अब हम भारत में आक्रामकता और आतंकवाद के बढ़ते खतरों पर आते हैं। भारत ने अपनी आजादी को लेकर लंबा व कठिन संघर्ष किया था। जाहिर सी बात है यह संघर्ष सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक बदलाव के लिए किया गया था और भारत के सभी वर्गो ने इसमें बढ़ - चढ़ कर हिस्सेदारी की थी। अब बारी उस सपने को पूरा करने की थी।
तमाम सदइच्छाओें के बावजूद वह पूरा नहीं हो पाया और विकास के जिस माॅडल को आजादी के बाद चुना गया उसके लाभों से देश का बहुसंख्य वंचित ही रहा। महज आत्मप्रशंसा के लिहाज से यह उल्लेख महत्वपूर्ण नहीं है, कि भारत की स्वतंत्रता किसी एक देश की स्वतंत्रता नहीं थी, बल्कि भारत एक सपना था जिसके आधार पर बीसवीं शताब्दी में एक नए मुक्त व शोषणमुक्त विश्व की परिकल्पना को मूर्तरुप दिए जाने की अभिलाषा बकाया वंचित विश्व ने की थी।
भारत की स्वतंत्रता ने बिलाशक एक नए स्वाधीन विश्व की स्थापना का मार्ग प्रशस्त किया और हमारी आजादी के बाद दुनियाभर में 150 से ज्यादा देश आजाद हुए। आज वस्तुतः कोई भी देश किसी का उपनिवेश नहीं बचा है। लेकिन इसी के समानांतर एक और धारणा भी मूर्त रूप लेती जा रही है कि दुनिया के अधिकतम 10 देश आज पूर्ण स्वतंत्रता का दावा कर सकते हैं और बाकी के 190 देश किसी न किसी दबाव में अपना देश चला रहे हैं।
इसका सीधा सा अर्थ
यही है दुनिया के अधिकांश देशों की स्वाधीनता आधी अधूरी है और वे न तो पूर्ण सार्वभौम
बन पाए और न ही शोषण मुक्त हो पाए। पंडित जवाहर लाल नेहरु आजादी के पूर्व चालीस के दशक में इस चालाकी
को समझ चुके थे और भविष्य की बाजार आधारित राजनीतिक व्यवस्था के खतरों के विरुद्ध चेता
रहे थे।
वहीं महात्मा गांधी के लिए भी राजनीतिक स्वतंत्रता तब तक अर्थहीन थी जब तक
कि सारा राष्ट्र सामाजिक स्वतंत्रता प्राप्त न कर ले। इन दोनों की सोच के इतर एक तीसरी
धारा भी अपनी राह बनाने में प्राणप्रण से जुटी थी जिसका मानना था कि आर्थिक स्वतंत्रता
या स्वायत्तता ही सभी समस्याओं का निराकरण कर सकती है। इस आर्थिक स्वतंत्रता की प्राप्ति
के लिए विश्व भर में दो व्यवस्थाएं हैं।
भारत ने एक बार पुनः सामंजस्य का सैद्धांतिक
प्रयास किया और अपने लिए एक तीसरी धारणा मिश्रित अर्थव्यवस्था की चुनी। ठीक इसी तरह
पंडित नेहरु द्वारा विश्व के दो ध्रुवों सोवियत रूस एवं अमेरिका के अपने - अपने सैन्यगुटों
से इतर गुट निरपेक्ष आंदोलन की स्थापना महज एक शगूफा नहीं था बल्कि वे कमोवेश संयुक्त
राष्ट्र संघ की सीमा खासकर सुरक्षा परिषद के अन्तर्गत पीटो के अधिकार प्राप्त देशों
के प्रमुत्व को भी समझ गए थे।
इस बीच चीन द्वारा भारत पर किए गए हमले ने भारत की प्रतिष्ठा
को काफी नुकसान पहुंचाया और विश्व भर में समानता और एकाधिकार के खिलाफ होने वाले आंदोलन
को भी भारत चीन युद्ध से काफी नुकसान पहुंचा। इसके परिणामस्वरूप भारत से भी अपनी रक्षा
हेतु आक्रामकता की अपेक्षा देश व दुनिया द्वारा की गई और अंतत भारत को भी इस कथित मुख्यधारा
की विश्व व्यवस्था को अपनाना पड़ा। इतना ही नहीं संपन्न एवं औद्योगिक रूप से विकसित
देशों ने अपने हितो को साधते हुए गुटनिरपेक्ष आंदोलन को कमोवेश नजरों से ओझल ही करा
दिया।
जारी - साभार चिन्मय मिश्र
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