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रेत पर सफर

हर मौसम हंसी और हर सफर सुहाना नहीं होता। अखबार में पिछले चार दिनों में सड़क हादसों की चार बड़ी खबरें पढ़कर मन सफर की मुष्किलों पर बार-बार चला जाता है। भोपाल से मेरा षहर होषंगाबाद महज सत्तर किलोमीटर दूर है। साप्ताहिक अवकाष के दिन आसानी से घर जाया जा सकता है। रास्ते में विंध्याचल और सतपुड़ा की खूबसूरत पर्वतमालाओं से होकर गुजरना जरूर मन को प्रफुल्लित करने वाला होता है। इसी रास्ते पर प्रसिदध भीमबैठका है। कहते हैं पांडव ने अपने अज्ञातवास के सफर के दौरान बहुत समय तक इसी स्थान को अपना पड़ाव बनाया था। इसी सुहाने सफर में ऐसी कोई यात्रा नहीं होती जब तरह-तरह की मुद्राओं में लेटे अलग-अलग तरह के वाहन नजर नहीं आते हों। सत्तर किलोमीटर की लगभग दो घंटे की दूरी तय करने के कई साधन हैं। हर घंटे आधे घंटे में एक सरसराती एक्सप्रेस। चाहें तो 32 रूपए देकर इसमें सवार हो लें, धीमी गति की दो रेलगाड़ी जिन्हें हम पैसंेजर कहते हैं में इससे आधी रकम में फासला तय हो सकता है वहीं एक खास तरह और रूतबे की टेन में इसी दूरी के अठहत्तर रूप्ए देने पड़ेंगे, यह बात अलग है कि उसका नाम जनषताब्दी है। और यह बड़े शान से एक ही फेरा लेती है। समय खूब होता है तो हबीबगंज स्टेषन पर सुकून से नहाती-धोती भी है। इस सुहानी रोड पर कुछ समय पहले खास तरह की सरकारी बसें चला करती थीं। अब नहीं चलतीं। घाटे का सौदा बताकर पूरे निगम को बंद कर दिया गया। अब उसी निगम से अनुबंधित दर्जनों गैर-सरकारी बसें ठाठ से सड़क पर दौड़ रही हैं। सवारियां पहले भी थीं अब भी हैं, यह भी सोचने का विषय है कि अगर घाटे का सौदा ही होता तो अब तक तो बसें बंद ही होे जानीं चाहिए थीं। इस सफर के लिए चालीस रूपए का टिकट मिलता है। यदि सीट रिजर्व कर जाना हो तो कुछ टैक्सियां भी हैं। किराया इससे पांच रूपए कम। लेकिन चलेगी तभी जब सवारियां पूरी दसों आ जाएं। अब चाहे इंतजार पांच मिनट का हो या पिफर पच्चीस मिनट का। एक ओर सफर है रेत का सफर। नर्मदा का पानी भोपाल लाने में वर्षों घोषणाएं और चर्चा होती रही हैं। नर्मदा का पानी उन्हें तभी दिखता है जबकि वह अमावस्या को नर्मदा स्नान के लिए वहां जाते हों। भोपाल में इस योजना को अमली जाना पहनाने में सरकारें बहुत पसीना बहा चुकंीं। नर्मदा का पानी आए चाहे न आए लेकिन नर्मदा की थाती से रोज बीसियों टक रेत इस शहर के कांक्रीट के जंगलों को खड़ा करने के लिए लाई जाती है। खास बनावट वाले इन टकों पर भी हर एक सफर होता है। पंद्रह रूपए का सफर। रास्ते में यहां-वहां बिखरी रेत भी उन लोगों को उस खतरनाक सफर से नहीं डिगा पाती, क्यांेकि वह सफर उनकी मर्जी नहीं मजबूरी है। भले ही जिंदगी हाथों की अंगुलियों के बीच से फिसलती रेत की तरह ही क्यों ना फिसल जाए।

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