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भाग पांच- भारत का संवि‍धान



भारत की आजादी के बाद संविधान निर्माण का कार्य प्रारंभ हुआ और 26 जनवरी 1950 को हमने अपने संविधान को अंगीकार कर लिया। समावेशी संविधान के दायरे में कुछ न कुछ कमी रह गई थी। इसलिए संविधान में संशोधन का रास्ता खुला रखा गया था। भारत में भूमि अधिकारों को लेकर लंबे समय से उहा-पोह की स्थिति बनी हुई थी इसीलिए सन् 1951 में ही नवीं अनुसूची का प्रावधान कर संविधान में पहला संशोधन किया गया। 
संविधान (पहला संशोधन अधिनियम, की धारा 14 के द्वारा जोड़ा गया।) परंतु परोक्ष एवं अपरोक्ष दोनों ही तरह से भूमि के वितरण का कार्य जिस सुगमता से होना था, वह नहीं हो पाया। धीरे-धीरे स्थितियां जटिल और प्रतिकूल होती गई। दूसरी ओर हमें यह बात भी ध्यान में रखनी होगी कि भारतीय संविधान व्यक्ति की गरिमा को स्थापित करते हुए भी समूह को न्याय दिलाने की ओर अधिक अभिप्रेरित रहा है। 
व्यक्तिगत स्वतंत्रता की हिमायत करने के बावजूद भारतीय सामाजिक कानूनों का विश्लेषण करें तो सामने आता है कि यहां दलितों और आदिवासियों से संबंधित कानून एक पूरे समूह को न्याय प्रदान करते हैं तो दूसरी ओर मुस्लिम पर्सनल लॉ कमोबेश देश की मुसलिम आबादी को ध्यान में रखकर तैयार हुए हैं। इसका सीधा सा अर्थ यह निकलता है कि भारत पूरी दुनिया में एक बिरला राष्ट्र है। इसे यूरोप की तरह किसी एक ही सूत्र में बांधकर नहीं रखा जा सकता। 
 इसकी विविधता को समझे बगैर किसी योजना, नीति या विचार का क्रियान्वयन खतरनाक सिद्ध हो सकता है। और यह विविधता सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक ही नहीं है, बल्कि भौगोलिक विविधता भी यहां बड़े पैमाने पर विद्यमान है। यहां शून्य से 50 डिग्री सेल्सियस कम तापमान से 50 डिग्री सेल्सियस का तापमान पाया जाता है। 
यहां प्रतिवर्ष 3 से.मी. बारिश के बरस्क 400 से.मी. प्रति वर्ष औसत वर्षा वाले क्षेत्र मौजूद हैं। अत्यन्त उपजाऊ भूमि के विरोधाभास में यहां हजारों वर्ग किलोमीटर रेगिस्तान भी मौजूद है। बंजर व उजाड़़ इलाकों के विपरीत यहां सदानीरा नदियां एवं घने जंगल भी पाए जाते हैं। अतएव विकास का कोई भी मॉडल अत्यंत सोच विचार के बाद ही जमीन पर उतारा जाना चाहिए।
 विकास की इसी जद्दोजहद ने असंतोष को जन्म देना प्रारंभ कर दिया। मिश्रित अर्थव्यवस्था में लाभ के छनकर नीचे तक पहुंचने की कल्पना पर अमल नहीं हो पाया और सारा लाभ चंद पूजीपतियों, राजनीतिज्ञों अफसरों और ठेकेदारनुमा वर्गो के बीच ही वितरित होने लगा। इस दौरान ब्रिटिश कालीन कानूनों को रद्द करने या उनमें आमूलचूल परिवर्तन के बजाए छोटे-मोटे संशोधनों के सहारे इसे पुनः भारत पर थोप दिया गया और इसके सबसे पहले और सबसे अधिक शिकार भारत का आदिवासी समुदाय ही हुआ। 
 ब्रिटिश साम्राज्य भी भारत के आदिवासियों से उनकी स्वतंत्रता नहीं छीन पाया था। नेहरू की पहल पर भारतीय संविधान ने इनकी स्वायत्तता और स्वतंत्रता को कायम रखने की वचनबद्धता संविधान की पांचवीं और छठवी अनुसूची के माध्यम से दर्शाई है। लेकिन वास्तविकता इसके एकदम उलट है। क्योंकि भारत की आबादी में आदिवासियों का कुछ हिस्सा करीब 8 प्रतिशत है और विस्थापित होने वाले नागरिकों में उनकी संख्या 80 प्रतिशत है। इस उलट अनुपात में भी असंतोष के बहुत से कारण छुपे हुए है।
 पिछले प्रधानमंत्री डा मनमोहन सिंह वामपंथी हिंसा को कमोवेश देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा खतरा निरुपित करते रहे लेकिन इससे पार पाने के किसी मान्य फार्मूले के निर्माण की दिशा में कोई कार्य नहीं किया। उनका मानना था कि विकास दर के बढ़ने से रोजगार व समानता के अवसर बढ़ेंगे और इस चरमपंथ से निपटने का यही एकमात्र रास्ता है। 
नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में आई भाजपा नीत सरकार की नीतियां भी इससे बिल्कुल अलग नहीं है। साथ ही साथ हमें गंभीरता से इस बात पर भी विचार करना होगा कि सन् 1991 में नरसिम्हराव द्वारा नवउदारवादी  नीतियों के लागू किए जाने के बाद और विकास दर में हो रही निरंतर वृद्धि के बावजूद वामपंथी अतिवाद या हिंसा क्यों व्यापक होती गई। यह भी विचारणीय है कि भारतीय नक्सलवाद किस तरह और क्यों माओवाद में परिवर्तित हो गया।
जारी - चि‍न्‍मयमि‍श्र

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