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पढ़िए ऐसी कहानी जो आपको अंदर तक हिला देगी

भोपाल के एक ऐतिहासिक हिस्से की सड़क के किनारे ७ बच्चों और किशोरों का एक मिला-जुला समूह दिसम्बर की आखिरी रातों में बसा हुआ है. मैं उस क्षेत्र की पहचान नहीं दूंगा क्योंकि मुझे आशंका है कि संभवतः कार्यवाही के नाम पर उन्हें “रेस्क्यू” किया जाएगा. 

उनसे उनकी जिंदगी के बारे में जानने और बात करने की कोशिश शायद कोई नहीं करेगा!  इनमें से एक है शादाब. उसकी उम्र कोई १६ साल की होगी, पर उसकी परिस्थितियों ने उसे उसकी उम्र से कहीं ज्यादा परिपक्व बना दिया है. 

शुरू में जब हम उनके सामने खड़े हुए, तो शादाब और उसके साथी गुस्सा हुए. सबसे शुरू में ही उन्होंने कहा अच्छा हमें थाने भिजवाओगे. भिजवाओ. 

हम यही खड़े हैं. शादाब बुरी तरह से लड़खड़ा रहा था. उसके हाथ में सलोशन (वाहन के ट्यूब को चिपकाने वाला एक तरल पदार्थ) से भीगा हुआ कपडा था. जिसे वह होंठों में दबा कर मुंह से लगता और खूब जोर से सांस खीचता. यह नशा करके वे अपना दर्द मिटाते हैं. शादाब के मुंह से निकलने वाला हर शब्द उसकी जिंदगी और उसके अनुभवों का दर्पण था. 

पिछले ४ सालों से वह शहर के अपने हिस्से पर यानी फुटपाथ पर रह रहा है. हम भूखे रहते हैं, नशा भी करते हैं, पर चोरी नहीं करते. चाहो तो ले चलो थाने. वो यह बार-बार दोहराता रहा. उसकी आँखें पूरी तरह से खुल नहीं पा रही थीं. 

तब उसने कहा अब तो पुलिस वाले भी हमें नहीं मारते हैं. मैंने पूछा क्यों! उन्हें पता है कि यदि उन्होंने हमें थोड़ा भी जोर से मार दिया तो हम मर जायेंगे. (उसमें गिरकर मरने का अभिनय किया और हंसा;) क्योंकि हमारा शरीर पूरी तरह से खोखला हुआ पड़ा है. पेट में, छाती में आँख में बस सलोशन भरा हुआ है.
 
शादाब हर रोज कचरा बीनता है और १५० से ३०० रूपए कमाता है. कचरे को बीनते-बीनते उसने समाज का अच्छा ख़ासा अध्ययन किया है. उसका अनुभव है कि हिंदुओं के यहाँ से ज्यादा कबाड़ा निकलता है और मुसलमानों के यहाँ से कम कबाडा! ऐसा क्यों? 

क्योंकि मुसलमान किसी भी सामान का ज्यादा इस्तेमाल करते हैं और पूरी तरह से बेकार हो जाने के बाद ही फेंकते हैं, हिंदुओं में सामान बेकार न भी तो उसे बदला देते हैं. वह हर जुम्मे को नमाज़ जरूर पड़ता है. कलमा नहीं पढ़ पाता पर दुआ जरूर करता हूँ कि अम्मी और बहनों की रक्षा करे, उन्हें बरकत दे. उसकी अम्मी वही से थोड़ी दूर पर कहीं भीख मांगने का कम करती है.

अम्मी ने भीख मांग-मांग कर हम सात भाई-बहनों को पाला, बड़ी बहन और एक भाई की शादी की.  बहुत कमज़ोर होकर झुक गयी है पर १४-१५ घंटे भीख मांगती है, ताकि झोपड़ी का २००० रूपए किराया दे सके. इसका मतलब है कि शादाब का घर है, कहीं आसपास. भोपाल रेलवे स्टेशन के पास चाँदबड में उनकी झोपड़ी है; पर शादाब वहां नहीं जाता. 

विरोधाभासों से भरी जिंदगी इसी को कहते हैं शायद. वह क्यों सड़क पर रहता है, क्यों सलोशन पीता है? थोड़ी गर्दन घुमा कर शादाब ने कहा – गम भूलते नहीं है. थोड़ा फ़िल्मी संवाद लगता है न! पर सच में वह यही बोला था. शादाब की बड़ी बहन को कोई तीन साल पहले ले गया – बहला कर ले गया, कि उठा कर ले गया; पता नहीं. शादाब ग्वालियर, झांसी, दिल्ली, चंडीगढ़..पता नहीं कहाँ कहाँ गया उसे खोजने. फिर पुलिस में उसे किसी ने बताया कि उसकी बहन को तो बेंच दिया गया है. 

वह अपनी बहन से बहुत प्रेम करता था. मैं गरीब था, तो बहन भी बिक गयी, मैं उसे खोज नहीं पाया. इसके बाद अपने दोनों हाथ सामने करके शादाब ने कहा फिर मेरी छोटी बहन का इंतकाल हो गया, क्योंकि हम उसका इलाज़ नहीं करवा पाये. 

इन्ही हाथों में लेकर मैं उसे कब्रस्तान लेकर गया. पिता कहाँ हैं? वो ट्रक चलते थे, एक दिन ट्रक से गिर गए और पैरों से विकलांग हो गए. मेहनत करने वाले इंसान थे, तो उनसे सहन नहीं हुआ और गुसा करने लगे, गाली बकते रहते, तो हम उनसे अलग रहने लगे. शादाब अब भी उनसे मिलता रहा है, खैर-खबर लेता रहता है और जरूरत पड़ने पर पैसे भी देता रहता है. 

जिन टायरों पर चमकदार दुनिया दौड़ रही है, उन्हें चिपकाने वाला चिपकू तरल पदार्थ इन बच्चों और युवाओं को नशे का ऐसा आदी बनाता है कि वे प्रतिरोध करने और कुछ रचने की क्षमता खो दें; पर वे देखते सबकुछ हैं, समझते सबकुछ हैं और सबकुछ महसूस भी करते हैं. शादाब की नज़रों की चुभन से यह अहसास होता है कि वह मुझे जानने की कोशिश कर रहा है और आखिर में लगा कि वह वास्तव में मुझे जान भी पाया.

इस पर भी माँ ने अपनी जिंदगी लगा दी. बहन की शादी कर दी, अब वो भीख नहीं मांगती है. भाई का घर भी बसा दिया, लेकिन दो छोटी बहने अब भी इतवारे में भीख मांगती है. अब मैं घर कैसे जाऊं, यहीं सड़क पर माँ से मिल लेता हूँ और सामने की सडक पर सो रहे मौलाना साहब मुझे खुदा की बातें बताते हैं. मुझे अच्छा लगता है तो मैं उन्हें भी सौ रूपए देता हूँ. जुम्मे पर दुआ करता हूँ कि अब अम्मी की जिंदगी सुधार दे. 

कुछ भी हो, काम करना तो जरूरी है, तो भीतर से पूरी तरह से टूटा हुआ शादाब साल में ३-४ महीनों के लिए काम करने अहमदनगर (महाराष्ट्र) जाता है. थोड़े पैसे इकट्ठे होते हैं, तो माँ को दे आता हूँ ताकि बहन की शादी हो सके और उन्हें भीख ना माँगना पड़े. 

मैंने पूछा – तुम्हारे दोस्त हैं ये लोग (जो आसपास खड़े थे). हाँ! ये प्रकाश सोनी है ! वह भी कोई १७-१८ साल का लड़का था. शादाब अपनी जिंदगी से बाहर निकल कर तुरंत हमारे बीच आ खड़ा हुआ और कहा इसकी माँ को बाप ने जला कर मार डाला और बाप भी जल कर मर गया. 

कमला पार्क के पास कहीं बसे प्रकाश के परिवार की भी कहानी कुछ ऐसी ही थी. प्रकाश ने कहा कि बाप माँ को अक्सर मारता रहता था. एक दिन बाप ने शराब के नशे में माँ को पटक दिया और उसकी छाती पर खड़ा हो गया. मौत से बदतर दर्द हुआ उसे. 

मैं और मेरे भाई से यह सहन नहीं हुआ, हमने मिलकर भी बाप को मारा. इसके अलावा क्या कर सकते थे? इस झगडे के बाद माँ में स्टोव से मिटटी का तेल निकाल कर खुद पर उड़ेल लिया. पता नहीं बाप को क्या सूझी कि उसनें माचिल की तीली जला ली. तीली की एक चिंगारी उचकी और माँ आग की लपटों में घिर गयी. 

माँ हमारे सामने जल रही थी. तब उसनें कहा कि मैं मर जाउंगी तो तू (बाप) मेरे बच्चों को मारेगा, मैं उन्हें परेशां न होने दूँगी और जलती हुई माँ ने बाप को भी कसके पकड लिया. दोनों वहीँ खत्म हो गए. अब प्रकाश भी अपनी झोपडी में नहीं रहता है. 

मैंने एक राजनीतिक सा सवाल पूछ लिया – तुम लोग में से एक हिंदू है और एक मुसलमान है, कभी यह नहीं लगता कि अलग-अलग हो? वे सभी मुस्कुराए – फालतू की बात है, हम सबका खून तो एक जैसा ही है. 

इतने में फुटपाथ पर सोया हुआ एक लड़का उठा और उलटी करने लगा. शादाब जल्दी से उसे संभालने लगा. शादाब ने कहा ये पैरों से विकलांग है और अभी बीमार है. ठण्ड बहुत लग गयी है. जब मैं बीमार पड़ता हूँ तो ये दवा-गोली लाकर मुझे देता है और जब ये बीमार होता है तब हम दवा-गोली लाकर देते हैं. हममे से कोई न कोई ऐसे ही बीमार पड़ा रहता है, इसलिए और कुछ फालतू सोचते ही नहीं हैं. 

शादाब ने जेब में से एक ट्यूब निकला, सलोशन का ट्यूब था वह. मैंने उसका ढक्कन खोला और सूंघ कर देख रहा था, 

शादाब तुरंत बोला – नहीं, आप मत सूंघों, अच्छी चीज़ नहीं है. इन्हें अच्छे-बुरे का पूरा-पूरा अहसास है. टुकड़ों-टुकड़ों में बिखरी जिदंगी को समेट कर उसे जी रहे हैं. इनमें से एक ने भी यह नहीं कहा कि मर जाएँ तो अच्छा है. जैसे भी है, जी तो रहे हैं, बिना सकारात्मकता-नकारात्मकता का झूठा सिद्धांत गढे हुए. 

हमने कहा – शादाब, नशा छोड़ दो! छोड़ दूंगा, एक बार जमात में जाने का मौका मिल जाए. अल्लाह से कह रखा है जैसा तू चाहेगा, वैसा ही करूँगा, बस एक बार जमात में जाना चाहता हूँ. 

दिक्कत यह है कि इन्हें समाज अपने साथ, अपने भीतर रखना नहीं चाहता है इसीलिए इनके लिए कुछ कैदखाने बना दिए गए हैं. जो कहलाते तो हैं बाल सुधार गृह, किन्तु अक्सर ये उनकी जिंदगी को बिगाड़ ही देते हैं. 

अगर ईमानदारी से समझें तो हमें पता चलता है कि शादाब और प्रकाश की जिंदगी को कोई सुधार गृह सुधार पायेगा, इसमें आशंका है; ये ढाँचे जिंदगी के उतार-चढावों को महसूस नहीं करते हैं.


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