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सरकारी स्कूल के विद्यार्थियों के आरक्षण से उठते सवाल?

 देश में अब तक जातिगत आरक्षण, आर्थिक आरक्षण (reservation) की बात होती रही है, लेकिन पहली दफा ऐसा हो रहा है जब सरकारी स्कूलों में पढ़े विद्यार्थियों के लिए आरक्षण किया जा रहा हो. देश का दिल मध्यप्रदेश (madhyapradesh) ऐसे कई निर्णय लेकर जनता को चौंकाने वाला काम करता है. पंचायत राज को लागू करना, फिर पंचायती राज में महिलाओं को पचास फीसदी आरक्षण, बलात्कारियों को फांसी की सजा का प्रावधान. अब अपने यहां की चिकित्सा शिक्षा में पांच फीसदी आरक्षण का नोटिफिकेशन जारी करके देश में पहली बार वाली उपलब्धियों की इस सूची को और बढ़ा कर दिया है. बहरहाल जो स्थिति बन गई है उसमें यह फैसला अच्छा भी कहा जा सकता है, पर इससे भी अधिक चिंता की बात यह है कि ऐसा करना क्यों पड़ा ?

पहले जान लेते हैं कि मामला क्या है. मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान (Shivraj Singh Chouhan) ने इसी साल 14 मार्च को यह घोषणा की थी कि मध्यप्रदेश के सरकारी और गैर सरकारी चिकित्सा शिक्षा में सरकारी स्कूल के विद्यार्थियों को पांच फीसदी सीटों पर आरक्षण दिया जाएगा. घोषणा पर अमल करते हुए सरकार ने इस फैसले पर नोटिफिकेशन भी जारी कर दिया है. इसके मुताबिक कक्षा 12वीं तक पढ़ाई किए हुए विद्यार्थियों को एमबीबीएस (MBBS) और डेंटल (BDS) की सीटों पर आरक्षण का लाभ मिल सकेगा. मध्यप्रदेश में हर साल 76 हजार से ज्यादा विद्यार्थी दाखिले के लिए नीट में बैठते हैं. प्रदेश में 2023 में एमबीबीएस की 4180 और बीडीएस की 1285 सीटें हैं.

एक नजर में यह फैसला ठीक लगता है कि सरकारी स्कूलों में पढ़े हुए विद्यार्थियों को यह विशेष लाभ मिल सकेगा, लेकिन इससे बड़ा सवाल यह उभरकर आ रहा है कि क्या अब सरकारी स्कूलों की हालत इतनी ज्यादा खराब हो गई है कि आरक्षण की जरूरत पड़ने लगी है. आरक्षण की अवधारणा अब तक ऐसे लोगों के लिए रही है जो समाज की मुख्यधारा में शामिल नहीं रहे हैं. दलित, आदिवासी, पिछड़ा वर्ग और अन्य वंचित या हाशिए के समाज को कई विशेष श्रेणियों में आरक्षण का लाभ दिया जाता रहा है ताकि उन्हें विशेष अवसर मिल पाएं और वह समाज की मुख्यधारा में शामिल हो सकें. आर्थिक आधार पर भी आरक्षण की मांग इसी मकसद से की जा रही है चाहे वह किसी भी जाति या धर्म से आते हों, लेकिन आरक्षण की यह श्रेणी एकदम नई और चौंकाने वाली है. यह देश की सार्वजनिक शिक्षा पद्धति पर सबसे बड़ा सवाल भी खड़ा करती है.

अभी वह समय बहुत नहीं बीता है जहां कि समाज के सभी तबकों के नेतृत्वकर्ता जैसे वैज्ञानिक, शिक्षक, राजनेता, अधिकारी, पत्रकार, बुदिजीवी सरकारी स्कूलों से ही आते थे. आजादी के बाद से ही शिक्षा, स्वास्थ्य और बुनियादी सुविधाओं पर सरकार ने भरपूर निवेश करके जनकल्याणकारी राज्य की अवधारणा को मजबूत किया और उन मजबूत इरादों से ही देश इतना आगे बढ़ पाया. यह भी हमने पिछले दस—बीस सालों में देख लिया है कि कैसे निजीकरण देश पर हावी होते चला गया है और अब तो समाज में यह मजबूत नैरेटिव बन गया या बना दिया गया है कि अच्छी शिक्षा और स्वास्थ्य का मतलब तो तथाकथित प्राइवेट मॉडल ही है. अच्छी शिक्षा है तो केवल प्राइवेट स्कूलों में, अच्छा इलाज है तो प्राइवेट अस्पताल में. इस नैरेटिव ने बची हुई संभावनाओं को भी वेंटिलेटर पर पहुंचा दिया गया है, और अब वह इस हालत में पहुंच गया है कि सरकारी स्कूल के विदयार्थियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था करनी पड़ रही है. यह बहुत अच्छी बात है कि ऐसा सोचा जा रहा है और प्रावधान भी किया जा रहा है, लेकिन इसके साथ ही इस बात पर भी सोचा जाए कि कैसे इस बीमार पड़ी हुई व्यवस्था को ठीक किया जाए.

इसके लिए जरूरी होगा कि जिस तरह से एक प्राइवेट कंपनी, फर्म या व्यक्ति अपने किसी उपक्रम की जिम्मेदारी को ओढ़ता है, वैसा ही रवैया सरकार का, सरकारी मशीनरी का हो, लेकिन ऐसा हो कहां पाता है? यह भावना दूर—दूर तक दिखाई नहीं देती है, और उसका नतीजा यह होता है कि सब कुछ बहुत आसानी से सरकार के हाथ से निकालकर उसे निजी हाथों में सौंपते जाते हैं. ऐसे सेक्टर भी जहां पर थोड़ी कोशिशों से उसे ठीक ठाक तरीके से चलाया जा सकता है. और चलाना इसलिए जरूरी है क्योंकि वही एक साधन अब भी उस देश की सबसे बड़ी जरूरत है ​जहां कि अस्सी करोड़ लोगों को सरकार सरकारी राशन बांटती है, यानी कि वह गरीब वर्ग में आते हैं.

इस प्रावधान से यह संभावना बनेगी कि गरीब वर्ग का सरकारी स्कूल में पढ़ा हुआ विद्यार्थी भी डॉक्टर बनने के सपने संजो सकेगा. पर इसके लिए यह भी जरूरी है कि सरकारी शिक्षा व्यवस्था को कैसे और मजबूत बनाया जा सके, जिससे कि और बच्चों की आंखों में भी यह सपना समान रूप से तैर सके. जरूरी होगा कि सार्वजनिक शिक्षा की गुणवत्ता के लिए श्रम और संसाधनों का और निवेश किया जा सके. इसके लिए असर (ASER) की रिपोर्ट देखना बेहतर होगा जिसमें सरकारी स्कूलों के न केवल आधारभूत सुविधाओं में बल्कि शैक्षणिक गुणवत्ता में भी बेहद कमजोर मानक आते हैं.

राकेश कुमार मालवीय



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