मध्यप्रदेश का इंदौर फिर चर्चा में है। इस बार वजह प्रवासी भारतीय सम्मेलन की मेजबानी है। अब होता ये है कि बात कोई भी हो, लेकिन इंदौर का नाम आते ही सबसे पहले बात ‘स्वच्छता’ की ही होने लगती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने भी इस सम्मेलन को संबोधित करते हुए जहां इंदौर की स्वच्छता की तारीफ की वहीं उसे अपने खास स्वाद की वजह से भी बयां किया। इंदौरवासियों ने जिस तरह से लगातार ही स्वच्छता के मामले में अपना जलवा बनाकर रखा है उसमें यह लाजिमी ही है।
पर ऐसा नहीं है कि इंदौर पिछले छह—सात सालों से ही ऐसा करता रहा है। यहां की
रवायत सालों पुरानी है, खुद नरेन्द्र
मोदी ने भी यह कहा कि यह एक ऐसा शहर है जो नया भी है और इसने अपनी परम्परा,
खान—पान, रीति—रिवाज और इंदौरियत को बचाकर रखा है। यहां आकर हर कोई
प्रभावित होता है, पर ऐसा
हाल—फिलहाल से नहीं है।
1960 में जब विनोबा भावे भी अपनी भूदान यात्रा के दौरान इस शहर से गुजरे तो
उन्हें कई दिलचस्प अनुभव हुए थे। उन्होंने अपनी जीवन झांकी ‘अहिंसा की तलाश’ में
लिखा कि
“मध्यप्रदेश की यात्रा में इंदौर नगर में मुझे अधिक रहने का
मौका मिला (24 जुलाई से 25 अगस्त 1960) यह नगर सौम्य, सुंदर है। इसमें सद्भावावान लोग रहते हैं।
मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल है। मैंने इंदौर नगरी को संस्कारधानी कहा। और वहां के
लोगों को इंदौर को सर्वोदय नगर बनाने का कार्यक्रम दे दिया।
विनोबा इस शहर से बड़ी अपेक्षा रख रहे थे। अपनी हजारों किलोमीटर की भूदान
यात्रा के दौरान ऐसी बात उन्होंने किसी दूसरे शहर के लिए नहीं की। यह एक बहुत
महत्वपूर्ण बात थी। पूरे शहर के सर्वोदय नगर के रूप में देखना सचमुच एक बड़ी बात
थी, आज की राजनीति या
समाजनीति ऐसा सोचती भी नहीं है। शहर अपने आकार में बढ़ता गया है, पर सर्वोदय कितना हुआ यह यहां की तमाम
झुग्गी—बस्तियां खुद बताती हैं।
ऐसा नहीं था कि विनोबा को तब सबकुछ ठीक—ठाक ही लगा। वे लिखते हैं कि...
“पांच हफ्ते मैं शहर में घूमा तो एक विचित्र बात देखी,
जिससे मुझे गहरा सदमा
लगा। जगह—जगह सिनेमा के गंदे चित्र लगे थे। इन बेशरम चित्र हम कैसे सहन कर सकते
हैं। मेरी आंखे खुल गयीं कि ये गंदे दृश्य और गंदे गाने चलेंगे तो भारत उठ खड़ा
नहीं होगा। वह निर्वीय बनेगा। वे गंदे अशोभनीय पोस्टर्स देखकर मेरे दुख की सीमा
नहीं रही। भूदान—यज्ञ के साथ—साथ मुझे पावित्रय का कार्य सूझा। वह नहीं सूझता अगर
मैं इंदौर नहीं आता। मैंने वहां की जनता से कहा कि यह तो आपके बच्चों को
विषयाशक्ति की मुफ्त और लाजमी तालीम ही दी जा रही है। इसके खिलाफ सत्याग्रह करो।“
अपने अभियान में उन्होंने पूरे इंदौर से आव्हान किया, नगर निगम से लेकर
महिलाओं को आगे आने के लिए कहा और कहा कि...
“आपके नगर में गंदे इश्तेहार हैं उन्हें हटाइए पैसे का लोभ
छोड़िए। बहनों से तो विशेषरूप से कहा गृहस्थाश्रम की नींव उखाड़ी जा रही है,
जगह—जगह हमारी बहनों और
माताओं के चित्र बहुत बुरे ढंग से चित्रित किए जाते हैं। इस देश में शांतिरक्षा और
शीलरक्षा का विषय बहनों को सौंप रहा हूं
इंदौर की बहनें जागृत हो जाएं और इन सारे पोस्टरों को एक दिन भी सहन न करें,
हटा दें, जला दें।“
विनोबा तब ऐसे पोस्टरों की गंदगी
से चिंतित नजर आते हैं और इसके खिलाफ शहर को समग्र रूप से स्वच्छ बनाने की बात
करते हैं, पर अब तो इस विषय पर कोई
खास विमर्श नहीं है, जबकि इस तरह की गंदगी का तब से कहीं ऊँचा पहाड़ खड़ा है.
बात केवल इंदौर की ही नहीं हैं, तमाम
देश में यही समस्या है, और कोई बात ही
नहीं है, और यदि होती भी है तो
उसमें जाति और धर्म का चश्मा लगा होता है। आजकल विरोध यह देखकर ज्यादा होता है कि
उसका राजनीतिक लाभ किसको और कैसे मिलने वाला है? क्या इंदौर अब ऐसी नजीर पेश करेगा जहां कि केवल कचरे
की—साफ—सफाई की ही नहीं बल्कि हर तरह की स्वच्छता की बात होगी, विचारों की भी और कर्म की भी, ऐसा शहर जो अपराध की गंदगी से भी उतना ही दूर
हो। क्या पचास—साठ साल बाद विनोबा के सर्वोदय नगर को साकार करने की ओर बढ़ा जा
सकता है?
विनोबा का केवल विचार नहीं था, उन्होंने इंदौर
में खुद सफाई का बीड़ा उठाया था। उन्होंने अपनी इसी किताब में लिखा है
“इंदौर में हमने शुचिता का एक और कार्यक्रम किया। स्वच्छ
इंदौर सप्ताह मनाया। शहर के अलग—अलग हिस्से में किए गए और जिसे शौर्य कार्य कहते
हैं वह करके आये। मैंने तय किया था कि मैं पाखाना सफाई का काम करूंगा। मै। गया
वहां मैला, मूत्र पानी सब
था। सत्व रज तम तीनों थे। बहनें मेहतर तो रोज हाथ से साफ करती होंगी, मैंने भी हाथ से साफ किया। मेरे हाथ में
दस्ताने रहते थे। फिर भी घर आने पर हाथ बार—बार धोते रहने की इच्छा होती। सफाई के
समय मेरे पांव में स्लिपर (रबर का जूता) था, वह मैंने निकाल दिया। अप्पासाहब ने कहा पांव में कुछ होना
चाहिए। मैंने कहा उसका नाम ही स्लिपर है। वह स्लिप होगा तो वह एक नाटक होगा,
इसलिए उसे नहीं पहनूंगा ऊपर
से बारिश हो रही थी नीचे सारा मैला था। अब मेरे पांव बहुत गंदे हो गए। घर पर आकर
लगा कि क्या पांव को आग पर तपाऊं। कई लोगों ने हमारे साथ काम किया। मैंने उनसे कहा
आपने बहुत शौर्य दिखाया, अब अक्ल भी दिखानी चाहिए। यह काम मानव को करना ही न पड़े यह अक्ल अब सूझनी
चाहिए। सबको मिलकर इसका उपाय ढूंढना चाहिए कि मेहतर को यह काम न करना पड़े।“
निश्चित रूप से इंदौर ने सफाई में देश को एक रास्ता दिखाया है, सिर पर मैला साफ करने से तो मुक्ति मिल गई,
अब ऐसी घटनाएं सामने नहीं आती हैं, लेकिन सीवर में उतरकर सफाई का एक दर्दनाक काम
अब भी हो रहा है। कई भाई—बंधु इन सीवर चैंबर में उतरते हैं और कई बार वहीं उनकी
मौत की खबरें भी आती हैं। यह एक नए तरह का दोष है, जरूरत इस बात की है कि कैसे हम ऐसी तकनीकों का विकास करें
जिससे इस काम से भी पूरी तरह से मुक्ति मिल सके।
राकेश कुमार मालवीय
0 टिप्पणियाँ