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लोकतंत्र का पहला पायदान

   पंचायत चुनाव सामने हैं। प्रक्रिया चल रही हैं। चौपालें जम रही हैं। राजनीति के दांव-पेंच नगरीय निकायों के बाद अब गांव की गलियों में दिखाई देने शुरू हो गए हैं। लोकतांत्रिक प्रक्रिया का यह सबसे लघु संस्करण् इसलिए भी दिलचस्प है क्योंकि एक-एक वोट की अपनी अहमियत है, सरोकार ज्यादा करीब से एक-दूसरे में गुथे हैं। सत्ता हासिल करने और नहीं करने देने की लड़ाई भी उतनी ही मुखर है। दिलचस्प इसलिए भी हैं क्योंकि पंचायतों ने राष्ट्रीय रोजगार गारंटी स्कीम के माध्यम से अब कहीं ज्यादा आर्थिक षक्ति भी हासिल की है। दिलचस्प इसलिए भी है क्योंकि इन चुनावों में महिलाओं को पचास फीसदी आरक्षण हासिल हुआ है। दिलचस्प इसलिए भी है क्योंकि पंचायत को संवैधानिक मान्यता मिलने के बाद पंचायती राज को अच्छे-बुरे दोनों तरह के अनुभवों का सामना करना पड़ा है, लेकिन सबसे महत्वपूर्ण इसलिए कि पंचायत ही वह शक्ति है जो किसी भी तरह की पूंजीवादी, साम्राज्यवादी शक्ति से अपने संसाधनों की रक्षा करने में आम लोगों को अधिकार प्रदान करती है।
मध्यप्रदेश प्रथम राज्य है जहाँ 73वें संविधान के पालन हेतु सबसे पहले नवीन पंचायती राज अधिनियम (30 दिसम्बर को विधानसभा द्वारा पारित एवं 24 जनवरी 1994 को राज्यपाल द्वारा अनुमति) पारित कर त्रिस्तरीय पंचायती राज की स्थापना की गई। 1994 में चुनाव कराकर प्रदेष में 30,922 ग्राम पंचायतों में 4,52,507 पंच, 30,922 सरपंच, 459 जनपद पंचायतों में 8,179 सदस्य 459 अध्यक्ष एवं उपाध्यक्ष और 45 जनपद पंचायतों में 946 सदस्य, 45 अध्यक्ष एवं उपाध्यक्षों का निर्वाचन कराया गया था। 22 जनवरी 2001 को मध्यप्रदेश राजपत्र में प्रकाशित म.प्र. विधानसभा द्वारा पारित 27 धाराओं वाला मध्यप्रदेश अधिनियम (क्रमांक-3 सन् 2001) सत्ता के विकेन्द्रीकरण की दिशा में एक महत्वपूर्ण पड़ाव कहा जा सकता है। इस अधिनियम अर्थात् मध्यप्रदेश पंचायत राज (संषोधन) अधिनियम 2001 ने प्रदेश के 1993 के अधिनियम के अभूतपूर्व प्रभावकारी संशोधन कर ग्राम पंचायत और ग्राम सभा के स्वरूप को परिवर्तित कर दिया है जिसका ग्राम प्रशाशन पर सकारात्मक, दीर्घकालीन और परिवर्तनकारी प्रभाव पड़ा है।
लोकतंत्र की सबसे छोटी और महत्वपूर्ण इकाई है पंचायत। यहीं से प्रारम्भ होती है लोकतंत्र की पहली सीढ़ी। वर्ष 1955 में पंचायतों की व्यवस्था की गई थी जो कई कारणों से असफल सिद्ध हुई। इसे पुन: एक बहुत बड़े अंतराल के बाद वर्ष 1993 में 73वें एवं 74वें संशोधन के तहत प्रक्रिया में लाया गया। मध्यप्रदेश में अभी तक हाशिये पर रही ग्रामीण महिलाओं को इसमें 33 प्रतिशत आरक्षण देकर उनके लिए मार्ग प्रशस्त किया गया था। इस उल्लेखनीय आरक्षण का परिणाम यह रहा कि देश भर की पंचायतों मे लगभग 1,63,000 महिलाएं विभिन्न पदों पर नियुक्त हुई तथा सरपंच के तौर पर लगभग 10,000 महिलाएं आगे आईं। एक पुरूष प्रधान समाज में इतना बड़ा कदम और फिर अच्छा परिणाम एक बारगी तो खुश होने के लिये पर्याप्त था, लेकिन बदलाव की इस प्रक्रिया में सिक्के का दूसरा पहलू भी विद्यमान रहा और प्रारंभिक दौर में कागजों पर आंकड़े और धरातल का व्यवहारिक सत्य, दोनों में ज़मीन-आसमान का अंतर पाया गया। लेकिन इसी क्रम में वर्तमान और तीसरी पारी में भी यह धारा सतत चलती रही प्रदेश भर की पंचायतों में पिछले चुनाव में 1,34,368 महिलाएं विभिन्न पदों पर जीतकर पहुंचीं तथा सरपंच के तौर पर लगभग 7707 महिलाएं चुनी गई थीं।
एक पुरूष प्रधान समाज में इतना अच्छा कदम और फिर इतने अच्छे परिणाम, समाज के भाल पर उन्नति का टीका लगा चुके हैं। तुलनात्मक रूप से कहा जा सकता है कि पहली पारी के बाद तीसरी पारी तक महिलाओं का वर्चस्व कागजों पर भी बढ़ा है। बारह-तेरह बरस के पंचायती राज ने महिलाओं के मामले में अब अपनी धार तेज भी कर ली है। पहले-पहल के पांच वर्षों में जहां कुछेक महिलाएं उभर कर सामने आईं थीं, जिन्होंने पुरूष सत्ता को नकारते हुए दबंगता से अपनी सत्ता संभाली थी और राज्य व राष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चित भी हुई थीं।
इस बार मप्र की 22 हजार 795 ग्राम पंचायतों में चुनाव हो रहे हैं। इसके साथ ही पचास जिला पंचायत और 313 जनपद पंचायतों में भी चुनाव होंगे। इनमें आधी जगहों पर महिलाएं लड़ाई लड़ेंगी। मप्र में यह पहला मौका है जबकि आधी सीटों पर महिलाएं सीधे तौर पर चुनौती देने वाली हैं। राष्ट्रीय रोजगार गारंटी स्कीम के माध्यम से हर साल ग्राम पंचायतों को एक बड़ा फंड मुहैया कराया जा रहा है। पहले जहां एक ब्लॉक में जितना बजट आता था उतना अब एक ग्राम सभा के पास है। ग्राम के विकास में और लोगों को रोजगार देने की दिशा में यह एक महत्वपूर्ण मामला है, लेकिन महिला नेतृत्व की दिशा में इसे दोनों तरह से देखा जाना चाहिए। यह भी सुनिष्चित किया जाना चाहिए कि इसी आर्थिक सत्ता को हासिल करने के लिए महिलाओं को दबंगों और समाज के द्वारा रबर स्टॉम्प की तरह ही तो नहीं इस्तेमाल किया जा रहा। इसके लिए जरूरी है कि प्रदेश में एक साफ-सुथरे माहौल में चुनाव हो पाएं। महिलाएं निर्भीक रूप से अपनी उम्मीदवारी जता सकें।

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