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बहुत कठिन है डगर शिक्षा के अधिकार की

राकेश  कुमार मालवीय

क्या शिक्षा का कानूनी अधिकार मिल जाने के बाद स्कूली शिक्षा व्यवस्था का चेहरा बदल जाएगा। यह सवाल शैक्षिक सुधारों की दिशा  में अब और भी प्रासंगिक हो गया है। इस कानून को शिक्षाविदों,विशेषज्ञों के विरोध और संशोधन  की मांग के बावजूद एक अप्रैल से पूरे देश  में लागू कर दिया। मप्र में इस कानून को जमीन तक उतारने में  तमाम बाधाएं तो सामने हैं ही यह शिक्षित और साक्षर होने में एक लंबी खाई खींचता नजर आता है।

इस शिक्षा सत्र की शुरूआत के मायने कुछ अलग हैं। शिक्षा का अधिकार कानून लागू हो जाने के बाद यह पहला साल होगा जबकि 6 से 14 साल तक के बच्चों को निशुल्क  और अनिवार्य शिक्षा की आधार पंक्तियों और मंशा  के साथ स्कूल खोले गए हैं, लेकिन क्या स्कूल की घंटी हर बच्चे को सुनाई देगी, क्या स्कूल के दरवाजे हर बच्चे के लिए खुलेंगे और हर बच्चे को अनिवार्य शिक्षा मिल पाएगी, यह सुनिश्चित  कर पाना आधारभूत संसाधनों के अभाव में फिलहाल संभव नजर नहीं आ रहा है। बाजारीकरण, उदारीकरण और भूमंडलीकरण उदय के बीस बरस बाद शिक्षा के अधिकार कानून का आना केवल एक संयोग भर नहीं है। दरअसल इस कानून के जरिए शिक्षा के बाजार बन जाने की प्रक्रिया को संसदीय स्वीकार्यता के जरिए खुले बाजार के हाथों छोड़ देने के खेल को समझा जाना जरूरी है। इसके परिणाम फिलहाल तो नहीं, लेकिन अगले दस सालों में दिखाई देने लग जाएंगे।
शिक्षा की इन तस्वीरों को पिछले दिनों रूपहले परदे पर आई फिल्म 'पाठशाला ' से समझा जा सकता है। यह एक छोटी लेकिन बेहद महत्वपूर्ण फिल्म थी। हालांकि बिना किसी चर्चा के चली भी गई। महत्वपूर्ण इसलिए कि इसमें समाज के बेहद जरूरी विषय पर केन्द्रित किया गया था। सामयिक इसलिए क्योंकि शिक्षा के अधिकार ने कानूनी शक्ल अख्तियार कर ली और प्रासंगिक इसलिए क्योंकि पिछले दो दशकों  के दौरान स्कूली शिक्षा का चेहरा जन के बजाए धन की ओर हो गया है।
 अब शिक्षा एक सेवा नहीं निष्चित रूप से व्यवसाय में परिणित हो चुकी है और लगातार होती जा रही है। यह फिल्म शिक्षा के इसी बदलते स्वरूप को पेष करती आती है। यह स्कूल मैनेजर शर्मा और शिक्षा के पेशे  को सेवा मानने वाले शिक्षकों के द्वंद्व को शिद्दत  के साथ पेश  करती है। अब जबकि यह फिल्मी कहानी हर स्कूल-कॉलेज पर सटीक सिदृध होने जा रही है तब इसके पीछे के तस्वीरों को समझना जरूरी है, लेकिन अफसोस की बात तो यह है कि इसे लेकर पूरा समाज खामोश  बैठा है।

जिस देश  में निशुल्क  और अनिवार्य शिक्षा की बात हो रही है उसी देश  में नेषनल सेम्पल सर्वे आर्गनाइजेषन की रिपोर्ट के मुताबिक शिक्षा पर 58 हजार 170 करोड़ रूपए हर साल व्यय किया जा रहा है। मध्यप्रदेश  के शहरी क्षेत्रों में शिक्षा पर परिवारों का औसत व्यय रूपये 3911 व ग्रामीण क्षेत्रों में रूपये 837 प्रति बच्चा है। परन्तु  क्या गरीब अभिभावक वास्तव में शिक्षा पर उच्च निजी व्यय करने में समर्थ है। अर्जुन सेन गुप्ता रिपोर्ट के मुताबिक भारत की 77 प्रतिशत  जनता 20 रूपए प्रति दिन से भी कम में निर्वाह करती है। 

शिक्षा का अधिकार कानून लागू तो हो गया, लेकिन इसमें 6 से 14 साल तक के बच्चों की ही निशुल्क  और अनिवार्य शिक्षा की बात कही है। इस कानून के दायरे से शून्य से छह साल और चौदह से अठारह साल की आयु वाले बच्चे गायब हैं। जबकि हमारी ही सरकार ने इस स्वीकार्यता के साथ महत्वपूर्ण हस्ताक्षर किए हैं कि बच्चों की परिभाषा के दायरे में अठारह साल तक के बच्चे आते हैं। इसका सीधा आशय  यह है कि सरकार ने 14 साल के बाद अपनी जिम्मेदारियों से कदम पीछे खींच लिए हैं और शून्य से छह साल तक भी वह चुप ही रहना चाहती है, जबकि इस दौर में जबकि पालकों की बच्चों से अपेक्षाएं बेहद बढ़ चुकी हैं तब चार साल की आयु तक बच्चों का किसी न किसी स्कूल में दाखिला हो ही जाता है। कितने अफसोस की बात है कि हमारी सरकारें अब तक बच्चों की परिभाषा ही नहीं तय कर पाई हैं। एक देश के अंदर अलग-अलग कानून बच्चों को अलग-अलग उम्र के पैमाने पर तोलते हैं।

दरअसल यह अधिनियम शिक्षा के सरकारी ढांचों को जानबूझकर कमजोर करने की प्रक्रिया पर मोहर लगाता नजर आता है। जबकि सच्चाई यह है कि ऐसे सरकारी ढांचों की देश  में बड़ी जरूरत है। ब्रिटेन  जैसे पूंजीवादी देशों में  भी शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं से सरकार ने हाथ नहीं खींचे हैं। जबकि ब्रिटेन के नागरिकों की क्रयक्षमताएं हमसे कहीं ज्यादा हैं। लेकिन उस देश  में जहां की एक बड़ा तबका रोजी-रोटी के संघर्ष से जूझ रहा हो वहां कम से कम शिक्षा और स्वास्थ्य से सरकार को मुंह नहीं मोड़ना चाहिए।

जाहिर है इन लोगों की जिंदगी की पन्नों में रोटी, आवास, कपड़ा और चिकित्सा कहीं ज्यादा प्रमुख बाते हैं। इस स्थिति में शिक्षा एक कोने में दुबकी हुई नजर आती है। और जब इन बच्चों को निषुल्क और अनिवार्य षिक्षा का सपना दिखाया जाता है तो निश्चित  ही यह एक भ्रम की स्थिति लगती है।

इस कानून में गरीब बच्चों के लिए पच्चीस प्रतिशत  सीटों के आरक्षण का कागजी प्रावधान जमीनी सच्चाइयों के आसपास छिटकता भी नहीं दिखाई देता। पर्दे पर उतारी गई पाठशाला  में भी एक गरीब पिता की बेबसी और कक्षा में गंदे कपड़े, अनाकर्षक चेहरा की वजह से बहिष्कृत बच्चे की कहानी नजर आती है। मामला फिल्मी है तो हीरो महोदय अपनी जादुई छड़ी से बच्चे को मुख्यधारा में लाने का कमाल भी कर देते हैं, लेकिन असल में शिक्षा के अधिकार कानून के बाद शहर के हर फाइव स्टार सुविधा वाले स्कूल में ऐसा मास्टर मिल पाएगा यह संभव नहीं है। असल में तो मैनेजमेंट खुद भी ऐसे शिक्षकों को अपने स्टाफ रूम में बैठाना पसंद नहीं करेगा। तब इन गरीब बच्चों को अमीर बच्चों के साथ बैठकर पढ़ पाने की कागजी इबारत जमीन तक कैसे उतर पाएगी, समझ से परे है।
इस खतरनाक एजेंडे को समझना बेहद जरूरी है। सरकार हर क्षेत्र में पीपीपी मॉडल लागू करके अपने दायित्वों से मुक्ति पाने का मन बना चुकी है। राइट टू  एजूकेशन  बिल का सबसे गुप्त एजेंडा अगले तीस सालों में दिखाई देगा जबकि बेहद कीमती जमीन और सरकारी इमारतों को पीपीपी के तहत निजी क्षेत्र को सौंप दिया जाएगा। 

मप्र में तो इस कानून को जमीन पर उतार पाना खासा चुनौती भरा काम होगा। जिला शिक्षा और संचार ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक 2007-08 शिक्षा सत्र के मुकाबले अगले शिक्षा सत्र में छात्र-छात्राओं की उपस्थिति दर 94.3 से घटकर 75.4 प्रतिशत  पर आ गई। एक ही साल में बीस प्रतिशत तक की कमी आखिर किस तरफ इशारा  करती है। यह स्थिति तब है जबकि सर्व शिक्षा अभियान के माध्यम से सरकार ने स्कूली शिक्षा व्यवस्था में सुधार के लिए करोड़ों रूपए खर्च किए हैं। दूसरे मानकों पर भी मप्र की स्थिति अपने समकक्ष राज्यों से कहीं बदतर नजर आती है। आधारभूत सुविधाओं की रैंकिंग में भी राज्य पंद्रहवे स्थान से खिसककर 19वें स्थान पर जा पहुंचा है। प्रायमरी स्कूलों तक छात्रों की पहुंच की मामले में भी कोई सुधार नहीं हो सका और वह 13वें स्थान पर ही कायम था। दूसरा बड़ा सच यह है कि प्रदेश  के 17 प्रतिशत स्कूल एक मात्र शिक्षक के भरोसे चल रहे हैं और लगभग 47 प्रतिशत  स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग से टॉयलेट नहीं है। दिल्ली के 85 प्रतिशत  और केरल के 80 प्रतिशत  स्कूलों में कम्प्यूटर है और मप्र के 90 प्रतिशत स्कूलों ने कम्प्यूटर तक नहीं देखा है। इतने ही स्कूलों में बिजली भी नदारद है। इन आधारभूत सुविधाओं के अभाव में मध्यप्रदेष में प्राथमिक षिक्षा की तस्वीरों को समझा जा सकता है।



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