राकेश कुमार मालवीय
अब से कोई सौ साल पहले ‘गंगी’ अपने पति ‘जोखू’ के लिए एक दिलेर कोशिश के बाद भी घूंट भर पीने लायक पानी
नहीं चुरा पाई। मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘ठाकुर का कुआं’ की नायिका अंतत: खाली हाथ लौटी, तब तक लाचार जोखू किस्मत में लिखा वही गंदा—मैला पानी हलक में उतार रहा था। पानी उस जमाने में भी दलित
के साथ अन्याय कर रहा था, और दलित के घर
में भी पानी की जिम्मेदारी एक स्त्री के ही सिर पर! लेकिन संघर्ष और
विद्रोह भी गंगीबाई के मार्फत एक स्त्री ही कर रही है, अपने को खतरे में डालने की कीमत पर भी।
खैर, वह ठाकुर का कुआं था। जब यह किस्सा लिखा जा रहा
होगा तो गांव—गांव की यही बात रही भी होगी, इसमें आश्चर्य कैसा? लेकिन इस तथाकथित विकास का
चोला ओढ़ लेने वाले समाज में अब भी देखिए कि क्या हो रहा है ?
एक जमीनी साथी ने हमें बताया कि उनके इलाके में अब भी ऐसा कुआं है जो नीचे से
तो एक है,
लेकिन ऊपर से उसके चार
हिस्से हैं! उसमें कई घिर्रियां लगी हैं। हर जाति के लिए अलग—अलग बंटवारा है। एक हिस्सा आदिवासियों का, एक हरिजनों का, एक यादवों का, एक बड़ी जात वालों का। नीचे पानी तो एक है, उपर सबका हिस्सा अलग—अलग है! यह बात सुनकर चौंकना स्वाभाविक था। इसलिए भी
क्योंकि दलित विमर्श पर देश में बहुत पानी बह गया है, आजादी को सत्तर साल से ज्यादा हो गए, और संविधान में समानता की भावना को आत्मार्पित
किए भी बहुत वक्त हो गया।
हमने तय किया कि वहां चलकर देखा जाना चाहिए। एक पत्रकार मित्र के साथ निकल
पड़े। यह जगह झांसी के नजदीक नए—नए बने जिले
निवाड़ी में है। झांसी से राजा राम की नगरी ओरछा के लिए जाने वाली सड़क पर झांसी
से निकलने के बाद ही हमारा सामना हुआ धूल के गुबार से। यहां पर यदि गाड़ी के शीशे
न चढ़ाए जाएं तो आपका सांस लेना भी मुश्किल हो जाए। तकरीबन दो सौ से ढाई सौ क्रेशर
यहां दिन रात काली गिट्टी और विकास के लिए मटेरियल तैयार कर रहे हैं। धूल इतनी कि
पुल पर से दिखने वाला राजा राम का मंदिर भी धुंध में ढंका हुआ सा लगता है। पेड़ों
की हरियाली पर भी धूल छाई है। पता नहीं इन कारखानों में काम करने वाले मजदूरों की
क्या हालत रही होगी। क्या उनका कोई मेडिकल चेकअप करवाया जाता होगा। क्या वह
सिलकोसिस या ऐसी ही दूसरी बीमारी से नहीं मर रहे होंगे। गाड़ी के चालक ने हमें
बताया कि इन कारखानों में अंदर नहीं घुस सकते।
यह इलाका पार करते ही आपका सामना एक हरियाली भरे रास्ते से होता है। यह
बुंदेलखंड पिछले दस साल के बुंदेलखंड से उलट बिलकुल हरा—भरा है। सूखे ने बुंदेलखंड के लोगों की, वातावरण की तासीर ही बदल दी। यहां की जलवायु ही
बदल गई। स्थानीय साथी ने बताया कि बुंदेलखंड वास्तव में ऐसा ही रहा है हरा—भरा। पर क्या लोग लौट रहे हैं। नहीं, अब उन्हें पलायन की आदत लग चुकी है। वहां पर
जीना उन्होंने अपनी नीयति मान लिया है। इसलिए इस साल हरा होने के बावजूद भी पलायन
में कोई कमी नहीं आई है।
कोई पचास किलोमीटर चलने के बाद हम घुघसी गांव में पहुंच चुके थे। विशिष्ट शैली
में बने दरवाजे बता रहे थे कि आप बुंदेलखंड में हैं। घर की दीवारों पर विधानसभा
चुनाव के ताजा—ताजा निशान थे। नए बने
निवाड़ी जिले के लिए दीवारों पर बधाईयां भी लिखी गई थीं। गांव को पूरा पार करने के
बाद ठीक आखिरी में हम उस कुएं के पास थे। कुछ महिलाएं वहां अपने—अपने काम कर रही थीं। कोई नहा रही थी, कोई पानी ले जा रही थी। दो घाट खाली थे। हम
कुएं के ठीक सामने एक रिटायर्ड सरकारी कर्मचारी के आंगन में बैठे।
विषय संवेदनशील थी, सीधे मुद्दे पर
आना ठीक नहीं होता। सूखे पर बातचीत की, खेती पर बातचीत
की, गांव की समस्याओं पर बातचीत की, लेकिन सबसे ज्यादा तो दिलचस्पी कुएं में ही थी।
एक दो लोग और आ गए। बताया कि गांव में मीठे पानी का यही एक जरिया था। इसी से सभी
लोग पीने का पानी लेते आए हैं सालों से। लेकिन लड़ाई—झगड़े न हों इसलिए यह व्यवस्था है कि सभी के अपने—अपने घाट हैं। बड़े लोग दूसरे घाट से पानी लेते हैं, और छोटे लोगों के अपने घाट हैं। ऐसा क्यों है, इसके जवाब में बार—बार यही आता कि लड़ाई—झगड़े से बचने के
लिए। लड़ाई झगड़ा किस बात का ? इस बात पर कोई बोलने को तैयार नहीं।
बहरहाल इसे ही लोगों ने अपनी नियति मान रखा है। गांव में एक पाइप लाइन भी खुद
रही हैं मेन सड़क से इस पाइप लाइन के जरिए पानी की सप्लाई होगी, लेकिन सरपंच पति ने हमें बताया कि उसका पानी तो
हाईवे बनाने के लिए सप्लाई किया जाएगा, हमें मिल पाएगा
या नहीं पता नहीं। अलबत्ता उन्होंने कहा कि इसी कुएं का गहरीकरण हो जाए, तो गर्मी में होने वाली समस्या से छुटकारा
मिले। उन्होंने भी कुछ सवालों से यह जानने की जरूर कोशिश की कि हमारी रुचि कुएं
में क्यों है ?
लोग अपनी समस्या को दूर करवाना चाहते हैं, लेकिन जो अपने
समाज की समस्या है, उस पर कोई कुछ नहीं बोलना
चाहता। आखिर एक समाज में एक गांव में इतना महीन बंटवारा अब तक स्वीकार्य क्यों और कोई
भी उस पर कुछ करता क्यों नही ? इस गांव की कोई गंगी ठीक बाजू की दूसरी घिर्री पर
अपनी रस्सी चढ़ाने की जुर्रत रात के अंधेरे में भी क्यों नहीं करती, जबकि कुएं के सामने न तो ठाकुर का घर है और न
ही ठाकुर का वैसे रौब। देश में लोकतंत्र की स्थापना को सालों—साल बीत गए और पंचायती राज में तो महिलाओं को पचास फीसदी
आरक्षण जैसे क्रांतिकारी फैसले भी हो गए। क्या इसी गांव की महिला सरपंच जो खुद उस
दूसरे समाज के हिस्से हैं, ने कभी ऐसी
बुजुर्गों के बनाए इस सिस्टम को तोड़ने की कोशिश की होगी।
क्या सरकार भी जागी होगी? जाग भी जाए तो समझ नहीं आता, यह किस विभाग की जिम्मेदारी होगी? पंचायत एवं
ग्रामीण विकास विभाग आएगा, या आदिवासी विभाग
आएगा, पेयजल एवं स्वच्छता विभाग की तरफ देखा जाएगा या
बेहतर स्वास्थ्य को हवाला दिया जाएगा या अंतत: कह दिया जाएगा यह तो शिक्षा से
जुड़ा मसला है इसे शिक्षा विभाग ही देखे, क्या विभाग एक
दूसरे का कहकर टालेंगे या मिलकर गांव—गांव में पसरी इन
समस्याओं से पार पाने का कोई मिला—जुला रास्ता भी
खोजेंगे ?
महात्मा गांधी ने कहा था ‘जब तक हम अछूतों को गले नहीं लगाएंगे हम मनुष्य
नहीं कहला सकते।‘
मैं एक ही कुआं देख पाया ! हो सकता है ऐसे कुएं तालाब—बावड़ी गांव—गांव में हों और इसे अपनी नीयति मानकर इसी सहज
भाव से स्वीकारा भी जाता रहा हो जैसे घुघसीवासी। पर समाज को इस कुएं की तरफ देखकर
यह जरूरी सोच लेना चाहिए, कि हम अब भी मनुष्य हुए हैं या नहीं ?
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