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'0' Discrimination Day : क्या भेदभाव मुक्त भारत संभव है ?

 आज एक मार्च को पूरी दुनिया ​‘जीरो डिस्क्रिमनेशन डे’ यानी किसी भी तरह के भेदभाव से मुक्त दुनिया का दिवस मना रही है। इस दिन यही आशा की जा सकती है कि ऐसी दुनिया बने जिसमें किसी भी तरह का भेदभाव या शोषण नहीं हो, विविधता का सम्मान हो, सभी तरह की बराबरी को महत्व मिले, लैं​गिक,, उम्र, सेक्स, धर्म, जाति, आर्थिक या ऐसे किसी भी आधार पर किसी भी व्यक्ति के साथ भेदभाव न हो। यूनाइटेड नेशन ने 2013 में 1 मार्च को इस दिन की शुरुआत की थी। इस साल इस दिन की थीम है सभी तरह की गैरबराबरी को खत्म करना।

भारत के संदर्भ में यह बात बेहद कठिन है। भारत एक विविधता वाला देश है और यहां पर भेदभाव में भी इतनी विविधता है कि इस पर पार पाना आज भी बहुत ही कठिन लगता है। जाति के आधार पर, लिंग के आधार पर, आर्थिक आधार पर, उम्र के आधार पर और अन्य आधारों पर भी भेदभाव कम होनी की जगह बढ़ता ही दिखाई देता है। जाति के आधार पर देखेंगे तो पहले केवल एक जाति के आधार पर हमें भेदभाव दिखाई देता था क्योंकि जातीय व्यवस्थाओं में स्वयं को उच्च और तुच्छ मानने—समझने का एक भयावह नजरिया रहा है। यह नजरिया घटा तो नहीं बल्कि इतना अधिक बढ़ गया कि अब जातियों के अंदर भी गुटबंदियां नजर आती हैं।

संविधान का अनुच्छेद 17 के जरिए हमने भारतीय समाज से छुआछूत को दूर करने की भरसक कोशिश की, यह कहा गया कि प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है कि वह यह सुनिश्चित करे कि किसी बी रूप में अश्प्रश्यता का व्यवहार न हो। पर इसके नए नए आयाम नजर आने लगे !

अखबारों के मेट्रोमोनियल के पन्नों पर हमें इसकी बानगी दिखाई देती है, एक ही जाति का व्यक्ति अपनी ही जाति के लोगों को स्वीकार नहीं कर रहा है, जातियों में भी कई कई जातियां हैं जो अब पहले से अधिक फल—फूल रही हैं। कमाल की बात यह भी है कि जातियों में भी जब आर्थिक संपन्नता आ जाती है तो पिछड़ी समझे जाने वाले व्यक्ति को भी बराबर का सम्मान मिलने लगता है, लेकिन यदि आर्थिक रूप से कमजोर व्यक्ति तथाकथित उच्च वर्ण का है तो भी उसके साथ भेदभाव हो ही जाता है, दिनों दिन क्लिष्ट होते जाते ऐसे समाज में क्या जीरो डिस्क्रिमिनेशन डे कुछ खास असर दिखा पाएगा ?

लैंगिक भेदभाव तो खैर किसी से छुपा ही नहीं है। पितृसत्ता तकरीबन हर घर में इतनी मजबूती से भारतीय समाज में अपने पैर जमाए है कि जाने का नाम ही नहीं लेती। पारलिंगी समाज के लोगों के साथ भेदभाव को साक्षात देखा जा सकता है, लेकिन घरों में हो रहे भेदभाव को परदे के पीछे छुपाए रखने में हमारा समाज बहुत ही माहिर है। हम भले ही लड़कियों के चांद पर पहुंचने, क्रिकेट खेलने या नौकरी पर जाता देखते हुए तसल्ली कर लें, लेकिन इनके साथ भी भेदभाव की परतें बहुत महीन हैं। और सभी की किस्मत में यह है भी नहीं, आज भी ​ज्यादातर परिवारों में घर की बहुएं अपनी पसंद के या अपनी सुविधा के कपड़े पहनने के लिए भी आजाद नहीं हैं, और यह सब ‘संस्कार’ के नाम पर होता है। यदि घूँघट में रहकर मुंह से अपमानजनक शब्द निकलते हैं तो इससे कौन से संस्कारों की पूर्ति होती है, असल मर्यादा मन से उपजे सम्मान, प्रेम और स्नेह से होती है।

आर्थिक आधार तो खैर है ही। तमाम रिपोर्ट हमें आए दिन यह आइना दिखाती हैं कि हमारी इकानोमी तो बढ़ रही है, लेकिन उसमें बराबरी का तत्व पीछे छूटता जा रहा है। आज भी अस्सी करोड़ लोग यदि सरकारी सस्ते राशन पर निर्भर हैं तो यह एक बहुत बुरी स्थिति है।

बच्चों की उपेक्षित दुनिया है। उनके साथ अलग स्तर पर भेदभाव है। उनकी आवाज ही नहीं है क्योंकि उनकी उम्र नहीं है। बड़ों की दुनिया में उन्हें उनकी आज्ञाओं का पालन करने वाला तबका भर मान लिया है, यही वजह है कि बच्चों की दुनिया के तमाम संकट आज बड़े होते जा रहे हैं। वह अपने परिवार—समाज से ज्यादा मशीनों में खोया लगता है, क्योंकि एक सहजता का संवाद का वातावरण ही नहीं है।

हमें याद रखना होगा कि भले ही यूनाइटेड नेशन ने 2013 में इस दिन को मनाने की घोषणा की हो, लेकिन भारतीय संविधान की मूल भावना में यह बातें कूट—कूट कर भरी गई हों। भारत की संविधान की प्रस्तावना में ही लिखा हुआ है कि हम भारत के लोग मिलकर ऐसा भारत बनाएंगे जिसमें समता, बंधुत्व, गैरबराबरी से मुक्त, हर तरह के शोषण और भेदभाव से मुक्त होगा, जिममें हर धर्म को समानता से माना जाएगा और सम्मान किया जाएगा। राज्य सभी धर्मों को बराबरी से प्रश्रय देगा। इस संविधान को बनाने में भी बहुत पसीना बहाया गया, लेकिन उसको लागू करने के लिए ​इतनी मेहनत नहीं की गई, इसलिए आज सारे सामाजिक विकास के मानक उसकी उल्टी दिशा में जाते हुए दिखाई दे रहे हैं।

यह माना कि कुछ बातें हमारे हाथ में नहीं हैं। वह धीरे—धीरे ही होंगी। आर्थिक बराबरी को आप रातों रात दूर नहीं कर सकते। उसमें वैश्विक परिस्थितियां भी कहीं न कहीं कारक बनती हैं, लेकिन जो बातें समाज के हाथ में हैं क्या उस पर भी जोर नहीं लगाया जा सकता। क्या उन संवैधानिक मूल्यों को समाज सच्चे ह्रदय से आत्मसात नहीं कर सकता जिन्हें अपने अन्दर बहुत थोड़ी मानवता पैदा करके भी पूरा किया जा सकता है, क्या जातीय व्यवस्था, लैंगिक आधारों पर हो रहे भेदभाव पर समग्र क्रांति नहीं हो सकती। क्या सांप्रदायिक सद्भाव को स्वीकार नहीं किया जा सकता और सद्भाव को ख़तम करने वाले हर हमले को जरूरी जवाब नहीं दिया जा सकता ? वास्तव में यह दिन तभी सार्थक होगा जब समाज में हर तरह का भेदभाव ख़तम हो सके !

- राकेश कुमार मालवीय


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