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News18 : दुनिया में घट रही, हमारे यहाँ क्यों ज्यादा हो रही ख़ुदकुशी


 

दुनिया में आत्महत्या की दर घट रही है और हमारे यहां यह दर तेजी से बढ़ी है. विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया में सन 2000 के बाद आत्महत्या के आंकड़ों में कमी आई है. पहले दुनिया में जहां हर साल तकरीबन आठ लाख लोग आत्महत्या कर रहे थे वहीं अब यह संख्या सात लाख के आसपास आकर ठहर गई है. इस अवधि में आत्महत्या के क्रूड रेट में लगभग 29% की कमी आई है. 2000 में प्रति लाख की आबादी पर जहां 13 लोग ख़ुदकुशी कर कर रहे थे वहीं अब यह दर घटकर 9.2 पर आ गई है ताज्जुब की बात है कि ताजा आंकड़ों में भारत में यह दर बढ़कर 12% हो गई है.

भारत का पारंपरिक समाज संयुक्त परिवारों के मजबूत बंधन वाला रहा है. यह दुनिया की सबसे बेहतरीन जीवन पद्धतियों में शुमार है. ऐसे में हमें यह सोचना होगा कि हमसे चूक कहां हो रही है. नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार 2017 में आत्महत्या की दर 9.3% थी, जो 2021 में 12% तक जा पहुंची है. यह बहुत चिंताजनक स्थिति है, क्योंकि दावा यह किया जाता है कि पिछले सालों में देश ने खूब तरक्की कर ली है, यदि तरक्की कर ली है तो क्या वह सिर्फ आर्थिक तरक्की है, और यदि बिना सोचे समझे और सीख लिए उसी रफ़्तार से आगे जाना है तो फिर इसके खतरे झेलने को भी तैयार होना होगा, विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट यह बताती है कि यूएस जैसी पूंजीवादी व्यवस्था में यह दर बढ़कर 28 तक पहुंच गई है. जबकि वेस्टर्न और यूरोपियन यूनियन में आत्महत्याओं में कमी आई है, यह इस बात की ओर साफ इशारा है कि हमें अपने विकास की दिशा में मंथन करते हुए चलना होगा. केवल पूंजी जी तरफ भागने से बात नहीं बनने वाली है!

पारिवारिक विवाद के कारण सबसे ज्यादा सुसाइड

हमारी सबसे बड़ी ताकत है परिवार नाम की संस्था, लेकिन ग्रामीण और शहरी विकास की नींव इतनी गहरी हो चुकी है कि इसमें चाहकर भी संतुलन बिगड़ता जा रहा है, एकल परिवारों की संख्या बहुत तेजी से बढ़ी है.नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार देश में 2021 में 164000 लोगों ने विभिन्न कारणों से आत्महत्या की है। मौत को गले लगाने का सबसे बड़ा कारण है पारिवारिक विवाद। परिवार को चलने के लिए जिन मूल्यों की आवश्यकता है, आज वह नदारद हैं, हमें चिंतन करना होगा कि वह कौन से कारण हैं जिनके करना प्रेम, स्नेह, धैर्य, सहनशीलता जैसे तत्व जो रिश्तों को बुना करते थे और किसी भी अप्रिय स्थिति में, संकट में जीवन  बचाने का काम करते थे, वह बहुत तेजी से कम हो गए, समाज से परम्पराएँ गायब हुईं, मेल जोल और संवाद गायब हो गया है, सरकार की तो बहुत सारी हेल्पलाइन चालू हो गयीं, लेकिन समाज की सभी हेल्पलाइन का मानो कनेक्शन ही कट गया, और इसीलिए लोगों को बुरे वक्त में अपनी जिन्दगी को ख़त्म करने के अलावा दूसरा विकल्प दिखाई ही नहीं देता है. 

बीमारियों के कारण बीस साल में पांच लाख ख़ुदकुशी

दूसरे नंबर पर हैं बीमारियां, जिनके कारण लोग अपनी जिन्दगी को ख़तम कर रहे हैं. इस सदी की शुरुआत से 2020 तक के बीस सालों में भारत में 25 लाख लोगों ने आत्महत्या की है, जिनमें तकरीबन पांच लाख लोग लोगों ने बीमारी के इलाज से ज्यादा ‘मौत की दवाई’ लेना उचित समझा. जिन्दगी की जग में वे अपना जीने का जज्बा खो बैठे, इसका कारण यह भी है कि हम उन्हें उनका स्वास्थ्य का हक़ भी ठीक से नहीं दिलवा पाए, यह कौन नहीं जनता कि सस्ता और गरीब आदमी की पहुँच वाला सार्वजानिक स्वास्थ्य का ढांचा कैसे कमजोर हुआ है, ऐसे में यदि आने वालों सालों में इस श्रेणी की ख़ुदकुशी के आंकड़े बढ़ें, तो आश्चर्य मत कीजियेगा ! 

महिलाएं ज्यादा मजबूत हैं :

एक यह तथ्य भी सामने आ रहा है कि महिलाओं की तुलना में पुरुष ज्यादा आत्महत्या कर रहे हैं.  विश्व स्वास्थ्य संगठन की रिपोर्ट के अनुसार आदमियों में जहां प्रति एक लाख की आबादी पर 12.6% लोग आत्महत्या करते हैं वहीं महिलाओं में यह संख्या केवल 5.7% ही है। हमने आधी आबादी को हमेशा से ही कमजोर मान है, लेकिन स्त्री का संघर्ष घर हो या बाहर हो, कहीं ज्यादा है, जिन्दगी के मुकाबले में भी वह मर्दों से आगे खड़ी है, आंकड़े तो यही बताते हैं, यह महिलाओं का सन्देश भी है कि आदमी जब भी परेशान हो उसे स्त्री के संघर्ष को देख लेना चाहिए और मौत को दरवाजे से ही खाली हाथ लौटा देना चाहिए.

आत्महत्या रोकने की रणनीति नहीं जानते

10 सितंबर को हर साल विश्व स्वास्थ्य संगठन की मांग पर आत्महत्या रोकथाम दिवस मनाया जाता है. इस दिन का सन्देश है कि हम कैसे आत्महत्याओं को कम से कम कर सकते हैं। इस साल इस दिन की थीम है अपने कामों से जीवन की आशा जगाएं !  लेकिन इस दिशा में कोई खास काम हो नहीं रहा है, विश्व स्वास्थ्य संगठन मानता है कि दुनिया में केवल 38 देश ही ऐसे हैं जो आत्महत्या को रोकने की रणनीति जानते हैं, ऐसे में जबकि भारत में आत्महत्या कम होने की जगह बढ़ती जा रही हैं, हमें सचेत होने की जरुरत है.

-  राकेश कुमार मालवीय


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