टिकर

5/recent/ticker-posts

Blog: क्या परीक्षा लेने लायक शिक्षा मिली सभी बच्चों को ?

 



राकेश कुमार मालवीय

वैक्सीन से जुड़ी अच्छी खबरें भले ही हमारे मन को राहत पहुंचा रही हैं, लेकिन इस महामारी का असर दूर तक रहने वाला है. बच्चों के भी अपने मसले हैं जिनपर कम बात हो सकी है. राहत की बात है कि कोविड19 का संक्रमण हमारे देश के बच्चों के स्वास्थ्य को अधिक प्रभावित नहीं कर सका, जबकि बच्चों में कुपोषण, एनीमिया और अन्य कमजोर पोषण मानकों के चलते इस बात की पुरजोर चिंता थी कि बच्चे इस वायरस से कैसे बच सकेंगे. सेहत तो ठीक, पर शिक्षा के मोर्चे पर जो परिस्थितियां बन रही हैं, वह भी चिंताजनक हैं.

कोविड19 में बच्चों की शिक्षा प्रभावित न हो इसके लिए डिजिटल माध्यमों से इंटरनेट आधारित शिक्षा को एक विकल्प के रूप में दिया गया, पर अब जबकि एक पूरा शिक्षा सत्र गुजरने में तकरीबन दो महीने का ही समय शेष है, नियमित कक्षाएं शुरू नहीं हो पा रही हैं, ऐसे में कुछ सवालों पर बहुत ईमानदारी के साथ विचार करने की जरूरत है, कि क्या वास्तव में बच्चों ने उतना पढ़समझ लिया है, जिसके आधार पर वह नई कक्षा में प्रवेश कर पाएं, क्या वास्तव में देश के सभी वर्ग के बच्चों तक आनलाइन माध्यमों से कराई गई पढ़ाई पहुंची है. दावे के साथ कुछ भी नहीं कहा जा सकता है.

भौगोलिक विविधता वाले भारत में कोरोनाकाल से पहले ही डिजिटल डिवाइड मौजूद था. आर्थिक गैरबराबरी इस खाई को और बढ़ाने वाली है ही. केवल तकनीक के स्तर पर ही नहीं ज्ञान के स्तर पर भी यह गैप असंतोषजनक रूप से मौजूद रहा है. हालांकि इसे दूर करने में कोई कोताही नहीं अपनाई गई है, डिजिटल इंडिया जैसे नारों के साथ इंटरनेट को गांवगांव तक पहुंचाने में कोई कोताही नहीं बरती गई है, बल्कि इंटरनेट इतनी तेजी से पहुंचा है, उतनी पहले कभी कोई सरकारी योजनाएं नहीं पहुंची. लेकिन ‘पहुंचा देना’ अलग बात है और उसको ‘अपना लेना, या ‘अपना लेने की क्षमता’ का होना दूसरी बात है. भारतीय समाज की सामाजिक, आर्थिक, बुनावट ऐसी है कि जीवन व्यवहार में इसे पूरी तरह अपनाने में बहुत समय तो लग ही रहा है. ऐसे में परिवार भी पूरी तरह सक्षम नहीं है कि बच्चों को पूरी तरह से आनलाइन माध्यमों के माकूल बना पाते.

क्या सरकार परीक्षा लेने और बच्चों को अगली कक्षाओं में जाने से पहले कोई ऐसा अध्ययन करवा सकती है जिससे यह पता चल सके कि वास्तव में बच्चों को एक कक्षा से दूसरी कक्षा में जाने लायक शिक्षा मिली है, क्या वह उसके पाठों को ग्रहण कर पाए हैं. इसके हां वाले जवाब में कौनसे बच्चे होंगे, और न वाले जवाब में कौन से ? इन जवाबों में हम आर्थिक गैरबराबरी और असमानता की परिस्थितियों महसूस कर पाएंगे और यह भी देखेंगे कि इस हिंदुस्तान में अमीरीगरीबी के दो कोनों पर खड़े बच्चों में कितना अंतर है ! एक बच्चे को तो सब सुलभ है और दूसरी बच्चे का पास एक अदद इंटरनेट भी नहीं है जिसके माध्यम से वह एक संकट की स्थिति में खुद को पिछड़ने से बचा सके.

अजीम प्रेमजी विश्वविद्यालय ने मिथक ऑफ ऑनलाइन एजुकेशन शीर्षक से एक अध्ययन में कहा गया है कि ऑनलाइन शिक्षा एक बच्चे के विकास के लिए अप्रभावी और अपर्याप्त है. शिक्षा के लिए भौतिक रूप से उपस्थिति, ध्यान, विचार और भावनाओं की आवश्यकता होती है, सभी को सीखने के लक्ष्यों की ओर देखा जाना चाहिए, कदम से कदम मिलाकर चलना जरुरी है, पाठ्यक्रम का अगला पिछला साथसाथ चलता है, प्रत्येक छात्र के लिए अलग-अलग सीखने सिखाने की पद्धतियाँ होती है. शिक्षकों और छात्रों के बीच गहन मौखिक और गैर-मौखिक बातचीत की आवश्यकता है, जो केवल वास्तविक कक्षाओं में संभव है. यदि हम इन बातों से सहमत हैं तो सवाल केवल एक या दो दिन का नहीं है, एक पूरे साल का है.

इसी अध्ययन में कहा गया है कि 60% से अधिक बच्चे ऑनलाइन शिक्षा के अवसरों का उपयोग नहीं कर सकते हैं, इसके कारणों में स्मार्टफोन की पहुंच में कमी शामिल है. लगभग 90% विकलांग बच्चे ऑनलाइन कक्षाओं में भाग लेने में असमर्थ हैं, शिक्षकों ने भी सूचना दी और छात्रों को ऑनलाइन कक्षाओं के दौरान निर्धारित असाइनमेंट को पूरा करना मुश्किल हो रहा है. केवल आधे शिक्षकों ने रिपोर्ट किया कि उन्होंने ऑनलाइन कक्षाओं के माध्यम से अपने छात्रों के साथ दैनिक बातचीत की. अधिकांश शिक्षकों के लिए सिखाने का यह माध्यम नया होने से वे इससमे पारंगत भी नहीं थे इसलिए ज्यादा दिक्कतें आईं.

मसला केवल उन बच्चों भर का नहीं है जो शिक्षा से वंचित रह गए. जिन्होंने आनलाइन शिक्षा हासिल की, उन्हें भी सेहत को लेकर तमाम मसले सामने आ रहे हैं. इंडियन एकेडमी आफ पीड्रियाटिक के अध्ययन में सामने आया है कि 40 प्रतिशत बच्चे ड्राय आई, चिढ़चिड़पन, भूख में कमी, मोटापे, सिरदर्द, अपच जैसी समस्याओं से परेशान हैं. 75 प्रतिशत बच्चे किसी न किसी तरह के तनाव में रहे हैं.

​स्थिति विचित्र है, और इसका हल किसी एक बात में नहीं कहा जा सकता है. स्कूलों को नियमित रूप से खोलने और नहीं खोलने को लेकर भी विभिन्न विचार हो सकते हैं, लेकिन एक परिस्थिति साफ तौर पर दिखती है कि शिक्षा के स्तर पर यह असमानता को और बढ़ाने वाली होगी. ऐसे में इस पूरे साल को जीरो ईयर या क्रिएटिव ईयर घोषित करने वाले विचार भी सामने आ रहे हैं, लेकिन बच्चों को प्रतियोगिता की दौड़ में धकेलने वाला समाज ऐसे किसी भी विचार को ग्रहण करने का साहस नहीं दिखा पाएगा, लेकिन उसे यह भी याद रखना होगा कि एक कमजोर बुनियाद के साथ देश के विकास में क्या योगदान दे पाएगा ?

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ