राकेश कुमार
मालवीय
कुछ ही दिन के अंतराल में मौजूदा सरकार
ने बच्चों के पक्ष में जो निर्णय लिए हैं, वह दरअसल बच्चों के खिलाफ ही जाने वाले
हैं। पहला मामला किशोर न्याय अधिनियम में बच्चों की उम्र को 18
साल से घटाकर 16 साल करने को लेकर है और दूसरा मामला उसी के
बाद बाल श्रम कानून में 14 साल से कम उम्र के बच्चों को भी
पारिवारिक कार्यों में छूट देने को लेकर है। यह दोनों ही मामले नयी सरकार ने उस
वक्त लिए हैं जबकि दुनिया में बच्चों के अधिकारों का हनन चरम पर है और बालश्रम,
बच्चों
की तस्करी जैसे मामले बड़े पैमाने पर सामने आ रहे हैं। इस स्थिति में बजाए कुछ और
उपाय करने के एक ऐसा रास्ता निकाला जा रहा है जो कि विकास सूचकांकों पर देश की
तस्वीर को बेहतर तरीके से पेश कर सके, लेकिन उसके लिए जो रास्ता अपनाया जा
रहा है, क्या हम उसे सही कह सकते हैं।
यह विचित्र बात ही है कि हमारे देश में
बच्चा किसे मानें इस पर अब तक अलग—अलग कानून अलग—अलग व्याख्या
करते हैं, जबकि बच्चों के अधिकारों की रक्षा के लिए संयुक्त राष्ट संघ के
अंतरराष्ट्रीय समझौते पर हमारे देश के दस्तखत भी मौजूद हैं। इस समझौते में साफ तौर
पर हमारे देश में बच्चों की परिभाषा 18 साल मानी गयी है। अब से पहले तक
जुवेनाइल जस्टिस एक्ट और बाल श्रम कानून भी इसे ही मानता आ रहा था, लेकिन
जब बच्चों को शिक्षा के अधिकार देने की बात आई तो हमारे देश की सरकार ने इसे 6 से
14 साल ही मानते हुए उन्हें मुफत और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार दिया।
क्या 14 से 18 साल तक की उम्र वाले बच्चों को हम क्या
कहेंगे।
हमारे देश में कई करोड़ बच्चे बालश्रम
में लगे हुए हैं। वह आसानी से दिखाई देता भी नहीं है। दिखता तभी है जब मीडिया का
कोई स्टिंग आॅपरेशन उन्हें बंद कारखानों में से बाहर लेकर आता है। होटल—ढाबों
और घरों में काम कर रहे बच्चों को तो हमारी मीडिया का न्यूजरूम भी यह कहकर खारिज
कर देता है कि यह तो रोज की बात है, इसमें नया क्या है। जाहिर है मीडिया की
तरह का नजरिया हमारे समाज का भी है। बालश्रम कानून में इससे पहले तक कम से कम हम
कानूनी रूप से इसे एक अपराध मानते थे, और इसे हल किए जाने की संभावना के रूप
में भी देखते थे।
सरकार ने 14 साल से कम बच्चों को घरेलू कामों में
कुछ शर्तों पर काम करने के लिए अनुमति देने के प्रावधान का इस पर क्या असर पड़
सकता है। एक सामान्य नजरिए से ही देखें तो यह प्रावधान ऐसा काम करवाने वाले लोगों
के लिए एक बचाव के एक अस्त्र की तरह सामने आने वाला है। निश्चित रूप से बालश्रम
करवाने वाले लोग ऐसे बच्चों को अपना रिश्तेदार ही करार देंगे। चाहे वह पारिवारिक
धंधे हों, या ऐसा कोई भी उद्यम। यह ठीक वैसा ही हो सकता है जबकि आज बाल विवाह
के मामलों पर लोगों में ऐसी जागरूकता आई है कि परिजन उम्र पूछने पर लड़की की उम्र 18 से
ज्यादा और लड़के की उम्र 21 से ज्यादा बताते हैं, जबकि
असल में दूल्हा—दुल्हन की उम्र वास्तव में उन्हें देखने पर कम
ही लगती है।
पारिवारिक या पुश्तैनी धंधों में शामिल बच्चों के शामिल होने का रिवाज
हमारे समाज में रहा है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। जहां यह रिवाज
एक ऐच्छिक चुनाव के रूप में सामने आता है वहां तो ठीक है, लेकिन जहां यह
एक मजबूरी के रूप में चल रहा होता है, जिससे पूरे के पूरे भविष्य की बुनियाद
हिल जाती है, ऐसी अवस्था में जरूर सोचा जाना चाहिए।
इसका सबसे बड़ा शिकार मानव तस्करी का
शिकार वह बच्चे भी होंगे जो छत्तीसगढ़, मप्र, झारखंड जैसे
राज्यों से बड़े शहरों में प्लेसमेंट एजेंसीज के जरिए ले जाए जाते हैं। इस बात की
क्या गारंटी है कि घरेलू कामों में लगे ऐसे बच्चों को रिश्तेदार नहीं बताया जाएगा।
तस्करी करते समय उन्हें अपना परिजन नहीं बताया जाएगा। पकड़ाने पर उनसे जबरिया नहीं
लिखवा लिया जाएगा। समझना होगा कि यह किन लोगों की समस्या दूर करने का एक रास्ता
है।
डिजिटल होते इंडिया में जहां हर
व्यवस्था स्मार्ट होती जा रही है तब हमें यह भी देखना चाहिए कि क्या हमारे देश का
बचपन स्मार्ट हो रहा है। और क्या स्मार्ट नहीं हो रहा है तो क्या हम ऐसे उसे
स्मार्ट बनाएंगे। सच तो यह है कि बचपन की बुनियादी समस्याओं को समझा जाना चाहिए, और समझकर सही में ऐसे रास्ते निकालने
चाहिए जो इन्हें दूर करें न कि उन पर एक तरह का पर्दा डाल दें।
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लेखक नेशनल फाउंडेशन फॉर इंडिया के
फेलो हैं।
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