राकेश कुमार
मालवीय
भारत में हर दो मिनट में 3 बच्चों की
मौत हो जाती है पर जात—पात
जैसे मुद्दों पर कोहराम मचाते समाज को एक पल की फुर्सत नहीं कि इस पर बैठकर थोड़ा
सोच लें, विकास की गंगा
बहाती सरकार को दो मिनट का वक्त नहीं कि इस पर कोई बयान जारी कर दें, और सॉफ्ट हिंदुत्व की तरफ कूच करते
विपक्ष को तो बिलकुल भी वक्त नहीं कि देश में हर साल मर रहे लाखों बच्चों के विषय
पर कोई भारी हंगामा खड़ा कर दें
!
इस पर थोड़ी—बहुत बात होती है तब जब ऐसी झकझोरने वाली
कोई रिपोर्ट जारी होती है, उसी
रिपोर्ट में हम देख पाते हैं कि भारत में बच्चे मर रहे हैं, गोयाकि उस रिपोर्ट की उम्र भी महज एक
या अधिकतम दो दिन ही होती है, मीडिया
में खबरें छपने के बाद फिर वैसे ही बच्चे मरते रहते हैं !
ऐसी ही एक रिपोर्ट फिर सामने आ खड़ी हुई
है यह बताती है कि हिंदुस्तान के अंदर हर दो मिनट में तीन नवजात बच्चों की मौत हो
जाती है, हम इसे तथ्य पेश
करने वाली रिपोर्ट समझते हैं, पर
तथ्यों से ज्यादा यह सवाल करती है,
क्या बच्चों की मौत को इस समूचे समाज ने सहज भाव से स्वीकार कर लिया
है, उसी जिस तरह बुनियादी
सुविधाओं से महरूम भारत के लोगों ने कर लिया है, जो यह खुलकर बताते हैं कि उन्हें इस बात का भरोसा नहीं कि उनकी कितनी
संतानें जीवित बचेंगी इसलिए उनका परिवार हम दो हमारे दो तक ही सीमित नहीं रहता, बढ़ते जाता है।
संयुक्त राष्ट्र से जुड़ी एक संस्था ने
भारत से जुड़े बेहद गंभीर आंकड़े जारी किए हैं। इसके मुताबिक, भारत में औसतन हर दो मिनट में तीन
नवजात बच्चों की मौत हो जाती है। इसके पीछे के कारणों में पानी, स्वच्छता, उचित पोषाहार या बुनियादी स्वास्थ्य
सेवाओं का अभाव है। संयुक्त राष्ट्र के शिशु मृत्युदर आकलन के लिए यूएनआईजीएमई की
एक रिपोर्ट में यह जानकारी दी गई है।
इस रिपोर्ट की माने तो भारत में साल
2017 में 8,02,000 शिशुओं की मौत हुई थी और यह आंकड़ा पांच वर्ष में सबसे कम है।
लेकिन दुनियाभर में यह आंकड़ा अब भी सर्वाधिक है। हालांकि सच्चाई इससे कहीं ज्यादा
और विस्फोटक है। वर्ष 2008 से 2015 की अवधि में भारत में 91 लाख बच्चे अपना पहला
जन्म दिन नहीं मना पाए।
इस अवधि में शिशु मृत्यु दर 53 से घट
कर 37 पर आई है, पर
फिर भी वर्ष 2015 के एक साल में ही 9.57 लाख बच्चों की मृत्यु हुई थी। इससे पहले
के सालों में भी भारत बच्चों की मौत के मामलों में भयानक रहा है। इन आठ सालों में
भारत में 1.113 करोड़ बच्चे अपना पांचवा जन्म दिन नहीं मना पाए और उनकी मृत्यु हो
गई। इनमें से 62.40 लाख बच्चे जन्म के पहले महीने (28 दिन के भीतर) नहीं रहे। यानी
56 प्रतिशत बच्चों की नवजात अवस्था में ही मृत्यु हो गई। यह आबादी जीवित रही होती
तो हांगकांग, सिंगापुर
सरीखे छोटे—मोटे
देश बस गए होते।
तो क्या भारत अपने देश में मर रहे
शिशुओं को बचाने के प्रति चिंतित नहीं है ? आखिर क्यों यह मुद्दा हमारे पूरे सिस्टम से गायब है ? देखें कि देश में अगले महीने—दो महीने में विधानसभा चुनाव होने हैं, इसके बावजूद राज्यों के स्तर पर भी
बच्चों की मौत, कुपोषण
जैसे मुद्दे गायब हैं। सब तरह की बातें हो रही हैं, नहीं होती तो वह बात जो सबसे ज्यादा जरूरी है।
आखिर कोई क्यों यह आवाज नहीं उठाता है
कि दुनिया में शिशु मृत्यु के सर्वाधिक आंकड़े भारत के हैं, जिसके बाद नाइजीरिया का नंबर है। यहां
तक कि गरीब देश भी अपने आंकड़े सुधार रहे हैं। नाइजीरिया में एक साल में 4,66,000
शिशुओं की मृत्यु हुई। पाकिस्तान में 3,30,000 शिशुओं की मृत्यु होती है।
तो कमी कहां हैं ? इच्छाशक्ति में, नीति में, नीयत में या बजट में। सवाल
प्राथमिकताओं का है। और जब समाज ही एक किस्म के भेड़ियाधसान की तरह चल रहा हो, तो सवाल आए कहां से, यह समाज चंद नौकरियों की खातिर आरक्षण
पर तो भारत बंद कर सकता है, पर
भारत में मरते बच्चों पर कोई एक घंटा भी बता दीजिए जब किसी ने बंद का आव्हान किया
हो। सवाल केवल मौतों के भी नहीं है,
देखा जाए तो बच्चों की सुरक्षा और शिक्षा के भी हैं।
तो क्या बजट की कमी है ? बिलकुल भी नहीं। वर्ष 2014-15 से
2016-17 के बीच बच्चों-महिलाओं के स्वास्थ्य के लिए भारत सरकार द्वारा विशेष रूप
से 31890 करोड़ रूपए आवंटित किए गए;
किन्तु इसमें से 7951 करोड़ रूपए खर्च ही नहीं हुए। इसका मतलब है कि धन की कमी भी
नहीं है। ऐसी परिस्थितियों को तभी सुधारा जा सकता है जब इन्हें सुधारा जाना
प्राथमिकता में होगा। लोग अपने आसपास हर दो मिनट में मरते तीन बच्चों की मौत से
दुखी होंगे और सवाल पूछेंगे कि ऐसा क्यों हो रहा है, इस पर भारत बंद हालांकि बंद कोई बेहतर विकल्प नहीं है बुलाएंगे, सरकार बनाएंगे और गिराएंगे।
Published @ Khabar NDTV
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