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एनजीओ दिवस: समाज के लिए कितनी जरूरी हैं संस्थाएं

 तमाम गैर सरकारी संस्थाओं के साथ जुड़े होने की वजह से मेरे पास कई दफा विभिन्न संपर्क सूत्रों के मार्फ़त ऐसे फोन आते हैं जिसमें रातों-रात करोड़ों रुपए का फंड देने का लुभावना ऑफ़र होता है। मजेदार शर्त यह होती है कि इसमें से आधा पैसा (वो भी कैश में) वापस करना होगा। आठ—दस ​लाख रुपए फोन करने वाले के और तकरीबन इतने ही रुपए मुझे भी कमा लेने का सपना दिखाया जाता है।

भयंकर आश्चर्य इस बात पर होता है कि आखिर कैसे इतना खुलेआम कह देने की हिम्मत हो पाती है ? आखिर ऐसे लोगों की एनजीओ के बारे में क्या धारणा है कि संस्थाएं इतनी आसानी से इतनी भारी भरकम रकम का हेरफेर कर सकती हैं ? ऐसे लोग एनजीओज के बारे में शायद इतना ही जानते हैं कि उनके लिए यह सब करना बाएं हाथ का खेल होता होगा ! लेकिन क्या यह सब कुछ करना इतना आसान है? या एनजीओज के बारे में फैलाया गया एक भ्रम है ?  एक कथानक है!

 मैं कहना चाहूँगा कि एक करोड़ तो क्या एक रुपए का हिसाब रखने और देने के लिए संस्थाएं उसी तरह जवाबदेह हैं जैसे कि दूसरी और संस्थाएं ! सरकार का मॉनीटरिंग सिस्टम बेहद मजबूत है, और उसके द्वारा किए गए सभी प्रावधानों का एनजीओज को भी वैसे ही पालन करना होता है ​जैसे कि लोकतंत्र की दूसरी संस्थाएं कर रही हैं। संस्थाओं को इस बात की बिलकुल भी छूट नहीं है कि वह फंड का किसी भी तरह का दुरुपयोग कर पाएं और यदि  कोई करती भी होंगी तो उनके लिए पर्याप्त कानूनी व्यवस्थाएं और प्रावधान हैं, जिनका ठीक से पालन करवाने के लिए तंत्र जवाबदेह है।

अदद तो यह है कि इतनी बड़ी राशि का कैश में ट्रांजेक्शन होता ही नहीं है, संस्थाओं के अपने नियम हैं जिनमें एक तय राशि से ज्यादा का कैश ट्रांजेक्शन सख्त मना है। एनजीओज को कोई भी फंड किसी परियोजना को पूरा करने के लिए मिलता है, इसके लिए उस परियोजना की राशि का पूरा विवरण, खर्च और अन्य सभी रिपोर्ट का मिलान होना भी जरूरी है। संस्थाओं के अपने आडिटर होते हैं, और दानदाता संस्थाओं के भी। इससे ऊपर रजिस्ट्रार फार्म एंड सोसायटी, आयकर विभाग, नीति आयोग सहित अन्य संस्थाओं को भी इस राशि का जवाब देना होता है। विदेशी फंड के संबंध में प्राप्त किए गए धन और खर्च का पूरा ब्यौरा वेबसाइट पर दर्ज होता है, बीस तरह के रजिस्टर मेंटेन करने होते हैं। यह सब बताने का मतलब यह है कि एनजीओज किसी भी तरह का फंड लेने, खर्च करने और खर्च का हिसाब देने के लिए पूरी तरह जवाबदेह हैं। पता नहीं कैसे यह बात इतनी आसानी से एनजीओज को भ्रष्टाचार का प्रतीक बता दिया जाता है।

केवल एनजीओज ही क्यों, होना तो यह चाहिए कि किसी भी तरह के भ्रष्टाचार को पूरी तरह से रोका जाए, और इसकी पूरी जिम्मेदारी सरकार और उसकी नियामक एजेंसियों की है। यदि इन सभी रीति—नीतियों के बावजूद भ्रष्टाचार नहीं रूक पा रहा है तो इसमें उतनी ही भूमिका उन एजेंसियों की भी है, जिनकी जिम्मेदारी एक दुरुस्त सिस्टम बनाने की है।

देश में सात लाख गांव हैं और तकरीबन 32 लाख संस्थाएं रजिस्टर्ड हैं। यानी हर गांव पर चार—पांच संस्थाएं हैं, लेकिन वास्तव में जमीनी काम करने वाली संस्थाओं बहुत कम हैं। उसका एक कारण यह भी है कि संस्थाओं को पैसा कमाने का आसान साधन मान कर हजारों लोगों ने कागजों में पंजीयन करा लिया, और वह कागजों पर ही हैं,जब किसी परियोजना के लिए वास्तविक काम करने वाली संस्थाओं को खोजा जाता है जिले में एक दो—चार संस्थाएं ही सक्रिय मिलती हैं। सरकार को चाहिए कि ऐसी व्यवस्था का निर्माण करे जिसमें दो—चार साल निष्क्रिय रहने वाली संस्थाओं का पंजीयन भी निष्क्रिय हो जाए।

हालांकि सामाजिक—नागरिक संस्थाओं का दायरा केवल सोसायटी एक्ट तक ही सीमित नहीं है। सामाजिक-नागरिक संस्थान की परिभाषा व्यापक है, वह सदियों से किसी न किसी रूप में समाज को बनाने में अपना योगदान दे रही हैं। उनकी एक ऐतिहासिक भूमिका रही है, देश और समाज के निर्माण में उनका योगदान किसी दूसरे सेक्टर से कम नहीं है। संस्थाएं उन सुदूरवर्ती इलाकों में काम कर रही हैं, जहां तक विकास की रोशनी पहुंचना मुश्किल होता है, संस्थाएं संवेदना और समानुभूति के सिद्धांत के साथ काम करती हैं, यह देश में रोजगार पैदा करने वाला भी बड़ा सेक्टर है।

हमने देखा है कि कोरोना काल में भी जब देश में तमाम सेक्टर महामारी से भयभीत होकर घर में बैठ गए थे तब सड़क पर निकलकर भूखे लोगों को भोजन बांटना, बीमारों को सहायता उपलब्ध कराने वाला पहला व्यक्ति सामाजिक कार्यकर्ता और करवाने वाली सामाजिक—नागरिक संस्थाएं ही थीं। हमारे देश में उनकी भूमिका और जरूरत आज भी उतनी ही है, क्योंकि हम आगे बढ़ते हुए विकासशील देश हैं, पर लोगों के बीच स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार के बुनियादी सवाल अब भी खड़े हुए हैं।

दुर्भाग्य से संस्थाओं की भूमिका को न केवल समाज बल्कि सरकार भी कई बार शक की नजर से देखती है। इसलिए उनके काम करने के मौके लगातार संकुचित होते जा रहे हैं। उनके लिए संसाधनों का एक बड़ा संकट है और यह लगातार बढ़ता जा रहा है। विदेशी अनुदान की शर्तों को भी अधिक कठोर बना दिया गया है, जिसमें छोटी संस्थाओं का काम करना मुश्किल हो गया है। यह कैसी बात है कि सरकार अपने लिए या कम्पनियों के लिए विदेशी निवेश को बहुत उत्साह से देखती है पर संस्थाओं के लिए नहीं ! सरकार को एक ऐसा उदार वातावरण बनाना चाहिए जिससे अनुदान मिलना आसान हो, निगरानी की सख्त व्यवस्थाओं से संस्थाओं का इंकार नहीं है।

सरकारों को यह भी लगता है कि वह लोगों के पक्ष में कई बार आवाजें उठाती हैं तो उनके लिए खतरा पैदा करती हैं, लेकिन सरकारों को यह भी समझना चाहिए कि संस्थाएं सरकार का विकल्प नहीं है, न संस्थाओं ने उन्हें कोई चुनौती ही दी है, लोकतंत्र में असहमति और अपनी आलोचना सुनने की भी ताकत होनी चाहिए और इस प्रक्रिया से अंततः समाज का ही भला होता है, लोगों को उनके अधिकार मिल पाते हैं।

राकेश कुमार मालवीय


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