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संविधान :संघर्ष और बदलाव के लिए संविधान आधारित दृष्टिकोण का संक्षि‍प्‍त दस्‍तावेज

ऐतिहासिक पृष्ठभूमि 
 
जब यह तय हो गया कि‍ भारत को आाजादी मि‍लनी है तो देश को चलाने के लि‍ए एक संवि‍धान बनाने की प्रक्रि‍या शुरू हुई। इसके लिए एक संविधान सभा का गठन किया गया। 299 सदस्‍यों वाली संविधान सभा ने 2 साल, 11 महीने और 18 दिनों की अवधि‍ में 166 दिन बैठकें कीं। 26 नवंबर 1949 को संविधान अंगीकार कि‍या गया। संविधान को 26 जनवरी 1950 को लागू किया गया।
भारत का संविधान शासन की मूल इकाई के रूप में गांव या बस्ती को केन्द्रीय नहीं मानता, यह व्यक्ति को केन्द्र में रखता है; यानी नागरिकों के निकाय सर्वोपरी रखे गए। संविधान का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है इसकी उद्देशिका। जिसकी शुरुआत होती है “हम भारत के लोग” से। संविधान किसी समूह या सरकार या व्यवस्था का संविधान नहीं है। यह भारत के लोगों के द्वारा, भारत के लोगों के लिए बनाया गया संविधान है।

संविधान क्या है ?

देश किन सिद्धांतों का पालन करेगा? शासन के मूलभूत सिद्धांत क्या होंगे? व्यवस्था में कौन-कौन से हिस्से होंगे? जिम्मेदारियां और दायित्व क्या होंगे? यदि कहीं कोई सुधार की जरूरत है, तो वे सुधार कैसे किये जायेंगे?  इन सब बातों का उल्लेख संविधान में है। 

संविधान एक सर्वोत्‍तम व्यवस्था बनाने के लिए तय किए गए सिद्धांतों, नियमों, काम करने की प्रक्रिया, दायित्वों और अधिकारों को परिभाषित करने वाली किताब है। जिसका पालन करना हमारे समाज और सरकार दोनों के लिए जरूरी है। हमारे संविधान में अब 25 भाग, 12 अनुसूचियां और 395 अनुच्छेद हैं। 

समाज और संविधान 

हमारा जीवन हम दो तरह की व्यवस्थाओं से मिलकर संचालि‍त होता है। एक - वे व्यवस्थाएं, जिन पर हमारा नियंत्रण है; जैसे हमारा अपना व्यवहार, खानपान, परि‍श्रम, देखरेख, खेती, कला, प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण।  
इसके साथ ही दूसरी वे व्यवस्थाएं, जिन पर एक व्यापक पहल की जरूरत होती है। ये पहल करता है राज्य।
समाज में व्‍याप्‍त गैर-बराबरी, भेदभाव, छुआछूत जैसी स्थितियां खत्‍म हों, इसके लिए नियम भी बनाने पड़ते हैं। नियम विधायिका (संसद और विधान सभा) बनाती हैं।
संविधान और क़ानून का क्रियान्वयन सही ढंग से न होने या कोई विवाद होने की स्थिति में समाधान के लिए न्यायपालिका मुख्य भूमिका निभाती है। 

समाज और राज्य के बीच के रिश्ते 

एक रूप में समाज और राज्य (यहाँ राज्य का मतलब है विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका का जोड़) के बीच एक गहरा रिश्ता बने, उनके बीच विरोधभास न हो, इसके लिए दोनों के बीच एक तरह का अनुबंध होता है।

संविधान की उद्देशिका में उन मूल्यों का विवरण है, जिनके आधार पर संविधान का अधिनियमन होगा या कि उसे लागू किया जाएगा। 

एक अच्छे देश/समाज के निर्माण के लिए व्यवस्था की जरूरत होती है। संविधान उस व्यवस्था को तय करता है। मकसद है हर व्यक्ति को सम्मानजनक जीवन जीने का अधिकार समानता और न्याय मिले।

संविधान में हर व्यक्ति के मौलिक अधिकारों का उल्लेख है। नीति आधारित अधिकार नीति निर्देशक तत्वों में समाहि‍त हैं।

नागरिकों के मौलिक अधिकारों को मूल कर्तव्यों से अलग करके नहीं देखा जा सकता है
इन अधिकारों (मौलिक अधिकार और नीति निर्देशक तत्व आधारित अधिकार) को मूर्त रूप देने के लिए क़ानून/नियम/नीतियां बनाए जाते हैं।

क़ानून बनाने का अधिकार “विधायिका” (विधानसभा और संसद) को दिया गया है।

जो क़ानून विधायिका बनाती है, उनके लिए नियम और प्रक्रिया बनाने की जिम्मेदारी कार्यपालिका की होती है। कार्यपालिका नीतियों को बनाने के लिए भी अधिकृत है। कार्यपालिका में मंत्रियों का समूह, योजना/कार्यक्रम लागू करने वाले अधिकारी/कर्मचारी होते हैं। कार्यपालि‍का संविधान के प्रति जवाबदेय है। 

जब कोई क़ानून उसके मंतव्य के मुताबिक लागू नहीं होता है या व्यक्ति के मौलिक अधिकार का हनन होता है, तब व्यक्ति “न्यायपालिका” के पास जाकर अपने हक हासिल कर सकता है।
{जब हम “राज्य” शब्द का उल्लेख करते हैं, तब उसका मतलब मध्यप्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, उत्तरप्रदेश, राजस्थान आदि‍ नहीं होते हैं। विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के जोड़ से बनी व्यवस्था को “राज्य” माना जाता है।}

संविधान में राज्‍य, केन्‍द्र, ग्रामीण और शहरी नि‍कायों की जि‍म्‍मेदारि‍यों का उल्‍लेख है। यहाँ हम कुछ चुनिन्दा जिम्मेदारियों का उल्लेख कर रहे हैं।

जि‍म्‍मेदारि‍यां
केंद्र सरकार की जिम्मेदारियां सातवीं अनुसूची

राज्य सरकार की जिम्मेदारियां
समवर्ती सूची

ग्रामीण स्थानीय निकाय
ग्यारहवीं अनुसूची
शहरी स्थानीय निकाय
बारहवीं अनुसूची,
देश की रक्षा से सम्बंधित विषय, सभी सेनाएं, आयुधों का निर्माण
केंद्रीय सूचना और अन्वेषण ब्यूरो
संयुक्त राष्ट्र संघ और अंतर्राष्ट्रीय सम्बन्ध
युद्ध और शान्ति
समुद्री परिवहन, रेल, राजमार्ग, वायुमार्ग और विमानन
लोक ऋण, भारतीय रिज़र्व बैंक, डाकघर बचत बैंक, डाक-तार, दूरसंचार, बीमा, स्टाक एक्सचेंज, पेटेंट, आविष्कार
खनन, टेक क्षेत्र, खनिज, अफीम खेती, राष्ट्रीय पुस्तकालय, फिल्मों को मंज़ूरी, जनगणना, संघ लोक सेवाएं
कृषि से भिन्न कर निर्धारण, शुल्क, निगम कर, अन्य कर

लोक व्यवस्था, राज्य की सुरक्षा
लोक स्वास्थ्य, स्वच्छता, अस्पताल और औषधालय
राज्य पुस्तकालय
सड़कें, पुल
कृषि क्षेत्र, पशुधन, कांजी हाउस, मत्स्यिकी
बाज़ार और मेले, ऋण मुक्ति के प्रयास, सहकारिता
राज्य का बजट और लोक ऋण, भू-राजस्व, कृषि आय पर कर, भूमि-भवनों पर कर, खनिज सम्बन्धी अधिकारों पर कर, पथकर, प्रति व्यक्ति कर,

कृषि भूमि से भिन्न सम्पत्ति का अंतरण, काज्गों और दस्तावेजों का पंजीयन,
किसी राज्य की सुरक्षा, लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिए व्यवस्था बनाना/निवारक निरोध
विवाह और विवाह विच्छेद, दत्तक ग्रहण,
पशुओं के प्रति क्रूरता का निवारण, मानसिक रोगों से ग्रस्त लोगों का उपचार,
आर्थिक और सामाजिक योजना व्यापार, संघ, औद्योगिक एकाधिकार, गुट और न्यास
सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक बीमा, बेरोज़गारी, श्रमिकों का कल्याण, जन्म-मृत्यु पंजीयन और सांख्यिकी
शिक्षा
मानवों, पशुओं और पौधों पर प्रभाव डालने वाले संक्रामक के एक राज्य से दूसरे राज्य में फैलने का निवारण
कीमत नियंत्रण, कारखाने, बिजली

 कृषि, भूमि विकास, भूमि संरक्षण, लघु सिंचाई, जल प्रबंध क्षेत्र का विकास, पशुपालन, डेयरी, मत्स्य उद्द्योग
लघु वन उपज, सामाजिक वानिकी, लघु उद्योग, ग्राम उद्योग, खादी उद्योग, पीने का पानी, ईंधन और चारा, अपारंपरिक उर्जा स्रोत, सड़कें, पुलिया, जल मार्ग, फैरी आदि
गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम, शिक्षा
सांस्कृतिक क्रियाकलाप,
बाज़ार और मेले।
स्वास्थ्य, स्वच्छता, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, परिवार कल्याण
महिला एवं बाल विकास, समाज कल्याण, अनुसूचित जाति और जनजातियों का कल्याण
सार्वजनिक वितरण प्रणाली

नगरीय योजना बनाना, जिसमें नगर योजना शामिल है
भूमि उपयोग और भवनों के निर्माण की व्यवस्था
आर्थिक-सामाजिक विकास योजना
सड़कें और पुल
जल प्रदाय, लोक स्वास्थ्य, सफाई-स्वच्छता, कूड़ा-करकट प्रबंधन
गन्दी बस्ती का सुधार
जन्म-मृत्यु सांख्यिकी और पंजीयन
सार्वजनिक सुविधाएँ बनाना

समाज स्वस्थ और सुरक्षित हो; शान्ति और समानता के आधार पर आगे बढे, इसके लिए राज्य (मुख्य रूप से विधायिका और कार्यपालिका) को यह जिम्मेदारी दी गयी है कि वह जरूरी व्यवस्थाएं बनाए और उन्हें लागू करे। इसके लिए राज्य की जिम्मेदारी है कि वह अलग-अलग तरह की व्यवस्थाएं बनाये। एक तरह से समाज ने राज्य  को ऐसी जिम्मेदारियों को निभाने के लिए नियुक्त किया है। बदले में हम उन्हें क़ानून बनाने, सजा देने और कर लगाने का अधिकार देते हैं।

उद्देशिका के मायने
हम भारत के लोग, भारत को >> भारत के संविधान का निर्माण और अधिनियमन भारत के लोगों ने अपने प्रतिनिधियों के माध्यम से किया है, न कि इसे किसी राजा या बाहरी व्यक्तियों ने उन्हें दिया है।
समाजवादी >> समाज में सम्पदा सामूहिक रूप से पैदा होती है और समाज में उसका बंटवारा समानता के साथ होना चाहिए। सरकार जमीन और उद्योग-धंधों की हकदारी से जुड़े कायदे-क़ानून इस तरह बनाए कि सामाजिक-आर्थिक असमानताएं कम हों।
प्रभुत्व-संपन्न >> लोगों को अपने से जुड़े हर मामले में फैसला करने का सर्वोच्च अधिकार है। कोई भी बाहरी शक्ति भारत की सरकार को आदेश नहीं दे सकती है।

पंथ-निरपेक्ष >> नागरिकों को किसी भी धर्म को मानने की पूरी स्वतंत्रता है। लेकिन कोई धर्म आधिकारिक धर्म नहीं है। सरकार सभी धार्मिक मान्यताओं और आचरणों को समान सम्मान देती है।
“हम, भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण
प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी,
पंथ निरपेक्ष लोकतंत्रात्मक
गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को
सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म
और उपासना की
स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और
राष्ट्र की एकता और अखंडता
सुनिश्चित करने वाली
बंधुता बढ़ाने के लिए
दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में
आज तारीख 26 नवम्बर, 1949 ई.
को एतदद्वारा इस संविधान को अंगीकृत,
अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।“
लोकतंत्रात्मक >> सरकार का एक ऐसा स्वरुप जिसमें लोगों को समान राजनैतिक अधिकार प्राप्त रहते हैं, लोग अपने शासन का चुनाव करते हैं और उसे जवाबदेय बनाते हैं। यह सरकार कुछ बुनियादी नियमों के अनुरूप चलती है।

न्याय >> नागरिकों के साथ उनकी जाति, धर्म और लिंग के आधार पर भेदभाव नहीं किया जा सकता है।
गणराज्य >> शासन का प्रमुख लोगों द्वारा चुना हुआ व्यक्ति होगा, न कि किसी वंश या राज-खानदान का।
स्वतंत्रता >> नागरिक कैसे सोचें, किस तरह अपने विचारों को अभिव्यक्त करें और अपने विचारों पर किस तरह अमल करें; इस पर कोई अनुचित पाबंदी नहीं है।
समता >> क़ानून के समक्ष सभी लोग समान हैं। पहले से चली आ रही सामाजिक असमानताओं को समाप्त करना होगा। सरकार हर नागरिक को समान अवसर उपलब्ध कराने के व्यवस्था करे।
बंधुता >> हम सभी ऐसा आचरण करें जैसे कि हम एक परिवार के सदस्य हों। कोई भी नागरिक किसी दूसरे नागरिक को अपने से कमतर न माने। 
स्रोत- लोकतांत्रिक राजनीति (कक्षा-नौ), पृष्ठ 55, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद (एनसीईआरटी), नवंबर 2010;






संविधान के हिस्से
भारत के संविधान में जो बातें कही गयी हैं, वे वास्तव में हमारी व्यवस्था के मूल सिद्धांत हैं। इसी किताब में लिखा गया है कि –
1.               पहला भाग बताता है कि भारत राज्यों का संघ होगा। संसद विधि के मुताबिक नए राज्यों की स्थापना कर सकेगी।
2.               दूसरा भाग नागरिकता के सम्बन्ध में है।
3.               तीसरे भाग में सबके मूल अधिकारों का उल्लेख है।
4.               चौथे भाग में राज्य की नीति के निदेशक तत्वों और नागरिकों की मूल कर्तव्य।
5.               पांचवे भाग में कार्यपालिका और उसके कामों-स्वरुप और जिम्मेदारियां। भारत के राष्ट्रपति और केन्द्रीय मंत्रिपरिषद की भूमिका। संसद यानी विधायिका और न्यायपालिका की शक्तियों-भूमिका।
6.               छठवें भाग में राज्य उसके कार्यकारी स्वरुप, राज्यपाल और केन्द्रीय मंत्री-परिषद की भूमिका। राज्य की कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका की शक्तियां ।
7.               सातवें भाग को संविधान संशोधन के जरिये निरसित कर दिया गया है।
8.               आठवें भाग में संघ राज्य क्षेत्र यानी केंद्र शासित प्रदेशों मायनों और व्यवस्था का उल्लेख है। इन राज्यों का प्रशासन राष्ट्रपति द्वारा किया जाता है।
9.               नवमें भाग में पंचायतों और ग्रामसभा की व्यवस्था, उनके अधिकारों और काम और नगर पालिकाओं का वि‍वरण ।
10.           दसवें भाग में देश के अनुसूचित और जनजाति क्षेत्र। पांचवीं और छठवीं अनुसूची में आदिवासी क्षेत्रों में आदिवासी समुदायों के हितों का संरक्षण सुनिश्चित किया गया है।
11.           ग्यारहवें भाग में संघ (यानी केंद्र) और राज्य (यानी राज्य सरकारें), विभिन्न राज्यों के बीच के संबंध ।
12.           बारहवें भाग में संघ और राज्यों के बीच राजस्वों के वितरण, उधार लिए जाने और संपत्ति के अधिकार को स्पष्ट किया गया है।
13.           तेरहवें भाग में भारत के राज्य क्षेत्र के भीतर व्यापार, वाणिज्य और समागम को स्पष्ट किया गया है।
14.           चौदहवें भाग में संघ (यानी केंद्र) और राज्यों के अधीन सेवाओं, अधिकारों की नियुक्ति की प्रक्रिया को स्पष्ट किया गया है।
15.           पन्द्रहवें भाग में चुनावों की प्रक्रिया, व्यवस्था और जिम्मेदारियों का उल्लेख है।
16.           सोलहवें भाग में कुछ विशेष तबकों (अजा और अजजा) के लिए आरक्षण । इस भाग के मुताबिक राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग और राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग संवैधानिक संस्थान हैं।
17.           सत्रहवें भाग में राजभाषा यानी सरकार के कामकाज की भाषा, केंद्र सरकार की भाषा, प्रादेशिक भाषाओं, उच्चतम और उच्च न्यायालयों की भाषा।
18.           अठारहवें भाग में आपात उपबंध हैं यानी कि‍न्‍हीं आपातकालीन स्थितियों में कार्यपालिका की शक्तियां बहुत बढ़ जाती हैं।
19.           उन्नीसवें भाग में राष्ट्रपति, राज्यपालों और राज्य प्रमुखों को संरक्षण दिए जाने के प्रावधान हैं।
20.           बीसवें भाग में यह बताया गया है कि संविधान में संशोधन करने की शक्ति संसद के पास है और इसके लिए उन्हें गंभीर प्रक्रिया का संचालन करना होता है।
21.           इक्कीसवें भाग में संसद को अस्थायी संक्रमणकालीन और विशेष उपबंध बनाने का अधिकार है। जम्मू और काश्मीर, नागालैंड, आसाम, मिजोरम, सिक्किम, अरुणचल प्रदेश, गोवा, आंध्र प्रदेश आदि राज्यों के लिए कुछ खास व्यवस्थाएं की गयी हैं।
22.           बाइसवें भाग में संविधान के नाम, उसकी शुरुआत की तारीख का उल्लेख है।   

राज्य मतलब क्या ?

निश्चित क्षेत्र में फैली राजनीतिक इकाई, जिसके पास संगठित सरकार हो और घरेलू तथा विदेशी नीतियों को बनाने का अधिकार हो। सरकारें बदल जाती हैं, पर राज्य बना रहता है। राज्य विधायिका के जरिये क़ानून बना सकता है, कार्यपालिका के जरिये उसे लागू कर सकता है, क़ानून की समीक्षा कर सकता है और न्यायपालिका संविधान की भावना के मुताबिक न्यायिक कार्य करती है। 

 (स्रोत-लोकतांत्रिक राजनीति, एनसीईआरटी, कक्षा-नौ)

हमारा संविधान व्यवस्था की चाभी किसी एक मंच या संस्था को नहीं देता है। न्यायपालिका को कानूनों के आधार पर न्याय करने का अधिकार है, किन्तु उसके पास क़ानून बनाने का अधिकार नहीं है। क़ानून बनाने का अधिकार विधायिका के पास है। इसी तरह कार्यपालिका को कानूनी निर्णय सुनाने का अधिकार नहीं है, उसकी जिम्मेदारी है क्रियान्वयन की। हमारा संविधान लोकतंत्र के निर्माण के लिए तीन स्तंभों – विधायिका, न्यायपालिका और कार्यपालिका की रचना करता है।
इन तीनों स्तंभों के अपने-अपने काम, शक्तियां और जिम्मेदारियां हैं। ये एक-दूसरे की कार्यक्षेत्र का अतिक्रमण नहीं करते हैं। एक स्तर पर ये एक दूसरे से स्वतंत्र हैं और एक स्तर पर एक-दूसरे से बहुत जुड़े हुए हैं।  

संविधान के मुताबिक “राज्य” के तीन हिस्से हैं – 

1)      विधायिका – विधायिका जनप्रतिनिधियों की सभा है। जिसके पास देश का क़ानून बनाने का उत्तरदायित्व होता है। क़ानून बनाने के अलावा विधायिका को कर लगाने, बढ़ाने, बजट बनाने और दूसरे वित्त विधेयकों को बनाने का अधिकार होता है। इसमें हमारी संसद (लोकसभा और राज्य सभा), राज्यों की विधान सभा, विधान मंडल शामिल हैं।

लोकसभा का अध्यक्ष वही व्यक्ति बनता है, जो लोकसभा चुनावों के जरिये लोकसभा का सदस्य चुना गया हो।

भारत के उपराष्ट्रपति राज्य सभा के सभापति होते हैं।

विधायिका की जिम्मेदारी होती है देश की व्यवस्था बनाने के लिए संविधान की भावना के अनुरूप क़ानून बनाना।

विधान सभा का अध्यक्ष वही व्यक्ति बनता है, जो विधानसभा चुनावों के जरिये विधानसभा का सदस्य चुना गया हो।


2)      कार्यपालिका - हमारे राष्ट्रपति इसके प्रमुख होते हैं। राष्ट्रपति को सहायता करने और काम करने में सहयोग देने का काम मंत्रिपरिषद करती है। वास्तव में कार्यपालिका की जिम्मेदारी होती है संविधान की भावना के मुताबिक सरकारी कार्यों का संचालन करे। हम जानते हैं कि विधायिका का काम “क़ानून बनाना” है; पर उन्हें लागू/क्रियान्वित करने और लोगों तक पंहुचाने की जिम्मेदारी कार्यपालिका की होती है।  संविधान “क़ानून के शासन” में विश्वास करता है, अतः कार्यपालिका की जिम्मेदारी है कि वह संविधान की उद्देशिका को ध्यान में रखते हुए क़ानून/नीति/नियम लागू करे।

3)      न्यायपालिका – इसमें भारत के उच्चतम न्यायालय और राज्यों के उच्च न्यायालय शामिल हैं। इसके साथ की इस व्यवस्था में अधीनस्थ न्यायालय भी आते हैं। सर्वोच्च न्यायालय के प्रमुख होते हैं मुख्य न्यायाधीश। जरूरत पड़ने पर संविधान के प्रावधानों की व्याख्या करने का अधिकार भी न्यायपालिका का ही होते है। 

भारतीय न्यायपालिका में पूरे देश के लिए सर्वोच्च न्यायालय, राज्यों में उच्च न्यायालय, जिला न्यायालय और स्थानीय स्तर के न्यायालय होते हैं। भारत में न्यायपालिका एकीकृत है। इसका मतलब है कि सर्वोच्च न्यायालय देश के न्यायिक प्रशासन को नियंत्रित करता है। देश की सभी अदालतों को उसका फैसला मानना होता है। वह इनमें से किसी भी विवाद की सुनवाई कर सकता है –

·         देश के नागरिकों के बीच के विवाद,
·         नागरिकों और सरकार के बीच के विवाद,
·         दो या दो से अधिक राज्य सरकारों के बीच के विवाद,
·         केंद्र और राज्य सरकार के बीच के विवाद

यह फौजदारी और दीवानी मामलों में अपील के लिए सर्वोच्च न्यायिक संस्था है।

राज्य के स्तर पर उच्च न्यायालय होते हैं। ये प्रदेश के स्तर पर नागरिकों के बीच के विवाद, नागरिकों और सरकारों के बीच के विवादों और फौजदारी-दीवानी मामलों में अपील से सम्बंधित सुनवाई करते हैं।   

सर्वोच्च न्यायालय और उच्च न्यायालयों को देश के संविधान की व्याख्या करने का अधिकार है।

अगर उन्हें लगता है कि विधायिका का कोई क़ानून या कार्यपालिका की कोई कार्यवाही संविधान के खिलाफ है, तो वे केंद्र और राज्य स्तर पर ऐसे कानूनों को अमान्य घोषित कर सकते हैं।
 
स्पष्ट अर्थों में कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका, इन तीनों स्तंभों से मिलकर ही “राज्य” का निर्माण होता है। (स्रोत - लोकतांत्रिक राजनीति (कक्षा-नौ), पृष्ठ 99-100, राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसन्धान और प्रशिक्षण परिषद (एन सी ई आर टी), नवंबर 2010;)
संविधान देश के लोगों को क्या अधिकार देता है ?

वास्तव में आम लोगों के अधिकारों के मद्देनज़र यह प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। हमारे संविधान में लोगों के अधिकारों को दो भागों में परिभाषित किया गया है।

1.       मूल अधिकार (संविधान का भाग-3)
2.       राज्य की नीति के निदेशक तत्व और नागरिकों के मूल कर्तव्य (संविधान का भाग-4)

मूल अधिकार 

मूल अधिकारों का मतलब है कि किसी भी व्यक्ति को गरिमामय जीवन जीने के लिए जरूरी संरक्षण और अधिकार मिलना। यह राज्य की जिम्मेदारी है कि लोगों के मूल अधिकारों को सुनिश्चित करेगा। लोगों के मूल अधिकारों को उपलब्ध करवाने के लिए राज्य बाध्य है।

यदि किसी व्यक्ति के मूल अधिकारों का हनन होता है, तो वह न्यायालय की शरण ले सकता है। जहाँ न्यायपालिका सरकार को आदेशित कर सकती है कि वह नागि‍रक के मूल अधिकारों का संरक्षण करे।

मूल अधिकारों में मुख्यतः शामिल हैं –

1.             अनुच्छेद 14 - क़ानून के सामने सभी को समान माना जाना और क़ानून का संरक्षण देना।
2.             अनुच्छेद 15 - धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर किसी भी तरह का भेदभाव नहीं किया जाना।
3.             अनुच्छेद 16 - लोक नियोजन (रोज़गार) के विषय में समान अवसर मिलना (इसके तहत अनुसूचित जाति एवं जनजातियों को आरक्षण की सहमति दी गयी है)।
4.             अनुच्छेद 17 - अस्पृश्यता (हर तरह की छुआछूत) का अंत
5.             अनुच्छेद 18 - उपाधियों का अंत – राजा, महाराजा, श्रीमंत सरीखी उपाधियों की समाप्ति
6.             अनुच्छेद 19 - अपनी बात कहने, समूह बनाने, देश के भीतर आने-जाने, कहीं रहने और काम-रोज़गार -  अ) वाक्-स्वातंत्र्य और अभिव्यक्ति स्वातंत्र्य यानी अपनी बात कहने और विचार अभिव्यक्ति करने का अधिकार। ब) शांतिपूर्वक निःशस्त्र सम्मेलन का अधिकार, स) संगम, संघ या संगठन बनाने का अधिकार। द) भारत के क्षेत्र में स्वतंत्र रूप से बिना रोकटोक घूमने-जाने का अधिकार, इ) भारत के क्षेत्र के किसी भाग में निवास करने और बस जाने का अधिकार, ई) कोई भी रोज़गार, आजीविका, व्यापार या कारोबार करने का अधिकार।
(इनसे देश की सुरक्षा, किसी अन्य देश से रिश्तों, लोक व्यवस्था खंडित होने, शिष्टाचार के हितों के प्रभावित होने या मानहानि या अपराध फैलने का खतरा नहीं हो।)
7.             अनुच्छेद 20 - अपराधों के लिए दोषसिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण – क़ानून के मुताबिक होना।
8.             अनुच्छेद 21 और 21-क - प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण। अब इसमें ही शिक्षा का अधिकार भी शामिल है।
9.             अनुच्छेद 22 - कुछ दशाओं में गिरफ्तारी और निरोध से संरक्षण – गिरफ्तारी के कारण तत्काल बताए जाना, वकील से बात करने का अधिकार, 24 घंटे में निकटतम मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश किया जाना।
10.         अनुच्छेद 23 - मानव के दुर्व्यापार और बलात्-श्रम पर रोक – इंसानों का व्यापार-खरीद-फरोख्त नहीं होगी, किसी से जबरिया मजदूरी या श्रम नहीं करवाया जाए यानी बंधुआ मजदूरी नहीं करवाई जायेगी।
11.         अनुच्छेद 24 - कारखानों आदि में बच्चों द्वारा मजदूरी नहीं – 14 साल से कम उम्र के बच्चों को कारखाने, खान या किसी संकट वाले स्थान पर काम में नहीं लगाया जाएगा यानी बाल श्रम नहीं।
12.         अनुच्छेद 25 - अंतःकरण की और धर्म के अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता – लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य के अधीन रहते हुए सभी व्यक्तियों को ध्यान-प्रार्थना करने और अपने धर्म को मानने और उसका प्रचार करने की स्वतंत्रता है।

ख. सामाजिक कल्याण और सुधार के लिए या सार्वजनिक प्रकार की हिंदुओं की धार्मिक संस्थाओं को हिंदुओं के सभी वर्गों और अनुभागों के लिए खोलने का उपबंध करती है।
13.         अनुच्छेद 26 - धार्मिक कार्यों के प्रबंध की स्वतंत्रता – धार्मिक संस्थाओं की स्थापना, उनके कार्यक्रमों और कार्यों का प्रबंध करने का अधिकार।
14.         अनुच्छेद 27 - किसी विशिष्ट धर्म की अभिवृद्धि के लिए करों के संदाय के बारे में स्वतंत्रता – किसी खास धर्म के प्रचार या काम या विस्तार के लिए किसी व्यक्ति को कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है।
15.         अनुच्छेद 28 - कुछ शिक्षा संस्थाओं में धार्मिक शिक्षा या धार्मिक उपासना में उपस्थित होने के बारे में स्वतंत्रता – पूरी तरह से सरकार के धन से चलने वाली शिक्षा संस्था में कोई धार्मिक शिक्षा नहीं दी जाएगी। किसी न्यास की शिक्षा संस्था में ऐसा हो सकता है। राज्य से मान्यता प्राप्त या सहायता पाने वाली शिक्षा संस्था में धार्मिक उपासना या व्यवहार में शामिल होने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जाएगा।
16.         अनुच्छेद 29 - अल्पसंख्यक वर्गों के हितों का संरक्षण – भाषा, लिपि या संस्कृति को बनाये रखने का अधिकार।
17.         अनुच्छेद 30 - शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गों का अधिकार
18.         अनुच्छेद 32 - मूल अधिकारों में दिए गए अधिकारों को लागू करने का अधिकार – निर्धारित प्रक्रिया के तहत उच्चतम न्यायालय को कार्यवाही करने का अधिकार है। इन मामलों में उच्चतम न्यायालय आदेश दे सकता हैं।

 राज्य की नीति के निदेशक तत्व 

इस भाग में नागरिकों के कुछ अधिकारों का उल्लेख किया गया है। इन तत्वों के आधार पर सरकार क़ानून बना सकती है। इसके तहत समाहि‍त प्रावधान या अधिकार को लेकर हम न्यायालय में नहीं जा सकते हैं। यानी सरकार ये अधिकार देने के लिए बाध्य नहीं है; लेकिन संविधान कहता है कि देश की शासन में ये अधिकार/तत्व मूलभूत हैं और कोई भी क़ानून बनाते समय इन्हें केन्द्र में रखना सरकार का कर्तव्य होगा। 

1.             राज्य लोक कल्याण की अभिवृद्धि के लिए सामाजिक व्यवस्था– इसमें सामाजिक, आर्थिक राजनैतिक न्याय शामिल है। आय की असमानताओं को कम करने और हर स्तर पर प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता को समाप्त करने का प्रयास करेगा। (अनुच्छेद 38)
2.             राज्य द्वारा अनुसरणीय कुछ नीति तत्व –
क.          पुरुष और स्त्री सभी नागरिकों को जीविका के समान और पर्याप्त अवसर,
ख.          सामूहिक हितों के हिसाब से भौतिक संसाधनों का स्वामित्व और नियंत्रण
ग.           आर्थिक व्यवस्था ऐसे चले, जिससे धन और उत्पादन–साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी संकेन्द्रण न हो
घ.           महिला और पुरुषों को समान काम के लिए समान वेतन मिले
ङ.            महिला और पुरुष कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बच्चों की सुकुमार अवस्था का दुरूपयोग न हो और आर्थिक अवस्था से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोज़गार में न जाना पड़े, जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हों।
च.           बच्चों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएँ दी जाएँ और बच्चों और किशोर (अल्पवय) व्यक्तियों की शोषण से नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाए। (अनुच्छेद 39)
3.             समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता राज्य यह सुनिश्चित करेगा कि कानूनी तंत्र इस प्रकार काम करे कि समान अवसर के आधार पर न्याय सुलभ हो और कोई गरीबी या किसी अभाव के कारण न्याय के अवसर से वंचित न रह जाए। (अनुच्छेद 39 क)
4.             ग्राम पंचायतों का संगठन – ताकि वे स्वायत्त शासन की इकाइओं के रूप में काम करने के योग्य बने। (अनुच्छेद 40)
5.             कुछ दशाओं में काम, शिक्षा और लोक सहायता पाने का अधिकार - बेकारी, बुढ़ापा, निःशक्तता और अन्य अभाव की दशाओं में लोक सहायता। (अनुच्छेद 41)
6.             काम की न्याय संगत और मानवोचित दशाओं का तथा प्रसूति सहायता पाना। (अनुच्छेद 42)
7.             कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदि – कृषि, उद्द्योग या अन्य प्रकार के कर्मकारों को काम, निर्वाह मजदूरी (जिससे अच्छा जीवन जिया जा सके), अवकाश देने वाली काम के दशाएं बनाने का प्रयास। (अनुच्छेद 43)
8.             नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता। (अनुच्छेद 44)
9.             बाल्यावस्था यानी छह साल से कम की देखरेख एवं शिक्षा के लिए प्रावधान। (अनुच्छेद 45)
10.         अजा/अजजा और अन्य कमज़ोर तबकों की शिक्षा और आर्थिक हितों की सुरक्षा। (अनुच्छेद 46)
11.         पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने का राज्य का कर्तव्य – राज्य अपने लोगों के पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को ऊँचा करने और लोक स्वास्थ्य के सुधार को अपना प्राथमिक कर्तव्य मानेगा। और राज्य, विशिष्टतया, मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिए हानिकर औषधियों के, औषधीय प्रयोजन से भिन्न, उपभोग का प्रतिषेध करने का प्रयास करेगा। (अनुच्छेद 47)
12.         कृषि और पशु पालन संगठन – पशुधन का संरक्षण और पर्यावरण का संरक्षण तथा संवर्धन और जंगल तथा वन्य जीवों की रक्षा। (अनुच्छेद 48)
13.         राष्ट्रीय महत्व के स्मारकों, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण। (अनुच्छेद 49)
14.         कार्यपालिका से न्यायपालिका को अलग रखना। (अनुच्छेद 50)
15.         अंतर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को बढ़ावा। (अनुच्छेद 51)

मूल कर्तव्य 

(भाग 4 क)  अनुच्छेद 51क – मूल कर्तव्य
भारत का संविधान हमारे कर्तव्यों को भी परिभाषित करता है।
(क)             संविधान का पालन करे और उसके आदर्शों, संस्थाओं, राष्ट्र ध्वज, राष्ट्र गान का आदर करे;
(ख)             स्वतंत्रता के लिए हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेरित करने वाले उच्च आदर्शों को हृदय में संजोये रखे और उनका पालन करे;
(ग)              भारत की प्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा करे और उसे अक्षुण्‍ण रखे;
(घ)              देश की रक्षा करे और आह्वान किये जाने पर राष्ट्र की सेवा करे;
(ङ)               भारत के सभी लोगों में समरसता और समान  भ्रातृत्व की भावना का निर्माण करे, जो धर्म, भाषा और प्रदेश या वर्ग पर आधारित सभी भेदभाव से परे हो, ऐसी प्रथाओं का त्याग करे, जो स्त्रियों के सम्मान के विरुद्ध है;
(च)              हमारी सामासिक संस्कृति की गौरवशाली परंपरा का महत्व समझे और उसका परिरक्षण करे;
(छ)             प्राकृतिक पर्यावरण की, जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, की रक्षा करे और उसका संवर्धन करे तथा प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखे;
(ज)             वैज्ञानिक दृष्टिकोण, मानववाद और ज्ञानार्जन तथा सुधार की भावना का विकास करे;
(झ)             सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखे और हिंसा से दूर रहे;
(ञ)              व्यक्तिगत और सामूहिक गतिविधियों के सभी क्षेत्रों में उत्कर्ष की ओर बढ़ने का सतत प्रयास करे, जिससे राष्ट्र निरंतर बढते हुए प्रयतन और उपलब्धि की नयी उंचाइयां छू ले;
(ट)               छह वर्ष की आयु से चौदह वर्ष की आयु के बच्चों के माता-पिता और प्रतिपाल्य के संरक्षक, जैसा मामला हो, उन्हें शिक्षा के अवसर प्रदान करे।

स्थानीय शासन व्यवस्था और संविधान

अनुसूचित और जनजाति क्षेत्र (पांचवी अनुसूची)

·         भारत में संविधान के तहत अनुसूचित क्षेत्रों (ऐसे क्षेत्र जहाँ अनुसूचित जनजाति समुदाय यानी आदिवासी समुदाय रहता है) के प्रशासन और नियंत्रण की व्यवस्था की गयी है।
·         इस व्यवस्था में राष्ट्रपति और राज्यपाल की भूमिका बहुत अहम है। 

·         जहां अनुसूचित जनजाति समुदाय निवास करता है, वहां जनजाति सलाहकार परिषद स्थापित की जाएगी। इसमें बीस सदस्य होंगे। इसमें से तीन चौथाई सदस्य वे होंगे जो राज्य विधान सभा में अनुसूचित जनजाति समुदाय के प्रतिनिधि हैं। 

·         यह परिषद राज्य की अनुसूचित जनजातियों के कल्याण और उन्नति के लिए सलाह देती है।
·         इस व्यवस्था के तहत राज्यपाल आदिवासी समुदाय की भीतरी, उनके सम्मान और व्यवस्था की सुरक्षा-संरक्षण के मद्देनज़र अनुसूचित क्षेत्र में राज्य के किसी भी क़ानून को लागू करने से रोक सकता है या उसमें बदलाव करवा सकता है। ऐसा लोक अधिसूचना के जरिए किया जाएगा।
·         संविधान की इस व्यवस्था के तहत शान्ति और सुशासन के लिए राज्यपाल नियम बना सकते हैं – इसमें खास तौर पर यह व्यवस्था है कि आदिवासियों की भूमि अधिकारिता की सुरक्षा हो सके।
·         अनुसूचित क्षेत्र में आदिवासी समुदाय के सदस्यों को धन उधार देने वाले साहूकारों का नियमन करने के लिए। ऐसा करने के लिए यदि उन्हें किसी मौजूदा क़ानून में संशोधन करना पड़े या खत्म करना पड़े, तो वह भी किया जाएगा।   

·         अनुसूचित क्षेत्रों के सन्दर्भ में उधार, भूमिया से सम्बंधित नियम-क़ानून तब तक नहीं बनाया जाएगा, जब तक कि जनजाति सलाहकार परिषद से परामर्श न ले लिया जाए।

अनुसूचित और जनजाति क्षेत्र (छठी अनुसूची)

·         छठी अनुसूची के उपबंध आसाम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम राज्यों में जनजाति प्रशासन के लिए लागू होते हैं।
·         इसके तहत स्वशासी जिलों और स्वशासी राज्य की व्यवस्था बनायी गयी है।
·         इन्हें वन भूमि के अलावा भूमि पर क़ानून बनाने की शक्ति है।
·         वे वन का प्रबंध कर सकते हैं।
·         झूम खेती या परिवर्ती खेती का विनियमन कर सकते हैं।
·        सामाजिक रूढियों, संपत्ति की विरासत, विवाह विच्छेद, लोक स्वास्थ्य, नगर पुलिस से सम्बंधित विनियमन कर सकते हैं।
गांव के स्थानीय निकायों यानी पंचायत की ताकत

संविधान का अनुच्छेद 243 ()
 
राज्य का विधान मंडल क़ानून बना कर पंचायतों को स्वायत्त शासन की संस्था के रूप में काम करने के लिए ताकतवर बनाएगा।
क.    पंचायतें आर्थिक विकास और सामाजिक न्याय के लिए योजनाएं तैयार कर सकती हैं;
ख.    वे उन विषयों पर योजनाएं क्रियान्वित करेंगी, जो ग्यारहवीं सूची में सूचीबद्ध हैं;


ग्यारहवीं अनुसूची


ग्यारहवीं अनुसूची में दर्ज विषय कौन से हैं?

इस अनुसूची में वे विषय हैं, जिन पर स्थानीय निकाय या पंचायत योजना बना सकती है और योजनाएं क्रियान्वित कर सकती है। इसमें शामिल हैं –
1.       कृषि, जिसमें कृषि विस्तार भी है। पशु पालन, डेयरी, सामाजिक वानिकी, लघु वन उपज,
2.       भूमि विकास, ग्रामीण आवासन, पीने का पानी, खाड़ी और ग्राम उद्योग, ईंधन 
3.       लघु सिंचाई, जल प्रबंध, सड़कें, पुलिया, ग्रामीण विद्युतीकरण, अपारंपरिक उर्जा स्रोत, प्राथमिक-माध्यमिक शिक्षा, पुस्तकालय, सांस्कृतिक क्रियाकलाप, बाज़ार-मेले,
4.       महिला और बाल विकास, समाज कल्याण, विकलांग व्यक्तियों का कल्याण,
5.       सार्वजनिक वितरण प्रणाली, अनुसूचित जाति-जनजाति समूहों का कल्याण शामिल है।
बारहवीं अनुसूची
बारहवीं अनुसूची में नगरों के लिए नगरीय निकायों के अधिकार है। इसके तहत वे इन विषयों पर काम कर सकते हैं – नगर योजना बनाना, भूमि का उपयोग, भवनों का निर्माण, आर्थिक-सामाजिक विकास योजना, सड़कें, पुल, जल प्रदाय, लोक स्वास्थ्य, स्वच्छता, सफाई, कचरा प्रबंध, अग्नि शमन, नगरीय वानिकी, गन्दी बस्तियों का सुधार, शहरी गरीबी मिटाना, पार्क, उद्यान, कब्रस्तान प्रबंधन, जन्म-मृत्यु का पंजीयन, आदि। 

संविधान संशोधन 

जनहित में संविधान संशोधन किए जा सकते हैं। कोई भी संशोधन संसद के द्वारा पारित किया जा सकता है। इसके लिए संसद के दोनों सदनों – राज्यसभा और लोकसभा, में दो-तिहाई मतों का समर्थन जरूरी होगा। 

व्यवस्था का बनना और उसमें हमारी भूमिका 

हमारा मत यानी वोट 

व्यवस्था को बनाने में हम सबका मत यानी वोट बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अपने संविधान के तहत तय व्यवस्था में लोकसभा, विधानसभा और ग्रामीण-शहरी स्थानीय निकायों के तहत हर पांच सालों में सीधे चुनावों के जरिये हमारे प्रतिनिधि चुने जाते हैं। लोकसभा और विधान सभा के चुने हुए सदस्य मिलकर राज्य सभा के सदस्यों को चुनते हैं। 

हमारे द्वारा दिया गया कर यानी टैक्स 

वि‍कास के काम करने की जिम्मेदारी सरकार की है। और इन्हें करने के लिए आर्थिक संसाधनों यानी पैसों की जरूरत होती है। आप जानते हैं कि सरकार के पास यह पैसा कहाँ से आता है? यह पैसा हम सब मिलकर सरकार को देते हैं। इसे टैक्‍स कहते हैं।

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