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उनके जाने से समझ आया ‘अपूरणीय क्षति’ का मतलब

 एक बेहतरीन शिक्षक थे गिजुभाई बधेका। शिक्षण कैसा होनी चाहिए, मजे—मजे में बच्चों को कैसे पढ़ाया जाए, शिक्षा बोझ नहीं लगे, बच्चों के सपने दम न तोड़ें, वह अपनी सोच के मुताबिक अपना जीवन बना सकें,  गिजुभाई का मानना, सोचना  और करना इसी अवधारणा पर आधारित था, जिसे बहुत मान्यता मिली। उनकी तमाम किताबों को पढ़कर यह समझा जा सकता मजे—मजे में शिक्षा केवल सैद्धांतिक बात नहीं है। हर एक की जिंदगी में ऐसे शिक्षक होते हैं।



..लेकिन जब हजारों बच्चों की जिंदगी में एक ही शिक्षक हो,  बार—बार हो, यह कह पाना मुश्किल हो कि किसके लिए उसका महत्व कम है या ज्यादा है, या वह किसे कम-ज्यादा स्नेह करता है, यह तय कर पाना मुश्किल हो, पढ़ाई पूरी हो जाने के बाद भी सम्बन्ध स्थायी हो जाता हो,  तो ऐसा शख्स निश्चित ही स्वयं को अपने समय से अधिक मूल्यवान बना लेता है। गिजुभाई को अपने अद्भुत शिक्षकत्व के कारण मूंछों वाली मां कहा गया। यहां मैं जिनकी बात कर रहा हूं उन्हें तमाम विद्यार्थी ‘बाबा’ कहकर भी संबोधित करते रहे हों, पर मैं उन्हें ‘दाढ़ी वाली मां’ कहूंगा, क्योंकि ऐसा अद्भुत स्नेह, परवरिश और शिक्षा केवल ‘मां’ ही दे सकती है। इस बात की तस्दीक मैं अकेला नहीं, वह सैकड़ों विद्यार्थी कर सकते हैं, जो इस समय उनकी बेवक्त रुखसती पर स्तब्ध और गमजदा हैं!

पुष्पेन्द्र पाल सिंह। यही नाम था उस अध्यापक का। लंबा चौड़ा शरीर, चौड़ा माथा, जोरदार हंसी और हर एक पर नजर जहां उन्हें भीड़ में भी अलग बना देते थे,  वहीं गजब का जनसंपर्क, जोरदार स्मृति, पेशेवर जानकारियां और ज्ञान और अपने हाथ में लिए कामों को शत प्रतिशत सटीकता और शुद्धता से करने का जज्बा उनके व्यक्त्तिव की वह खूबसूरती हैं, जिसे हर कोई पाना चाहता है। यदि उन्हें इस दौर की एक ‘सामाजिक संपदा’ भी कहा जाए तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी। लोग उन्हें व्यक्तित्व के कई आयामों के कारण पूरे दिल से यादकरते हुए अपनी निजी क्षति मान रहे हैं, लेकिन तमाम विश्वविद्यालयों में शैक्षिणक गुणवत्ता के पतन वाले दौर में एक अध्यापक के रूप में जो योगदान दिया, उसे सदैव याद रखा जाएगा।

पीपी सिंह माखनलाल चतुर्वेदी राष्ट्रीय पत्रकारिता विवि से तब जुड़े जब एक नई शताब्दी दस्तक दे रही थी, पहले कुछ साल दिल्ली और फिर भोपाल कैम्पस। पहले मीडिया शिक्षक के रूप में और फिर पत्रकारिता विभाग के अध्यक्ष के रूप में पदभार संभाला। उन्हें पता था कि पत्रकारिता केवल किताबें पढ़कर नहीं की जा सकती, असली चुनौती यह है कि कैसे छात्रों को न्यूज रूम की हर विधा के लिए  व्यावहारिक रूप से तैयार किया जाए। पेशेवर पत्रकार तैयार हों उसके लिए जरूरी है कि ज्ञान और कौशल को प्राप्त करने की तमाम खिड़कियों को खोला जा सके।  

उन्होंने किताबों के अलावा ऐसी तमाम शख्सियतों से मिलने के मौके बनाए,  कई कई घंटों की अतिरिक्त कक्षाएं करवाईं,  कम्यूटर लैब के जरिए छात्रों को यह सिखाने की शुरुआत की कैसे कोई अखबार निकलता है ? हम लोगों ने उनके मार्गदर्शन में एक साप्ताहिक समाचार पत्र ‘विकल्प’ की शुरुआत की, जिसमें रिपोर्टिंग से लेकर, ले आउट डिजाइन, संपादन आदि का जिम्मा भी खुद ही निभाते थे, हर सप्ताह एक नया संपादक मंडल इस मशाल को जलाए रखता था, पत्रकारिता विभाग के लैब से रात रात भर काम करके सालों—साल वह अखबार निकलता रहा, और कई मौकों पर तो उसे तैयार करके बकायदा प्रेस पर भी छापे जाने लगा। अपनी यात्रा के कुछ ही सालों में यह विभाग किताबी शिक्षा और व्यावहारिक कौशल का एक अद्भुत संगम बन गया, जहां से ​विभिन्न मीडिया संस्थान के लोग विद्यार्थियों को हाथों—हाथ लेने लगे।

2002 के जिस साल में मैं विवि में दाखिल होने के लिए प्रवेश परीक्षा देने आया था उस वक्त के विद्यार्थी परीक्षा केन्द्र के सामने प्लेसमेंट नहीं होने पर जूता पॉलिश करके विरोध प्रदर्शन कर रहे थे, लेकिन कुछ ही सालों में मैंने खुद देखा कि विद्यार्थियों को बेहतरीन जगहों पर नौकरियां मिल रही थीं, पीपी सिंह होते थे तो विद्यार्थियों को यह यकीन होता था कि उन्हें कोई न कोई नौकरी तो मिल ही जाएगी, निश्चित तौर पर इसके लिए क्लासरूम से ज्यादा बाहर भी सक्रिय होना होता था और उसमें पीपी सिंह सबसे आगे होते थे और ऐसा भी नहीं था ​वह किसी एक विभाग के छात्रों के लिए ही सक्रिय हों, उनसे मिलने वाला हर विद्यार्थी उन्हें अपना मानने लगता था, यह उनके व्यक्तित्व का एक बढ़ा दायरा था। यह प्रेम केवल नौकरी लगा देने के कारण हो, यह समझना उनके जीवन मूल्यों को एक संकुचित दायरे में देखने जैसा होगा, नौकरियां तो प्लेसमेंट एजेंसी भी लगती हैं, पर लोग उन्हें तो यूँ सम्मान नहीं देते !

दरअसल पीपी सिंह क्लासरूम के बाहर की दुनिया को देखने समझने के मौके भी खूब देते। असहमतियों का खूब सम्मान करते, गजब बात यह है कि अपनी समाजवादी विचारधारा को कभी क्लासरूम पर हावी नहीं होने दिया और हमें एक छात्र के रूप में तमाम विचारधारों से सीधे परिचय कराया। हमारी क्लास को अनिल माधव दवे से लेकर रघु ठाकुर, विजय बहादुर सिंह जैसी हस्तियों ने संबोधित किया। वह अपने संपर्कों से यह कमाल कर पाते थे  

वह यह भी बखूबी समझते कि किस छात्र की क्या खासियत है, उसके व्यक्तित्व के अनुकूल उसको कैसे आगे बढ़ाना है और उसे उस तरह के मौके मुहैया करवाते। उनकी क्लास का विस्तार काले कलर की टीवीएस बाइक पर से होते हुए फिर काले कलर की ही मारुति 800 के आसपास घंटों होते हुए देखा। जिसमें इतिहास, राजनीति, खेल, समसामयिक घटनाएं और विद्यार्थियों से जुड़े जीवन की घटनाओं पर भी उतनी ही होतीं, कई बार तो इस बात पर भी आश्चर्य होता कि उन्हें उन सब छुपी हुई घटनाओं का भी कैसे और कब पता चल जाता था जिनके बारे में केवल करने वालों को ही भनक होती थी, बावजूद इसके उन्होंने हर एक की गरिमा को भी खूब बनाए रखा। शायद ही ऐसा कोई विद्यार्थी होगा जिसने उनकी किसी बात पर डांट का भी बुरा माना हो। और बाद में जब वह जनसंपर्क विभाग चले गए तब भी उनका एक समानांतर क्लासरूम वहां भी चलता ही रहा। इससे पहले शायद ही माध्यम नमक उनके दफ्तर में इतने विद्यार्थी की आमद होती होगी।

इतिहास की कई महान शख्सियतों को छोटी उम्र ही नसीब हुई, पीपी सिंह को भी 53 बरस ही मिले, पर उनकी सक्रियता ने अनगिनत जिंद​गियों को बनाया। छोटी उम्र के बावजूद वह खूब जीये, हर एक विद्यार्थी को तमाम मौकों पर बस एक ही आशीर्वाद होता जीयो। कोई व्यक्त्वि मूल्यों से बनता है, उनके जीवन मूल्य हमेशा समाज को बेहतर बनाने के लिए रहे, इसे उन्होंने अपने हजारों विद्यार्थियों के मार्फत आगे बढ़ाया, इसलिए पीपी सिंह का जाना केवल परिवार ही नहीं विस्तारित परिवार के लिए भी उतना ही खालीपन लिए होगा। ऐसा लगता है कि वह एक यात्रा को अधूरी ही छोड़कर चले गए, क्यों?

कुछ सालों से वह अपनी प्रकृति के विरूद्ध काम कर रहे थे। वह पत्रकारिता के अध्यापक थे, हमने उन्हें हमेशा पत्रकारिता और सामाजिक सरोकारों पर विमर्श करते हुए देखा। वक्त और परिस्थितियों ने उन्हें जनसंपर्क के काम में लगा दिया। यह बेमन से किया जा रहा काम था, उनके मूल स्वरूप से भिन्न काम था, पर हमने देखा है कि कैसे उस काम में भी घुसकर उसे श्रेष्ठता से पूरा करते गए और केवल अपने काम से ‘माध्यम’ में भी अच्छी पैठ बना ली, जो कई कारणों से उनके अनूकुल भी नहीं लगता था। इतना ईमानदार, हर काम को इतनी लगन और श्रेष्ठता से करने वाला ऐसा साथी खोकर प्रशासन भी दुखी है।

हालांकि सबक तो यह होना चाहिए कि जो व्यक्तित्व जिस काम के लिए बना हो उससे वही काम करवाया जाए, लेकिन हमारे समाज में ऐसा होता कहां है? छोटी—छोटी बातें समाज का बड़ा नुकसान करवाती हैं। पीपी सिंह के जाने के बाद हमने यह महसूस किया है कि अपूरणीय क्षति क्या होती है?

- राकेश कुमार मालवीय


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