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बाय लाइन में ‘मां’ !

 

रविवार सुबह अखबार खोला तो अखबार में रिपोर्टर्स के नाम के साथ उनकी मां के नाम भी नजर आए. ‘मदर्स डे’ पर बायलाइन में मां का नाम जोड़कर सम्मान देने वाला यह अभिनव प्रयोग था. (जो खबरें अखबार में एक्स्क्लूसिव होती हैं, जिनमें संपादकीय टीम विशेष मेहनत करके प्रकाशित करती है, उन खबरों को करने वाली साथी के नाम से दिया जाता है, उसे बायलाइन कहते हैं. यह एक रिपोर्टर के लिए सबसे बड़ी पूंजी होती है, जिसके लिए वह कड़ी मेहनत करता है.) सोशल मीडिया पर इस प्रयोग को लेकर बहुत तारीफें भी नजर आईं, तो कुछ सवाल भी तैरते मिले कि यह कैसा अजीब प्रयोग है और कितना उचित है?

नाम पहचान से जुड़ा मसला है और हम जानते हैं कि अपना नाम करने, नाम बनाए रखने, नाम को आगे रखने के लिए क्या—क्या जतन किए जाते हैं ? और यह केवल आज की बात तो नहीं है. अपना नाम कमाने की दौड़ ऐतिहासिक है, इस दौड़ में हर कोई शामिल रहा है. नाम बनता भी है, लेकिन कई नाम उपेक्षित भी रह जाते हैं, उस बारे में हम कभी सोच नहीं पाते. कहानियों के पीछे छुपी हुई कितनी कहानियां होती हैं, जो अनकही ही रह जाती हैं. अख़बार में छपी खबरों पर भी तो एक टीम मेहनत करके सजाती—संवारती है, लेकिन वह टीम घर की मां की तरह उपेक्षित रह जाती है, नाम तो रिपोर्टर का ही होता है, खैर.

आ गए न विषय पर,  तो मसला यह है कि जब मां के बारे में सोचते हैं तो वह भी तो हमेशा ही इस उपेक्षा का शिकार लगती है. सुबह घर में सबसे पहले जागने से लेकर बर्तन निपटा कर सोने तक सबसे ज्यादा काम तो उसी के हिस्से है, भरोसा न हो तो एक दिन घर का हिसाब बना डालिएगा. और यह कितनी आसानी से कहा जाता है कि घर चलाने वाला तो एक मर्द है. डाकिया उसी के नाम से तो घर चिट्ठियां लाता है, औरत का नाम लिख दें तो ख़त पहुंचे ही नहीं, मकान मर्द के नाम पर, जमीन मर्द के नाम पर, कार बच्चों के पापा के नाम पर, बच्चों की पहचान उसी के नाम पर. क्या मां ने निभाई नहीं अपनी भूमिका. फिर मां का नाम गया कहां? सोचिए.

कितनी आसानी से कह दिया गया कि औरत तो हाउसवाइफ है, वह कुछ नहीं करती. कुछ नहीं करती तो बच्चों को पाला किसने, आधा घर चलाया किसने, सोचिए, क्या बराबरी से नाम दिया उसको. और अगर देते तो फिर यह सब प्रपंच रचने ही क्यों पड़ते? क्यों एक के बाद एक प्रावधान करने पड़ते कि आधी आबादी को उसका हक दो, मां भी तो इसमें शामिल है.

तो यदि अखबार में एक दिन ही सही अगर कोई पहचाना जा रहा है अपनी मां के नाम के साथ तो अच्छी बात है न. अजीब ही तो लगेगा, ओवर भी लग सकता है, लेकिन इसमें बुरा क्या है? उन दो चार दस रिपोर्टर्स के परिवार के लिए तो आज खुशी की बात होगी. यह स्वीकारोक्ति है एक दुनिया बनाने में उसकी हिस्सेदारी की, जिसे हमेशा से हर दायरे में उपेक्षित किया गया.

 यह जरूर है कि हमारे समाज में दिनोंदिन बिखरते इस मां शब्द को और खूबसूरत बनाया जाए. विकास के जिन मॉडल पर हम चल रहे हैं उसमें खतरे बड़े हैं, रिश्ते खतरे में हैं, संवाद खतरे में है, और अंत में प्रेम खतरे में है. पर एक रोशनी है कि मां शब्द को बचाए रखेंगे तो तय मानिए घर में प्रेम बना रहेगा, जिन घर मातृत्व से वंचित हो जाता है, समझिए वहां चुनौतियां बहुत ज्यादा हैं.

तो बंधुओं, सीखिए इस मातृत्व को. यह पवित्र भाव भाव स्त्रीलिंग में ही बंधा हो यह भी जरूरी नहीं. यह होता है सभी में, कम-ज्यादा. इस पवित्र भाव को अपने अंदर और विशाल कीजिए क्योंकि यही वह भाव है जो खुद को हर तरह के सुख से वंचित करके भी अपनों के लिए समर्पित हो सकता है.

दरअसल मां अपने पूरे जीवन में कुछ जीवन मूल्यों की ही तो रचना करती है. बात बंधुत्व की हो, करूणा की हो, दया की हो, ममता की हो, सहनशीलता की हो, समता और समानता की हो. असल में तो हम इन्हीं गुणों के कारण उसे यह दर्जा देते हैं कि ‘उसके जैसा कोई नहीं है.‘

यकीन मानिये इस दुनिया को मां के हाथों में सौंप दिया गया होता तो इतनी हिंसा, नफरत, झूठ और कट्टरता की जगह दुनिया में नहीं होती, हथियारों के कारखाने आबाद न होते, चिमनी की रौशनी तले भी वह हर बच्चा ढंग से पढ़-लिख रहा होता, दिनों दिन फैलता रेगिस्तान नहीं होता, पौधे लगे होते और खिल रही होती इंसानियत दुनिया के हर कोने में. इस दुनिया को निश्छल प्रेम से सराबोर करने की भावना रखने वाले हर ममत्व को मेरा सादर नमन.

- राकेश कुमार मालवीय

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