क्या हुआ, चीन में भयानक तूफ़ान का असर इन अखबारों तक आते-आते लुप्तप्राय सा हो जाता. यदि उस तूफ़ान में हज़ार लोग मर जाएँ तो शायद किसी कोने में उस पर एक-दो पंक्तियाँ दिख जातीं जबकि कल पुलिस लाइन में एसएसपी की मीटिंग और उनके निर्देशों पर काफी-कुछ लिखा होता. मेरा नाम भी उसमें शामिल लोगों में रहता. फिर मैं यह सोचता कि हो सकता है, स्थानीय खबरों की होड़ में वैश्विक खबरों की उपेक्षा हो रही हो और गैर महत्वपूर्ण या कम महत्वपूर्ण स्थानीय खबरों को ज्यादा तवज्जो दिया जा रहा हो.
फिर एक दिन मेरे एक कार्य का प्रशंसनीय दास्तान छपा. मैंने शायद कोई केस खोल दिया था. अपनी प्रशंसा के कुछ बोल सुनने के लिए पड़ोस के जिले में तैनात अपने एक बैचमेट को फ़ोन किया. बात की बात में उस खबर की चर्चा छेड़ी पर वह तो बिलकुल अनजान था उससे. फिर सीधा पूछ ही लिया. उसने मना किया कि उसके यहाँ ऐसी कोई बात नहीं छपी  है. आगे मालूम हो गया कि यह सब कितना स्थानीय हो गया है. मैं इस पर अपनी कोई स्पष्ट टिप्पणी नहीं दे रहा. इतना जरूर कहूंगा कि इस प्रवृत्ति से जहां संभवतः अखबारों को भारी फायदा हुआ है वहीँ स्थानीयता की भावना भी उतनी ही बढ़ गयी है और एक प्रकार की कूप-मंडूकता की भावना हम लोगों पर और अधिक बलवती हो गयी है. शायद अब हमारे लिए देश और विदेश की ख़बरों का महत्त्व उतना नहीं रह गया है या कई बार शून्य प्राय हो गया है, अपने घर और मोहल्ले की घटनाओं की तुलना में. यह कितना अच्छा है और कितना बुरा, इस पर विचार करना चाहिए.
मैं यह नहीं कह रहा कि एसएसपी ने क्राइम पर अपने एसओ को कड़े निर्देश दिए हैं तो यह मामूली खबर है. बड़ी खबर यह भी है. पर इस या इस तरह की खबरों को ज्यादा बढ़ा-चढ़ा के छापने से अन्य प्रदेशों, देश और दुनिया की महत्वपूर्ण खबरों को पढ़ने से हम वंचित रह जाते हैं क्योंकि उन्हें प्रकाशित करने के लिए स्थान ही नहीं बचता होगा. अगर 16 पेज के अखबार में 8 पेज स्थानीय कर दिया, दो पेज खेल, एक संपादकीय, एक पहला पेज, एक शेष का पेज, एक आर्थिक पेज, एक सिनेमा का पेज  और एक विदेश की मजेदार घटनाओं पर आधारित पेज है तो दूसरे जिलों, प्रदेशों, देश व दुनिया की महत्वपूर्ण खबरें कहां जाएंगी? ऐसे में अगर स्थानीय खबरों पर आधारित पेजों की संख्या 8 की जगह पांच कर दें और खबरों को संक्षिप्त तरीके से लिखवाएं व गैर-जरूरी खबरों को संक्षिप्त में रखें तो तीन पेज प्रदेश, देश व दुनिया की खबरों के लिए निकल सकते हैं.
माना, अति स्थानीयता के कई अन्य फायदे हैं. और, इसी का दौर भी है. बाजार भी यही मांग कर रहा है. लेकिन इस दौर में हमें ग्लोबल विजन से कट नहीं जाना चाहिए अन्यथा हम कुएं के मेढ़क होकर रह जाएंगे. अखबारों का दायित्व अपने पाठकों को स्थानीय खबरों के साथ वैश्विक बदलावों से भी अवगत कराना है. साथ ही, स्थानीय खबरों में से महत्वपूर्ण खबरों को दूसरे संस्करणों, जिलों में भी पढ़ाना चाहिए. लोग कहते हैं कि आज किसी जिले में क्या हुआ, यह दूसरे जिले का आदमी अखबार के जरिए नहीं जान पाता क्योंकि अति स्थानीयकरण ने कामन खबरों अर्थात महत्वपूर्ण स्थानीय खबरों वाले कामन प्रादेशिक पेजों की संख्या कम कर दी है. यह ठीक नहीं है. इस पर अखबारों से जुड़े लोगों को सोचना चाहिए.
लेखक अमिताभ ठाकुर लखनऊ में पदस्थ आईपीएस हैं. इन दिनों शोध कार्य में रत हैं.
bhada4media.com से साभार  

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