‘खबर देने के लिए खबर का सहारा लो और खबर पर अपनी ख्याल पेश करते हुए मन में किसी प्रकार का मलाल मत रखो।‘
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विल्हैम स्टीड
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चिन्मय मिश्र
विश्व प्रेस स्वतंत्रता दिवस बीत गया। रिपोर्ट्स ‘विदाउट बॉर्डर्स’ ने विश्व प्रेस
स्वतंत्रता सूचकांक 2023 जारी किया।
इसमें कुल 180 देशों की प्रेस
स्वतंत्रता का मूल्यांकन है और भारत को इसमें 161 वां स्थान मिला है। पिछले साल यह 150 वें स्थान पर था। इस रिपोर्ट का भारत में परमाणु विस्फोट
जैसा असर हुआ। इसकी ताप से भारत का कोना—कोना सुलग उठा और हमेशा की तरह सूचकांक पर
प्रश्न उठाए जाने लगे। मान लीजिए हम 161 की जगह 139 स्थान पर आ जाते
यानी 11 स्थानों पर पाकिस्तान
अफगानिस्तान और श्रीलंका से ऊपर। तो भी क्या हमारी मीडिया का चरित्र कुछ बदला हुआ
दिखाई देता? यह कोई ऐसा पैमाना भी
नहीं है कि जिस से पूरी तरह सहमत हो जाया जाए, लेकिन ऐसा भी नहीं है कि पूरी तरह से असहमति हो जाएं। एक
मामला तो विश्लेषण का है। सीधा सा सवाल यह है कि हम स्वयं अपने देश की प्रेस और
संपूर्ण मीडिया का मूल्यांकन किस तरह से करते हैं ? महात्मा गांधी को एक कविता की निम्न पंक्तियां बेहद पसंद
थीं और यह उनकी पत्रकारिता की नींव भी रही होगी,
शब्द का सही
उपयोग योग है,
और कल्याणकारी है
योग की तरह।
शब्द का गलत
उपयोग भोग है
और विनाशकारी है
भोग की तरह।
प्रेस की स्वतंत्रता को लेकर जो परस्पर विरोधी दावे सामने आ रहे हैं उनसे यह
तो स्पष्ट हो जाता है कि स्थितियां काफी जटिल हैं। प्रेस की स्वतंत्रता की डोर अब
किसके हाथ में है और कौन कठपुतली की तरह इस्तेमाल कर रहा है इससे जानना आवश्यक है।
अन्य देशों का तो पता नहीं परंतु भारत में प्रेस की स्वतंत्रता में सबसे बड़ा बाधक
है संस्थान का स्वामित्व। आज टीवी समाचार चैनल हो या अधिकांश समाचार पत्र इन का
स्वामित्व भारत के बड़े पूंजीपतियों के हाथ में है जो बड़े जो बड़े पैमाने पर
उद्योग धंधों में लगे हैं और लगे हाथों अखबार या टीवी चैनल आदि भी चला लेते हैं।
जैसे साबुन एक खतरनाक रासायनिक संयंत्र से निकले हानिकारक पदार्थ का उत्पाद होता
है लेकिन हमें लगता है कि वह हमारे शरीर की सफाई के लिए बहुत नफासत से तैयार किया
जाता है वस्तुत है तो वह बदबू को छुपाकर हमें सुगंधित मूल्य में में उपलब्ध करा
दिया जाता है। वर्तमान में ठीक यही स्थिति अधिकांश मीडिया या पीस उत्पादों की है।
समाचार माध्यम अब उत्पाद ही नहीं उत्पाद या बाय प्रोडक्ट भर रह गए हैं। एक
बड़े व्यापारिक घराने के महाकाय उद्योग या उद्यम पर सरकार का हस्तक्षेप जरूर है और
वह तो हर देश में प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रहता है, लेकिन इसके बावजूद वहां की प्रेस अपनी बात कह पाती है। भारत
में ऐसा नहीं है इसका नवीनतम उदाहरण एनडीटीवी है। अडानी समूह द्वारा उसके अधिग्रहण
के एक दिन पहले के कार्यक्रम
आपको उपलब्ध हो जाएंगे और एक दिन बाद के आप
अंतर समझ जाएंगे।
वह भी तब जब सरकार के हस्तक्षेप की स्थिति नहीं बनी है सिर्फ स्वामित्व बदला
है। और देश की सबसे विश्वसनीय में से एक
समाचार प्रदाता या न्यूज़ चैनल का चरित्र एकदम से विपरीत दिशा में घूम गया। इसलिए
भारत में प्रेस की स्वतंत्रता को पहुंच रही चोट वस्तुतः उस पर आक्रमण नहीं बल्कि
बिना लड़े आत्मसमर्पण कर देना है। क्योंकि
स्वामी के तमाम धंधे हैं जिनमें हवाई अड्डे रेल आधारभूत संरचना खनन टेक्सटाइल
संचार मोबाइल सेवाएं शामिल हैं। तो वे लोग अपने व्यवसाय के जैसे प्रेस का व्यवसाय
भी करने लगते हैं। शायद इसी स्थिति की कल्पना करते हुए अमेरिका में मीडिया मीडिया
संस्थानों को अन्य लाभ देने वाले व्यवसाय में प्रवेश की अनुमति नहीं है। खासकर
सीधे तौर पर परंतु हमारे यहां ऐसा नहीं है।
एक दूसरा कारण जो प्रेस
की स्वतंत्रता के लिए बेहद घातक सिद्ध हो रहा है वह है अखबारों का बहुत संस्करणीय
होना। तमाम राज्य तमाम संस्करण और सारा का सारा संपादकीय एक स्थान पर केंद्रित
होना। इस वजह से पत्रकारिता के माध्यम से स्थानीयता को कमोबेश नकारा और आंचलिक व
हिंदी में लिखने वाले अधिकांश लेखक दृश्य पटल से बाहर हो गए। स्थानीय समस्या अब
विचार का विषय नहीं रह गई और स्थानीय संपादक महज समाचार संकलनकर्ता भर रह गए।
इंदौर जैसे 30 35 लाख की आबादी
वाले शहर में निकलने वाले अखबारों के संपादकों को संपादकीय पृष्ठ पर 1 इंच भी अपनी मर्जी से छापने का अधिकार नहीं
है।
हम जब प्रेस की
स्वतंत्रता की बात करें तो पहले आवश्यक है कि अपनी ओर भी तो देखें। संपादक को अपने
ही पत्र में अपनी मर्जी या विवेक से विवेक से छापने की स्वतंत्रता नहीं है और अब
हम व्यापक प्रेस स्वतंत्रता की बात कैसे कर सकते हैं?
स्वतंत्रता दिवस पर एक
अखबार ने प्रेस की स्वतंत्रता के मद्देनजर जो छापा उस पर गौर करें तो उस बड़े पत्र
की असहायता ही नजर आएगी। यह अखबार जन सरोकारों की बेधड़क पत्रकारिता का दावा करता
है इसमें तीन महत्वपूर्ण राजनीतिक कार्टून छापे। यह तीनों बेहद महत्वपूर्ण हैं,
लेकिन आश्चर्यजनक यह है कि जो छपे हैं उनमें
अंतिम कार्टून सन 1990 का है। करीब 35 वर्ष पुराना। पिछले तीन दशकों में क्या कोई भी
ऐसा कार्टून नहीं छपा जो उल्लेखनीय हो ? इसी अंक में 6 बड़े घोटाले
छापे गए। इनमें छपा अंतिम घोटाला सन 2010 का था यानी करीब 13 साल पुराना।
दुखद यह है कि इसी समाचार पत्र में पिछले 33 वर्षों में कम से कम 330 बढ़िया राजनीतिक कार्टून तो छपे ही हैं। जहां तक घोटालों
की बात है किसी समाचार पत्र में 13 वर्षों में तमाम
घोटाले उजागर किए हैं, लेकिन अपने
उत्कृष्ट कार्य को भी दिखाने से परहेज किया। ऐसा क्यों ? क्या यह दबाव सिर्फ विज्ञापन ना मिलने से ही बनता है ?
ऐसा तो नहीं हो सकता यह
कैसा दबाव है जो अपने ही सद्कार्यों को संप्रेषित नहीं करने दे रहा! यह बात वहां
स्वतंत्रता से ज्यादा आंतरिक साहस पर निर्भर करती है। जाहिर है कि स्वतंत्रता एक
खतरनाक चीज है क्योंकि स्वतंत्रता की पहली और एकमात्र शर्त होती है अपने किए की
जिम्मेदारी उठाना और सही और गलत के लिए किसी और को दोष ना देना। इसलिए अधिकांश
मीडिया जो कॉर्पोरेट स्वामित्व में भी नहीं है वह स्वतंत्र होने से भी घबराता है।
प्रसिद्ध पत्रकार पी
साईंनाथ की नवीनतम पुस्तक है ‘लास्ट हीरोज’। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के गुमनाम
सेनानियों के साक्षात्कार पर आधारित है। इसमें 104 वर्षीय श्री अब स्वर्गीय एच. एस. दोराईस्वामी का अद्भुत
साक्षात्कार है। इसका शीर्षक है ‘एक समाचार पत्र’। अनेक नाम बेंगलुरु कर्नाटक में
रह रहे दोराईस्वामी कहते हैं ‘कलेक्टर ने इस बारे में पूछताछ नहीं की कि मैं इतनी
सारे समाचार पत्रों का रजिस्ट्रेशन क्यों करा रहा हूं? मुद्दा यह है कि जब भी एक शीर्षक को बंद कर देंगे तो मैं
दूसरा शीर्षक शुरू कर दूंगा तो जब उन्होंने ‘पूरावाणी’ को बंद किया तो मैंने ‘पूरा
वीरा’ शुरू कर दिया। उनके अनेक पंजीकृत शीर्षक ‘पूरा भास्कर’ और ‘पूरा मार्तंड’ यह
सभी कन्नड में थे। उनके तेवर आजादी के बाद भी बने रहे। दक्षिणपंथी विचारधारा के
लोग उनका घनघोर विरोध करते थे। वे उनके स्वतंत्रता सेनानी होने पर भी प्रश्नचिन्ह
लगाते थे। इस पर उन्होंने एक पुस्तिका छापी ‘एक गांधीवादी का गोडसेवादियों को
उत्तर।‘
पत्रकारिता की राह न कभी
आसान थी न है और ना होगी। यह तो तलवार को मूठ से नहीं नोक से नंगे हाथ पकड़ने का
जतन है परंतु आज इस में आ रही गिरावट का कारण सेंसरशिप या स्वतंत्रता का अभाव भर
नहीं है। व्यक्ति हर संकट से निकलने का रास्ता तो खोजता है।
भारत के अधिकांश मीडिया
ने इस गुलामी का वर्णन किया है। प्राथमिक तथ्य यह है कि आप संपादक को बहुत कुछ
करने की आवश्यकता ही नहीं पड़ती। दिल्ली में महिला पहलवानों द्वारा यौन अत्याचार
को दिया जा रहा धरना। ऐसे ही थोड़ी भाजपा विरुद्ध कांग्रेस या विपक्षी दल बना दिया
गया। पिछले 75 वर्षों में कभी भी
नाबालिग से कदाचरण के आरोपी के बड़े-बड़े साक्षात्कार कभी देखे सुने हैं। यह
स्थिति किसान आंदोलन के समय भी थी।
कॉर्पोरेट और
राजनीतिज्ञों के अपने हित हैं और जब भी समाचार माध्यमों के मालिक होंगे तो जाहिर
है कि उनके हितों का तो सर्वोच्च ध्यान रखना ही होगा। वहीं अपने समय में गांधी
कहते थे ‘हम इस बात का कोई यकीन नहीं दिला सकते कि अखबार नियमित रूप से निकलता
रहेगा क्योंकि संपादक के किसी भी क्षण गिरफ्तार हो जाने की संभावना है किंतु हम इस
बात की कोशिश जरूर करेंगे कि एक संपादक की गिरफ्तारी के बाद दूसरा इसकी जिम्मेदारी
लेता जाए। इसे हम यथासंभव तब तक चलाते रहेंगे जब तक रोलेट एक्ट वापस नहीं ले लिया
जाता।‘
इसी दौर में उत्तर प्रदेश
के एक अखबार के संपादक के दफ्तर में एक आटा चक्की रखी रहती थी। पूछने पर संपादक ने
बताया कि हर महीने संपादक गिरफ्तार हो जाते हैं उन्हें सजा के बतौर जेल में चक्की
भी चलानी पड़ती है, अतः अपने खाली समय में संपादक अपने दफ्तर में चक्की चलाने की
प्रैक्टिस करते रहते हैं। जाहिर है कि किसी भी व्यवसाय की मूल नियम कभी भी नहीं
बदलते इसलिए भी आज भी वही है जो तब थे जब पत्रकारिता शुरू हुई होगी । यह मूलतः
मिशन ही रहेगी। कभी भी व्यवसायिक नहीं होगी और व्यवसायिक होते ही यह विज्ञापन में
बदल जाएगी।
यानिस रित्सोत की एक छोटी
सी कविता है
यह उबकाई कोई
बीमारी नहीं
यह जवाब है।
आज मीडिया प्रेस को देखने
सुनने या पढ़ने के बाद जो अनुभूति हो रही है उपरोक्त पंक्तियां उसे ठीक ठीक वर्णित
कर रही है। यह कहा जाता है कि हमने इसमें बड़ी मात्रा में धन का निवेश किया है। तो
क्या या निवेश लाभदायक बनाने के लिए सांप्रदायिक सद्भाव की भी बलि चढ़ाई जा सकती
है? क्या सामाजिक हित की
अवहेलना की जा सकती हैं
गांधी समझाते हैं ‘मैं
अर्थविद्या और नीति विद्या में कोई भेद नहीं करता जिस अर्थविद्या से व्यक्ति यारा
की नैतिक कल्याण को हानि पहुंचती हो उसी में आनी थी मैं और पाऊंगा उसे मैं अनीतिमय
और पापपूर्ण कहूंगा।‘ भारत का अधिकांश मीडिया आज अफीम की तरह नशा फैला रहा है।
रिपोर्ट् ‘विदाउट बॉर्डर्स’ भी भारतीय मीडिया की नब्ज को बहुत वैज्ञानिकता के साथ
पकड़ा है और उसमें व्याप्त बीमारी को सही व्याख्यितय भी किया है। याद रखिए वर्तमान
सरकार के साथ जिन बड़े उद्योगपतियों की मित्रता है भारत का अधिकांश इलेक्ट्रॉनिक
मीडिया उन्हीं के हाथ में है। प्रिंट मीडिया में भी अधिकांशत् बहुत तरह के व्यवसाय
करने वाले हैं अतः वहां पर स्थितियां बहुत अनुकूल नहीं है।
डिजिटल मीडिया में अभी
हिम्मत और दोनों ही दिखाई रहा है। इसी वजह से सरकार उस पर लगातार अंकुश लगाने की
कोशिश कर रही है। बंबई उच्च न्यायालय ने अभी जुलाई तक इस नए नियमों को लागू करने
से रोका है। इसलिए इस वक्त जो वास्तविक रूप से खतरा है वह डिजिटल या सोशल मीडिया
को है।इसमें भी जो उद्योगपति मीडिया के विस्तार हैं वे तो वही परोस रहे हैं जो मुख्यधारा
में दिखा रहे हैं।
आवश्यकता इस बात की है कि
प्रेस की स्वतंत्रता को नष्ट करने वाले तत्वों को ठीक से पहचाना जाए। सरकारी दबाव
एक कारण जरूर है पर वह एकमात्र कारण नहीं है। अन्यथा डिजिटल मीडिया भी खुलकर बात
नहीं कर पाता भारत के अधिकांश मीडिया ने स्वयं ही जंजीरे पहनी है। बास्तील की जेल
के कैदियों की तरह जिन्हें स्वतंत्र हो जाने के बावजूद भी नींद नहीं आती थी
क्योंकि वह अपनी जंजीरों की आवाज के आदी हो चुके थे। भारतीय मीडिया को स्वनिर्मित
बास्तील से बाहर आना होगा और रोकना होगा।
अंत में नरेश सक्सेना की
लंबी कविता ‘गिरना’ की इन पंक्तियों पर गौर करो
गिरो प्यासी हलक में ही
एक घूंट की तरह/ गिरो एक आंसू की एक बूंद की तरह/ किसी के दुख में/ गेंद की तरह
गिरो/ खेलते बच्चों के बीच/ गिरो पतझड़ की पहली पाती की तरह/ एक कोंपल के लिए जगह
खाली करते हुए/ गाते हुए ऋतु का गीत’ कि जहां पत्तियां नहीं झडती, वहां वसंत नहीं
आता. गिरो पहली ईंट की तरह नींव में/ किसी
का घर बनाते हुए.”
याद रखिए स्वतंत्रता
हमेशा हर जगह मौजूद रहती है सिर्फ उसे अपनाने का साहस दिखाना होता है।
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