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आखिर कैसे बंद होगी खूंखार दगना प्रथा ?

 यह 2023 का साल चल रहा है। देश की अर्थव्यवस्था जल्दी ही फाइव ट्रिलियन डॉलर वाली हो जाएगी। तमाम पार्टियां देश की सत्ता में रहकर अंतिम आदमी के विकास का दावा कर रही हैं, और हम अब भी सुर्खियों में दिल को हिला देने वाले समाचार सुन रहे हैं। पिछले कुछ दिनों से मध्यप्रदेश के कुछ इलाकों में बच्चों को दाग​कर इलाज कर देने की घटनाएं फिर रिपोर्ट की जा रही हैं। यह समाज के सबसे वंचित और कमजोर तबके की मजबूरियां की एक बानगी है और तमाम सरकारों के चेहरों पर धता है कि ऐसा अब भी चल रहा है।

मैंने कई बार अपने गांव में बहुत ज्यादा बीमार होने पर किसानों को हंसिए से गाय—बैल के शरीर पर डमा धरते देखा है, इस बात को बीस तीस बरस बीत गए, अब तो उन गांवों में जानवरों के साथ भी ऐसा नहीं किया जाता, बीमार होने पर उन्हें गोली—दवाई दी जाती है, वैक्सीनेशन होता है, लेकिन तब इस बात का बिलकुल भी अंदाजा नहीं था कि मनुष्यों का भी इस तरह से इलाज किया जाता होगा !

मध्यप्रदेश के शहडोल जिले में मेरे पत्रकार मित्र शुभम बघेल ने स्थानीय सामाजिक कार्यकर्ताओं के साथ मिलकर पिछले चार—पांच सालों में एक छोटे से जिले में ऐसे दो हजार मामलों को उजागर किया है, जिनका इस भयानक तरीके से इलाज किया गया है। शुभम ने निरंतर एक प्रमुख समाचार पत्र में स्टोरीज छापी हैं, खबर छपने का असर हुआ, बीच में ऐसे मामले कम हुए, लेकिन अब एक बार फिर से ऐसे मामले सामने आने लगे। हाल ही दो बच्चियों की मौत की खबर आई है। इससे एक बार फिर सवाल उठता है कि क्या इस दिशा में कोई बुनियादी काम किया गया है अथवा नहीं?

दगना एक भयावह प्रथा है जो मध्यप्रदेश के कुछ आदिवासी अंचलों में अब भी पाई जा रही है। हालांकि यह केवल यहीं की क्रूर प्रथा नहीं है। देश के अलग—अलग कोनों में इसे किसी न किसी रूप में पाया गया है,  इस प्रक्रिया में बीमार बच्चे जो ज्यादातर निमोनिया या श्वसन संबंधी ​बीमारी से होते हैं, लोहे की रॉड गरम करके बच्चे के शरीर पर लगा दिया जाता है। यानी जिंदा शरीर पर आग का भयावह इंतजाम। यह इतना भयानक होता है कि ऐसे मामले भी आए हैं जहां एक बच्चे के शरीर पर पचास बार लोहे की राड से दागा गया हो, सोचिए कल्पना कीजिए।

भारत ने अंतररास्ट्रीय बाल अधिकार कन्वेंशन पर हस्ताक्षर किये हैं जिसका एक अधिकारर उत्तरजीविता का है, इसका अर्थ यह है कि भारत के हर बच्चे को जीवन जीने का अधिकार दिया जाएगा यानी उसे अच्छा खाना, साफ़ पानी, उचित इलाज और बेहतर वातावरण दिया जाएगा। भारत के संविधान का अनुच्छेद 45 कहता है कि राज्य देश में छः वर्ष तक की आयु के सभी बच्चों की प्रारंभिक बाल्यावस्था देखरेख सुनिश्चित करेगा करने का प्रयास करेगा। इसलिए देश के किसी भी बच्चे के प्रति कोई भी लापरवाही बिलकुल बर्दाश्त नहीं की जानी चाहिए।

दगना जैसे कलंक को झेलने वाले मध्यप्रदेश में कुपोषण के हालात पहले से ठीक हैं लेकिन फिर भी खराब हैं। दूसरी ओर दूरदराज के इलाकों तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचने का हाल भी बहुत बुरा है। ऐसे में मध्यप्रदेश की शिशु मृत्यु दर 47 पर बनी हुई है, उसका कारण इन दोनों स्थितियों को ठीक करने की भूमिका का कमजोर होना है। एक ओर बच्चे वैसे ही कमजोर होते हैं, दूसरी तरफ जब उन्हें ठीक से और सहजता से स्वास्थ्य और पोषण सुविधाएं नहीं मिल पातीं तो समाज दगना जैसी व्यवस्थाओं को अपनाता है।

होना यह चाहिए कि ऐसी क्रूर परम्पराओं के खिलाफ एक जनजागरुकता अभियान चले और साथ ही सर्विस डिलीवरी को मजबूत किया जाए, लेकिन ऐसे केस आने पर केवल जमीनी कार्यकर्ताओं को चलता करके एक्शन लेने की रस्मअदायगी भर कर दी जाती है। तंत्र कुछ समय के लिए जागता है, फिर अपनी पुरानी अवस्था को चला जाता है। ऐसे में समस्या फौरी तौर पर भले ही ठंडी हो जाए लेकिन वह समाज में बनी रहती है।

असल बात है कि ऐसी कुप्रथाओं का क्या और कैसे स्थायी हल निकाला जाए ? सबसे गरीब हालातों में रह रहे इन समुदायों को कैसे भरोसा दिलवाया जाए कि आजाद भारत में अब स्वास्थ्य सेवाओं की सर्विस डिलीवरी ठीक हुई है, उसके लिए भारत सरकार सालाना अपनी जीडीपी का तकरीबन 2.1 प्रतिशत स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च कर रही है इससे उनकी हालात जरूर ही ठीक होने चाहिए, पर क्यों नहीं हो पाता? कहीं कुछ तो ऐसा है जिसपर गंभीरता से विचार करने की जरूरत है। यह केवल कानून के खौफ से नहीं हो सकता यदि होता तो ऐसे मामलों के लिए तीन साल की सजा और एक लाख रुपए तक का जुर्माना काफी है।

होता यह भी है कि कभी यह राजनीतिक मुद्दा भी नहीं बन पाता। चुनावी बेला में भी विपक्ष ऐसे विषयों को ठीक तरीके से नहीं उठा पाता। विपक्ष के नेता धार्मिक साधु—संतों की देहरी पर मत्था टेंकते नजर आते हैं, उन्हें यह समझ नहीं आता यदि वे ऐसे बच्चों के घर—द्वार जाकर सरकार और उसकी व्यवस्थाओं पर कितनी बड़ी चोट कर सकते हैं। पर वह ऐसा इसलिए नहीं करते क्योंकि आम जनमानस भी ऐसे विषयों को तवज्जो नहीं देता, उसके लिए भी आज वंचितों ओर हाशिए के समाज के विषय किसी तवज्जो के लायक नहीं हैं। यह समाज में दिनों—दिन मर रही संवेदना का सूचक है जो किसी पशु की हत्या पर तो बवाल कर सकता है, लेकिन किसी बच्चे की नहीं, क्योंकि बच्चा का मुद्दा कोई राजनीतिक लाभ नहीं देने वाला है।

- राकेश कुमार मालवीय

 

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