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तलाक उत्सव पर कौन सा इमोजी चटकाएं हम ?

 

रोया जाए, खुश हुआ जाए, गुस्सा हुआ जाए, दुख मनाया जाए, तरस खाया जाए, आखिर क्या प्रतिक्रिया दी जाए, मोबाइल फोन में ऐसा कोई इमोजी ही नहीं है जो इस तरह की घटना के लिए बनाया गया हो! ‘अजब-गजब राज्य’ मध्यप्रदेश के भोपाल में एक विचित्र सी घटना ने ऐसी ही अटपटी सी स्थिति पैदा कर दी।

दरअसल भोपाल में पुरुषों के हित में काम करने वाली एक स्वयंसेवी संस्था ने एक आयोजन की योजना बनाई

, ऐसा आयोजन जो संभवतः पहले कभी नहीं हुआ, ‘तलाक का उत्सव जी हां, विवाह विच्छेद की डिक्री हासिल कर चुके लोगों ने इस उत्सव के कार्ड छाप कर बांट भी दिए, यह कार्ड वायरल हो गया और मीडिया में खबर भी आ गई। इस ‘विवाह विच्छेद समारोह’ का मकसद था विवाह की स्मृतियों को मिटाना। विवाह से संबंधित सारी चीजों जैसे एलबम, साफा, आदि को अग्नि के हवाले करने, बारात निकालने, जयमाला का विसर्जन करने, गीत-संगीत का कार्यक्रम तय हुआ।
कार्यक्रम के लिए 18 तलाकशुदा लोग तैयार भी हो गए. इन लोगों ने तलाक के लिए भरण-पोषण (समझौते) के नाम पर मोटी रकम चुकाई तो किसी ने कुछ और किया. हालांकि कुछ संगठनों ने इसे संस्कृति के खिलाफ बताते हुए विरोध किया,  के बाद इस आयोजन को फिलहाल रद्द करना पड़ा है
, लेकिन इस आयोजन ने हमारे सामने कई सवाल खड़े कर दिए हैं।

क्या कानूनों का दुरूपयोग हो रहा है : सबसे बड़ा सवाल यह है कि महिलाओं के लिए बनाए गए कानूनों का दुरूपयोग हो रहा है, क्या उन्हें हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। खासकर भारतीय दंड संहिता 498-ए में दिए गए दहेज निषेध अधिनियम और महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा अधिनियम-2005 के मामले में यह बात बार-बार आती है कि जब परिस्थितियां पक्ष में नहीं होती हैं, तब इन दोनों ही कानूनों का इस्तेमाल एक टूल की तरह फंसाने में किया जाता है। हालांकि इस बात का कोई ठीक-ठीक आंकड़ा कहीं भी नहीं है कि क्या वाकई ऐसा है, इसमें सच कितना है और झूठ कितना है ? दोनों ही मामले बहुत संवेदनशील भी हो जाते हैं, जमानत मिलनी मुश्किल हो जाती है, जब तक इनमें अदालतों से कोई भी निर्णय आता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, इसका प्रभाव कहीं न कहीं अपने निशान जिंदगी पर छोड़कर ही जाता है।

पुलिस जांच की भूमिका: ऐसे में सबसे जरूरी हो जाता है कि मामले की तहकीकात ठीक से करके ही अपराध दर्ज किए जाएं। पुलिस की बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका हो जाती है,  पर लोगों के अनुभव बताते हैं कि भ्रष्ट आचरण झूठ को सच और सच को झूठ करने में कोई कोताही नहीं बरतता, सच के सामने आने में समय लग जाता है, न्याय पाने के लिए एक खौफ का वातावरण तैयार होता है, कौन नहीं जानता कि ऐसे मामले भ्रष्ट व्यवस्था के लिए अवसर साबित होते हैं?

अदालतों के चक्कर : देश के विभिन्न राज्यों की अदालतों में 13 लाख 33 हजार से ज्यादा केस और अन्य अदालतों में 35 लाख से ज्यादा केस दस साल से ज्यादा समय से न्याय की राह देख रहे हैं. तलाक के मामलों की बात करें तो 2018 तक कुटुंब न्यायालयों में सात लाख तीस हजार तलाक के मामले पेंडिंग थे। इन मामलों की सबसे बड़ी मुश्किल है तारीख पर तारीख का मिलते जाना। न्यायालय भले ही इस बात के लिए चिंतित हो कि लोगों के अंतिम फैसले आने में लंबा वक्त लग रहा है और गाहे- बगाहे फास्ट ट्रेक कोर्ट के जरिए ऐसे मामलों को निपटाने के लिए वैकल्पिक और त्वरित व्यवस्थाएं भी बनाई जा रही हों, लेकिन इसके बावजूद न्यायलयों पर मुकदमों का भारी बोझ है और यही कारण है कि लोग ऐसे मामलों से बचने की पूरी कोशिश भी करते हैं। लंबा वक्त लगने से वह सुनहरा समय भी चला जाता है जबकि एक व्यक्ति अपना कैरियर से लेकर अपनी पूरी लाइफ को सेट करने की पुरजोर कोशिश करता है.

सामाजिक संस्थाओं की कम होती भूमिका : भारतीय समाज में जाति आधारित संस्थाओं और संगठनों के जरिए भी ऐसे मामले निपटाए जाते रहे हैं, लेकिन ऐसी संस्थाओं और संगठनों के निर्णयों या समझौतों की कोई वैधानिकता ही नहीं है, ऐसे में लोग यही चाहते हैं कि न्यायालय से ही वैधानिक डिक्री मिले और जाहिर है इसके लिए उन्हें पैसा और समय खर्च करना पड़ रहा है। जब समाज से मूल्य ही गायब होते जा रहे हों तो इन संस्थाओं की साख और मान्यता पंच परमेश्वर की तरह नहीं की जा सकती है.

तलाक अच्छी या बुरी बातः सवाल यह है कि तलाक अच्छी बात है या बुरी बात है. भारतीय समाज के सन्दर्भ में माने तो विवाह सात जन्मों का बंधन माना जाता है, परिवार नाम की इकाई में विवाह एक अनिवार्य भूमिका में है, ऐसे में विवाह का टूटना ठीक बात नहीं मानी जाती ऐसे में विवाह विच्छेद समारोह मानना हमें चौंकाता है. आम समाज इसे स्वीकार नहीं करेगा, यदि गहरे से देखें तो यह समारोह तलाक से ज्यादा समाज से ज्यादा व्यवस्था के प्रति रोष है जो कानूनों के दुरूपयोग करने की छूट देती है, समय लगाती है.

 

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