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Blog : चीता आने से पहले की टिकटोली, क्या अब बदलेगी तस्वीर ?

 चीता आने से एक गाँव चर्चा में आया और वह है टिकटोली. यह गाँव कूनो पालपुर अभ्यारण्य के तकरीबन दरवाजे पर बसा है. सालों-साल यह अभ्यारण्य गिर के शेरों की राह देखता रहा, सिंह तो नहीं आए, पर चीते जरुर आ पहुंचे. इनके आने के बाद एक बार फिर कहा गया कि अब इस इलाके में रौनक आएगी, पर्यटन बढ़ेगा, लोगों को रोजगार मिलेगा.




2019 के जुलाई महीने में मुझे इस इलाके में अपने साथियों के साथ टिकटोली गांव के लोगों से संवाद करने का मौका मिला था, मैं एक तथ्यान्वेषण दल का सदस्य था जो बच्चों की कुपोषण से मौत के बाद इस इलाके में उन स्थितियों का अध्धयन कर रहे थे, जिनके कारण ऐसी परिस्थितियां बनती हैं. उस दौरान जो लोगों के बद से बदतर हालात मैंने देखे थे वैसा हाल हिन्दुस्तान के दूसरे इलाकों में कम ही मिलता है, घोर गरीबी, आंगनवाड़ी में दर्ज 83 में 41 बच्चे कुपोषित, इनमें भी 15 गंभीर कुपोषण का शिकार, बदहाली और दम तोड़ती सरकारी योजनाएं. अब जबकि स्वयं देश के प्रधानमंत्री के कदम इस इलाके में पड़ गए हैं तो क्या उम्मीद की जानी चाहिए कि इन लोगों के जीवन में भी सुधार आएगा.  

स्वच्छता अभियान के सालों बाद भी गाँव में भारी गंदगी पसरी थी, गाँव में एक अजीब सा सन्नाटा. गाँव में घूमकर हमने लोगों से मुलाक़ात की. इसी गाँव की रामसखी की कहानी सुनकर यकीन करना मुश्किल था कि यह हिन्दुस्तान है !


रामसखी और दिनेश के परिवार में तीन बच्चे जिन्दा थे, दो की मौत हो गई और छठवां पेट में। वजन चालीस किलो, आंगनवाड़ी में नाम भी दर्ज, कमजोर और एनीमिक। बात की तो पता चला कि पिछला प्रसव रात दस बजे घर में हुआ. करवाने वाली थीं गांव की महिलाएं, पूरी रात रामसखी आंवल और बच्चे सहित घर में पड़ी रही, क्योंकि रिवाज यह है कि इस समुदाय में नरा तो मेहतरानी ही काटती है.  

परिवार के लोग सुबह मेहतरानी को मोरावन लेने गए, जो गाँव से 15 किलोमीटर की दूरी पर है12 घंटे बाद सुबह 10 बजे रामसखी की आंवल काटी गई। तब तक बच्चा बहुत रोया। उसे चुप कराने के लिए रूई के फाये से बकरी का दूध डाला गया। जन्म से ही भुखमरी का शिकार बच्चा 4 माह जिन्दा रहा। दस्त निमोनिया जैसी बीमारी चलती ही रही और सांस फूल-फूल कर बच्चे की मौत हो गई।

रामसखी का उससे बड़ा बच्चा भी गांव में ही हुआ। वह भी कमजोर पैदा हुआ। उसे मां का दूध नसीब नहीं हुआ। उस वक्त रामकली बच्चे को लेकर पलायन पर गई हुई थी। बच्चे को दस्त लगे इसलिए वह कमजोर हो गया। पलायन से गांव लौटे तब वह बहुत कमजोर और बीमार था। गांव आने के बाद वह केवल आठ दिन जिंदा रहा, उसके बाद उसकी मृत्यु हो गई। जब उसकी मृत्यु हुई, तब तक उसे कोई भी टीका नहीं लगा था।  

यह कहानी जब जब याद आती है और रामसखी की लाचार शक्ल दिखाई देती है तो सवाल अपने आप उठते हैं, कि इसमें दोष आखिर किसका है, उस सिस्टम का जो विदेशों से चीतों को लेकर तो आ जाता  है, लेकिन अपने देश के नागरिकों के लिए स्वास्थ्य और पोषण का बंदोबस्त नहीं कर पाता, या उस मानसिकता का जो महिलाओं को अब भी बच्चा जनने वाले शरीर से ज्यादा कुछ नहीं समझता, आखिर क्यों एक के बाद एक शिशु उसकी कोख में डालने पर मजबूर करता है जिनके दाल-रोटी का भी ठीक से पता नहीं होता है!

गुस्सा इस बात का कि आखिर इस हालात में भी सहरिया इतने ज्यादा बच्चे पैदा क्यों करते हैं ? उसका जवाब मुझे सामाजिक कार्यकर्ता राघवेन्द्र जी ने अपने सालों साल के अनुभव से कुछ यूँ दिया था कि ‘इन लोगों को अब भी यह विश्वास नहीं हो पाया है कि इनके कितने बच्चे जिन्दा बचेंगे!’ उनका अगला वाक्य था ‘सहरिया टीबी से मरता है और उसका बच्चा कुपोषण से’ ‘पर हमारा तंत्र भी तो योजनाओं को, जानकारियों को, सुविधाओं को जमीन तक ठीक से नहीं पहुंचा पाता,’ उनका अगला सवाल हमसे था ! बात सही भी थी आखिर हम इस इलाके में गए ही थे क्योंकि एक बार फिर इस इलाके में कुपोषण से एक के बाद एक बच्चों के मरने की ख़बरें आ रही थीं.

tiktoli Village of sheopur disrict. 


इस इलाके की पहचान चीतों की वजह से अब बदल जाये तो बहुत अच्छा, लेकिन यदि पर्यटकों को ऐसे भूखे मरते बच्चों की तस्वीरें दिखीं तो हमारी बड़ी बदनामी होगी, इसका यह मतलब नहीं है कि उन लोगों को वहां से उखाड़ ही फेंके, बल्कि यह कि उन स्थितियों को सुधारें. उसेके लिए जरूरी है कि सिस्टम सुधरे.पर कुपोषण और भुखमरी सुधारने वाली व्यवस्थाएं खुद बीमार हों तो हालात कहाँ से सुधर सकते हैं ?

टिकटोली में 164 सहरिया परिवारों में 600 लोग रहते हैं, खेती की जमीन न होने से ज्यादातर मजदूर. गाँव में दो आंगनवाडी कार्यकर्त्ता रूपवती सहरिया ने बताया कि केंद्र में हर माह टेक होम राशन विभाग से नहीं आता, दो माह में एक बार मिलता है। दो माह में 14 बोरे टीचआर मिलता है जबकि जरुरत 28 बोरे की है। हमने माँगा तो टीएचआर स्टाक का कोई रिकार्ड केंद्र में नहीं था। बच्चों की ग्रोथ मॉनिटरिंग का कोई रिकार्ड लम्बे समय से दर्ज नहीं था, पूछा तो पता चला, आशा कार्यकर्ता का पद चार साल से खाली है. प्रदेश में संस्थागत प्रसव 80 प्रतिशत से ज्यादा हो गए हैं और टिकटोली में 80 प्रतिशत प्रसव घर में ही होते हैं। आंगनवाड़ी में नास्ता आठ दिन में एक बार मिलता है, क्योंकि यह 18 किलोमीटर दूर सेसईपुरा से आता है। वजन मशीन एक साल से ख़राब है। लोगों से, आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं से मिलकर सुनकर जो बातें लगीं वह बेहद चिंता में डालने वाली थीं, सिस्टम की पोल खोल रही थीं और यह बता रहे थीं कि कैसे योजनाएं जमीन तक पहुँचते पहुँचते दम तोड़ देती हैं. 


गिर के सिंह भले ही अभ्यारण्य तक नहीं पहुंचे हों, पर तब भी गाँव के लोगों का जंगल में जाना मना था, वहां कटीले तार लगा दिए जाने के बाद इन सहरिया आदिवासियों का जंगल से रिश्ता ख़तम हो गया था, इससे उनकी खाद्य सुरक्षा बदतर हो चुकी थी. ग्रामवासियों ने बताया कि अगर हमारी बकरी जंगल में चारा खाने चली जाए तो हमें मार खानी पड़ती है और जुर्माना देना पड़ता है। गांव में कई लोगों पर वन विभाग की ओर से केस भी दर्ज किए गए थे

गांव के लोगों को वनाधिकार कानून के बारे में जानकारी नहीं है किसी भी व्यक्ति को कानून, दावा फार्म, गांव की वनाधिकार समिति के बारे में जानकारी नहीं है, जबकि गांव के चालीस पचास परिवारों की खेती की लगभग 500 बीघे जमीन फेंसिंग के अंदर चली गई। इस जमीन पर इनके पूर्वजों पिछली कई पीढ़ियों से खेती कर रहे थे, एक दो परिवारों के पास इसमें से कुछ जमीनों के पट्टे हैं। बाकी पूरी जमीन वनविभाग के पास चली गयी थी. 8 सालों से ये सब परिवार खेती भी नहीं कर पा रहे थे

एक सहरिया आदिवासी हरी सिंह ने बताया है कि कुछ दिन पूर्व में ही उनके गांव में जिले के कलेक्टर आए थे, किन्तु कोई असर नहीं हुआ। साल के तकरीबन चार महीने लाल मिर्च और नमक की चटनी बनाकर उसी सूखी चटनी से रोटी खाई जाती है। कभी-कभी ही भाजी मिलती है। वह भी बारि के मौसम में। ऐसे में किसी का पेट तो भर सकता है पर पोषण नहीं हो सकता.



गांव में राशन वितरण की दुकान मौजूद तो थी पर पिछले दो माह से अनाज नहीं मिला है। गांव वालों ने बताया कि दो महीने छोड़कर एक दिन अनाज दिया जाता है। हमारी टीम ने एक पंचनामा इसके बावत बनाने की बात कही तो लोगों ने कहा गया कि जो भी व्यक्ति इसमें दस्तखत करेगा उसको मार खानी पड़ेगी। एक भी व्यक्ति दस्तखत करने के लिए तैयार नहीं हुआ। जब दल ने राशन कार्ड देखा तो उसमें वर्ष 2017 तक की एंट्री पाई गई. बात केवल टिकटोली की ही नहीं थी, इसके आसपास के चार-पांच और गांवों में भी लोगों ने ऐसी ही कहानियां बताई. कहीं मध्याह्न भोजन की दिक्कत, कहीं इलाज के लिए परेशान, कहीं पलायन का दंश.

चीते आने से इस इलाके में जमीनों के दाम अचानक चार-पांच गुना हो गए हैं, हो सकता है कि दो-चार साल बाद पलायन-कुपोषण आदि की ऐसी कहानियां सुनने को न मिलें, पर क्या सचमुच. क्या सचमुच ऐसी योजनाओं का फायदा स्थानीय लोगों को मिलता है ? दो चार साल बाद टिकटोली की एक और यात्रा ही ऐसे सवालों का मुकम्मल जवाब दे पायेगी.

 



 

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