दूर गांव में तब भी-अब भी
भूख की खबरें आती हैं
नहीं खिलौने, नहीं बिछौने
भूखे पेट सुलाती हैं
दिन भर की मजदूरी
नहीं समय पर मिलती है
खाली बर्तन बजते घर में
कैसे ये मजबूरी है
जिस मुल्क के शहरों में आजकल
बाजार चमकते रहते हैं
उसी मुल्क के बच्चे देखो
कैसे भूखे-नंगे रहते हैं
खुले आसमां के नीचे
टनों अनाज सड़ जाता है
उसी देश में देखो तुम भी
दीना भूखा मर जाता है
दूर गांव में तब भी-अब भी
चूल्हे उदास रहते हैं
राशन की दुकानों पर
कई ताले जड़े रहते हैं
दूर गांव में तब भी-अब भी
भेदभाव का नाता है
जिनको मिले पहले हक
वही सबसे बिटमाता है
दूर गांव में तब भी-अब भी
आवाज दबा करती है
कानूनों की मार उल्टी
लोगों पर पड़ती है
दूर गांव में तब भी-अब भी
ऐसा भ्रष्टाचार है
पैसा नहीं पहुंच पाता है
जुल्म अत्याचार है
दूर गांव में तब भी-अब भी
रोटी नहीं मिल पाती है
भूखे पेटों सोते हैं
जान चली जाती है
पता नहीं सोने की चिड़िया
काहे को कहते हैं
दूर गांव में तब भी-अब भी
क्या-क्या हम सहते हैं
क्या-क्या हम सहते हैं।
- राकेश मालवीय
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