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भाग सात - हिंसा के कारणों की पड़ताल


प्रतीकात्मक फोटो
सैद्धांतिक तौर पर देखे तो इस तरह की हिंसा के फैलाव के पीछे चार मुख्य कारण नजर आते हैं। अतिरिक्त विस्तार में जाने पर इनके अनेक अनषंग भी हमारे सामने आते हैं और इस समस्या का विश्लेषण करने के लिए उन सभी पर सविस्तार विमर्श की आवश्यकता है। साथ ही हमें यह भी ध्यान में रखना होगा कि माओवादी हिंसा का अस्तित्व सिर्फ आदिवासी क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं है।

आजादी के बाद जिस तरह प्रशासन एवं राजनीति ने आदिवासी एवं दलित प्रधान ग्रामीण समाज के साथ रूखा व्यवहार किया उसने इन समुदायों के मन में शंका भर दी। इन दूर दराज के इलाकों में प्रशासन तो कमोवेश अभी तक अनुपस्थित ही रहा है। इतना ही नहीं आदिवासियों जैसे लोकतांत्रिक समुदाय से आजादी के बाद लोकतंत्र से संबंधित अवसर छीन लिए गए और निर्णय प्रक्रिया से उन्हें बेदखल कर दिया गया।

दूसरा यह कि जंगलों से सटे क्षेत्रों की ग्रामीण आबादी जबरदस्त सामाजिक बहिष्कार का शिकार बनी रही। यहां पर अन्य बातों के अलावा जातिवाद, सांप्रदायिकता और भाई भतीजावाद का बोलबाला रहा औैर यह क्षेत्र राजनीतिक तौर पर निर्वासन झेल रहे माओवादी समूहों के बफर क्षेत्र में परिवर्तित होते गए।

तीसरा महत्वपूर्ण कारण यह रहा कि भारतीय राजनीति धीरे-धीरे बाहुबलियों के हाथों में चली गई और लोकतंत्रीय व्यवस्था की गुंजाइश कमतर होती गई। अब चुनावी प्रक्रिया मे बगैर बहुबलियोें के भागीदारी कमोवेश असंभव होती जा रही है। माओवादियों ने इसका भी सहारा लिया। इस हिंसा को इस स्तर पर पहुंचाने का चौथा व सबसे महत्वपूर्ण कारण भ्रष्टाचार है। यह भ्रष्टाचार अब नीति निर्धारण तक में साफ नजर आ रहा है। शासकीय कर्मचारियों द्वारा किए जा रहे भ्रष्टाचार के खिलाफ किसी भी तरह की कार्यवाही न होने वाली स्थिति ने माओवादियों को पैर जमाने का भरपूर अवसर दिया।

छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में खनन व अन्य वन आधारित उद्यमों को निर्बाध चलाने के लिए नई आर्थिक नीतियों को सरकारी दमन का सहारा मिल गया। यह दमन अत्यंत खतरनाक सिद्ध हुआ और इसने नक्सलवादियों के उस सिद्धांत को कमोवेश थोड़ी-बहुत वैद्यता तो प्रदान कर ही दी कि इस लोकतांत्रिक ढांचे के अन्तर्गत वर्गविहीन समाज की स्थापना संभव नहीं है।

दूसरी ओर सरकारों द्वारा प्रायोजित सलवा जुडूम जैसे कार्यक्रम भी नकारात्मक ही सिद्ध हुए। जिस आक्रामक तरीके से आदिवासी समुदाय पर विकास थोपा जा रहा था उससे वह संकट में आ गया और बचाव का कोई रास्ता उसके पास शेष नहीं था।

भारत के नक्शे पर गौर करने पर आप पाएंगे कि हमारे देश के जो इलाके प्राकृतिक संपदा में सबसे समृद्ध हैं, वहां के निवासियों की प्रति व्यक्ति आय देश में सबसे कम है। इस असमानता के चलते वहां असंतोष बढ़ा और बार-बार दोहराई जाने वाली बात का उल्लेख यहां भी करना आवश्यक है कि चुनी हुई सरकारों ने उन लोगो/समूहों/संगठनों की बातों पर कभी भी ध्यान दिया जिनके पास इन समस्याओं के शांतिपूर्ण समाधान मौजूद थे। ऐसे तमाम लोग जो वैकल्पिक विकास की बात कर रहे हैं उन्हें विकास विरोधी का तमगा दे दिया गया।

भारत का उत्तरपूर्वी हिस्सा (अरुणांचल को छोड़कर) कमोवेश लगाकर हिंसा की चपेट में रहा है। नागालैंड, त्रिपुरा, मणिपुर व असम इसके ज्वलंत उदाहरण रहे हैं। उत्तरपूर्व में हिंसा आजादी के तुरंत बाद से बदस्तूर जारी है। इसकी नींव में है इनका भारत में विलय। कुछ गुटों का मानना है कि इसमें तयशुदा प्रक्रिया का पालन नहीं किया गया तो दूसरी ओर कुछ का मानना है कि विलय के समय किए गए वायदों पर भारत सरकार खरी नहीं उतरी। कुछ अन्य अलगाववादी समूहों का मानना है कि इस क्षेत्र के निवासियों को बाकी का देश अभी तक पूर्ण नागरिक के रूप में स्वीकार ही नहीं कर पाया है।

राजधानी दिल्ली में इस क्षेत्र के लोगों के साथ होने वाला व्यवहार इसका प्रत्यक्ष उदाहरण है। इतना ही पिछले वर्ष फैली अफवाहों के बाद दक्षिण भारत तक से जिस घबड़ाहट में उत्तरपूर्व के नागरिकों को वापस भागना पड़ा वह भारतीय इतिहास का एक काला अध्याय है। इसके अलावा अलगाववादी और सरकार दोनों एक दूसरे के खिलाफ लगातार आक्रामक रुख अपनाए हुए हैं और सरकार ने यहां पर हिंसा से निपटने के लिए 52 वर्ष पूर्व सशस्त्र सेना (विशेषाधिकार) अधिनियम लागू किया था।

पांच दशक से लागू यह कानून सशस्त्र बलों को असाधारण अधिकार देता है और कई बार इसके दुरुपयोग के मामले में सुर्खियों में आए हैं। ऐसे ही एक मामले को लेकर मणिपुर की राजधानी इंफाल में ईरोन शर्मिला पिछले 14 वर्षाे से अनशन पर बैठी है। वे इस दमनकारी कानून को राज्य से हटाना चाहती हैं। न्यायमूर्ति (से.नि.) जीवन रेड्डी की अध्यक्षता में इसकी समीक्षा के लिए बनी समिति ने भी इसे हटाने की अनुशंसा की थी।

पिछले दिनों नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री भी मणिपुर के दौरे पर गए थे, लेकिन उन्होने भी वहां जाकर न तो अनशन तुड़वाने का प्रयास किया न ही इस कानून की समीक्षा को लेकर केाई वचनबद्धता दिखलाई। यानि यहां पर भी अहिंसक प्रतिरोध को कोई तवज्जो नहीं दी जा रही है। इस प्रकार के आंचलिक असंतोष या आंचलिकता के प्रति बढ़ती आक्रामकता हम महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, बिहार जैसे राज्यों में भी देख सकते है।

भारत में नक्सलवाद और माओवाद तथा उत्तरपूर्व में व्याप्त हिंसा एक तार जहां स्थानीय समस्याओं और स्थितियों से जुड़ा है तो इन दोनों के तार कहीं न कहीं चीन से भी जुड़े रहे हैं। इन दोनों के मिलन से ही हिंसा की चिंगारी लपट में परिवर्तित हुई। समय के साथ चीन में आपा आर्थिक परिवर्तन बिना राजनीतिक विचारधारा में परिवर्तन लाए संभव नहीं था।

इस वैचारिक बदलाव की वजह से भारत के माओवादियों एवं उत्तरपूर्व के अलगाववादियों को आर्थिक मदद एवं हथियारों की आपूर्ति में कठिनाई सामने आने लगी। परंतु येन-प्रकरेण वह ठेकेदारों, सरकारी अफसरों, व्यापारियों, उद्योगपतियों आदि से उगाही कर अपनी गतिविधियों को अंजाम देते रहे हैं।

इस आक्रामक संघर्ष के दोनो पहलुओं पर अत्यंत गंभीरता एवं सूक्ष्मता से विचार करने के पश्चात ही किसी निष्कर्ष पर पहुंच पाना संभव हो सकता है। इस दौरान भारत में करीब दस वर्षो तक पृथक खालिस्तान की मांग को लेकर पंजाब व आस-पास के क्षेत्रों में जबरदस्त सशस्त्र संघर्ष जारी रहा। इस पृथकतावादी तत्वों को पाकिस्तान के अलावा ब्रिटेन व कनाड़ा में बसा सिख समुदाय समर्थन देता रहा।

इस दौरान कनाडा में एयर एंडिया के विमान कनिष्क को उड़ा देने की घटना को इस संघर्ष का सर्वाधिक क्रूर पक्ष कहा जा सकता है। परंतु यहां यह उल्लेख करना आवश्यक है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने इस दौरान वास्तव में शांति की पहल की और उनके कार्यकाल में नागालैंड में लालडेंगा और पंजाब में संत लोगोवाल से समझौते हुए। परंतु बाद के नेताओं ने संभवतः बातचीत के रास्ते को उतना कारगर नहीं माना। इस नई सोच के परिणाम भी हम सबके सामने है।

नक्सलवादी या माओवाद हिंसा एवं उत्तरपूर्वी राज्यों में विद्यमान हिंसा अलगाववाद से असम में पृथक बोडोलैंड की मांग को लेकर दिन प्रतिदिन सुलगती जा रही है। साथ ही साथ बांग्लादेश से आए शरणार्थियों के मामले को लेकर आसाम के नेल्ली में सन् 1984 में हुए भयावह नरसंहार के तीन दशक बीत जाने के बावजूद बीच-बचाव या समझौते की कोई सूरत नजर नहीं आ रही है।

असम में असम गण परिषद की सरकार बनने से पैदा हुई उम्मीदें भी परवान नहीं चढ़ पाई और स्थितियां दिनो-दिन बद से बद्तर होती जा रही है। दोनों ही पक्ष आक्रामकता से पीछे हटने को तैयार नहीं हैं और न ही एक दूसरे को किसी प्रकार की छूट देने पर विचार कर रहे हैं।

प्रधानमंत्री की उत्तरपूर्व की विस्तृत यात्रा भी कोई परिणाम नहीं निकाल पाई और गृहमंत्री द्वारा असम में देश भर के पुलिस प्रमुखों का सम्मेलन की किसी प्रकार का कोई दबाव नहीं डाल पाया। गौरतलब है सन् 1935 में महात्मा गांधी ने कहा था कि एक दिन ऐसा आएगा जब असम के निवासी स्वयं को बाहरी या विदेशी मानने लगेंगे।

जारी : साभार चिन्मय मिश्र

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