राकेश मालवीय
वास्तव में भूख या भूखजनित कारणों से किसी भी नागरिक की मृत्यु सबसे बड़ा कलंक है। यह तथ्य बेहद दुखी करने वाला है कि लगभग दस फीसदी विकास दर का दंभ भरने वाले देष में 42 करोड़ लोग भूखे सोने पर मजबूर हैं। चाहे उड़ीसा के कालाहांडी का मामला हो, चाहे मध्यप्रदेश के आदिवासी इलाके या फिर रौशनी से सराबोर महानगरों की झुग्गी-बस्तियों का। यह हैरत की ही बात है कि आजाद भारत के साठ सालों के इतिहास में हम बेहतर और सभी को भूख से मुक्त करने की संवैधानिक जिम्मेदारी नहीं निभा पाए। योजनाएं बनीं भी तो अंतिम लक्ष्य तक पहुंचते-पहुंचते खुद ही कालातीत हो गईं। देश में इस दिशा में जो भी कार्यक्रम बनाए गए वह लक्ष्य आधारित ज्यादा रहे हैं। उनका मकसद सिर्फ आंकड़े पेश करके अपनी जिम्मेदारियों को सतही तौर पर पूरा करना रहा है। जबकि इसका लक्ष्य देश को पूरी तरह से भूख से मुक्ति दिलाना होना चाहिए था। अफसोस है किसी भी सरकार ने अब तक इस बात के लिए प्रबल इच्छाशक्ति नहीं दिखाई है।
पिछले दशक में खाद्य सुरक्षा के नाम पर जो कुछ भी प्रक्रियाएं चली हैं उन्होंने एक हिस्से को तो लाभ पहुंचाया, लेकिन उनसे जनित कारणों से वंचित और हाशिये पर जाने वाला समाज भी बड़ा रहा। गरीबी रेखा के इस पार और उस पार के दायरे में भूख से पिसने वाले वर्ग की कहानियां जब-तब हमने पढ़ी हैं। विस्थापन की त्रासदी भोगने वाले समाज को मुआवजा देने के बाद पूरी तरह से खाद्य सुरक्षा के दायरे से अलग कर दिया गया। जबकि उस समाज के पास आजीविका का सबसे बड़ा संकट आसन्न था। घरों में सस्ते शौचालय बन जाने के बाद हजारों लोगों को इस सूची से गायब कर दिया गया। कई आदिवासी इलाकों में नागरिकों ने जहरीले कंद को नदी के पानी में रखकर उन्हें खाने लायक बनाया। हालांकि उनका पूरा जहर कभी उतर नहीं पाया, लेकिन इसके बावजूद उन्हें खाना उनकी मजबूरी रहीं। बिहार के मुसहर जाति के लोगों ने चूहों के बिलों में से अनाज के दाने निकालकर भूख से मुक्ति पाने की नाकाम कोषिषें कीं तो कई जगह गोबर में से अनाज बीनने की असम्मानजनक कवायदें भी नजर आईं। और जबकि अब प्रस्तावित खाद्य सुरक्षा कानून रौशनी की एक किरण नजर आता है तब गरीबी की परिभाषाओं, गरीबों की गिनती को लेकर बहस खड़ी हैं।
होना तो यह चाहिए कि लोककल्याणकारी शासन व्यवस्था में लोगों को उनकी जरूरत के मुताबिक खाद्यान्न उपलब्ध कराया जाना चाहिए। इसके साथ ही तेल और दलहनों को भी इसके दायरे में लाए जाने की जरूरत है। भारत में कुपोषण और भूख से मौतों की वजह प्रोटीन, विटामिन और वसा की अपर्याप्तता है। तब मोटे अनाज ज्वार, बाजरा, मक्का, रागी जैसे अनाज और दालों को भी शामिल करने की जरूरत है। इसके बिना भारत से कुपोषण को नहीं मिटाया जा सकता है। खाद्य सुरक्षा के लिए जो भी कदम उठाए जा रहे हैं उनमे सिध्दांत के तौर पर पोषण की सुरक्षा का वायदा किया जाना अनिवार्य है। हर महीने तीन किलो तेल की जरूरत के हिसाब से 20 करोड़ परिवारों के मान से 72 लाख मीट्रिक टन तेल की जरूरत होगी। दालों को देखें तो देश में दालों का उत्पादन करीब 86 लाख टन है। इसमें आयात को और जोड़ दें तो पिछले साल भारत में दालों की उपलब्धता 183 लाख टन रही। इस दृष्टि से 67 प्रतिशत और उत्पादन की जरूरत है।
तीसरी सबसे बड़ी जरूरत यह है कि खाद्यान्न सुरक्षा की प्रक्रियाओं को एक व्यापक दायरे में पूरी पारदर्शिता से चलाया जाए। देश में योजनाओं का जमीन तक न पहुंचना, स्थितियों में सुधार नहीं होने का बड़ा कारण है। ऐसे कई मामले मौजूद हैं जहां कि सवर्ण समाज के पास तो राषन कार्ड मौजूद है, लेकिन उसी दायरे का आदिवासी समाज इससे वंचित है। ऐसे व्यावहारिक पहलुओं से लड़ाई की तैयारी में कानून की क्या भूमिका होगी्, इस पर भी विचार आवश्यक है।
0 टिप्पणियाँ