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काश कि हम कह सकें 'हमारे समाज में बच्चे परीक्षा के कारण आत्महत्या नहीं करते'

परीक्षा जैसे विषय पर जब प्रधानमंत्री दिल्ली के तालकटोरा मैदान से देश के हजारों बच्चों से सीधे और आधुनिक तकनीक के माध्यम से संवाद कर रहे थे, तब इस तथ्य पर गौर किया जाना चाहिए कि देश में पिछले 50 सालों में ‘खूब तरक्‍की’ के बावजूद केवल परीक्षा में असफल हो जाने की वजह से की जाने वाली आत्महत्याओं का आंकड़ा बढ़कर दोगुना हो गया है.

राकेश कुमार मालवीय

परीक्षा जैसे विषय पर जब प्रधानमंत्री दिल्ली के तालकटोरा मैदान से देश के हजारों बच्चों से सीधे और आधुनिक तकनीक के माध्यम से संवाद कर रहे थे, तब इस तथ्य पर गौर किया जाना चाहिए कि देश में पिछले 50 सालों में ‘खूब तरक्‍की’ के बावजूद केवल परीक्षा में असफल हो जाने की वजह से की जाने वाली आत्महत्याओं का आंकड़ा बढ़कर दोगुना हो गया है. वजह एकदम साफ है कि परीक्षा और पढ़ाई जैसे विषयों पर बच्चों का बोझ हमने जिस स्तर पर बढ़ाया उसी रफ्तार से इस विषय पर संवादहीनता को भी बढ़ाया जानबूझकर भी और अनजाने में भी. ऐसे में यदि वास्तव में प्रधानमंत्रीजी की इस पहल में भविष्‍य का वोट बैंक तैयार करने वाली राजनीति नहीं है, यह पहल विशुद्ध रूप से बच्चों के सिर से परीक्षा और वर्तमान दौर की सजा जैसी पढ़ाई का बोझ हल्का करने के लिए है तो इसके लिए शीर्ष नेतृत्व को बधाई बनती है. इसलिए भी क्‍योंकि यह उम्मीद बनती है कि उनका यह संवाद केवल परीक्षा तक ही सीमित नहीं रहेगा, वर्तमान चुनौतियां शिक्षा की गुणवत्ता पर एक बड़ी पहल, संवाद और नीति की दरकार करती हैं. दरअसल, सालों-साल तक इस स्‍तर पर बच्चों से ऐसा कोई स्‍वस्‍थ्‍य संवाद ही स्थापित नहीं किया है, इन सवालों के हल तकनीक में खोजने की कोशिश की गई, तकनीक मदद तो करती है पर उससे सामाजिक सवालों के हल की उम्‍मीद करना सर्वथा अनुचित है.


यह सही बात है कि शिक्षा ऐसा विषय है जिस पर हर कोई अपना ज्ञान दे ही देता है जैसा कि राग दरबारी में लेखक श्रीलाल शुक्ल ने कहा भी कि ‘शिक्षा सड़क पर पड़ी ऐसी कुतिया है जिस पर हर कोई आकर एक लात जमा देता है,’ लेकिन यह भी सच है कि शिक्षा से हर व्यक्ति कहीं न कहीं जुड़ाव रखता है, और इस पर आगे आकर हर व्यक्ति को बात करना ही चाहिए, हां नजरिया बदलकर इसे ‘सड़क पर पड़ी कुतिया’ की तरह नहीं देखा जाना चाहिए, यदि आप इसे कुतिया माने भी तो देश का भविष्‍य गढने में उसकी महती भूमिका है, आप तय कीजिए कि हमें कैसी और क्‍या शिक्षा पाना है, शिक्षा को क्‍या बनाना है ?

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शिक्षा व्यवस्था में तमाम विमर्श हैं पर यह परीक्षा में असफल हो जाने का विचार तो सबसे क्रूर अवस्था है. यदि यह कारण इतना गंभीर है, जिसकी वजह से हजारों बच्चे अपना जीवन खत्म कर रहे हैं तो सोचिए कि हमारी सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्थाएं और माहौल कितना बीमार है. यह सीधे-सीधे बाल अधिकारों में से एक बच्चों के जीवन का अधिकार देने की हमारी प्रतिबद्धताओं का हनन तो है ही, इसके भागीदार तो हम सभी हैं.

मान सकते हैं कि हम तमाम मानकों पर विकास कर रहे होंगे और 50 साल पहले जैसे क्लासरूम की जगह अब भव्य और सर्वसुविधायुक्त डिजिटल कक्षाएं संचालित हैं. पर देखिए कि 1970 में एनसीआरबी की आत्महत्याओं वाली रिपोर्ट में 3.6 प्रतिशत आत्महत्याएं परीक्षा में असफल होने की वजह से हुई थीं और अब 2015 की रिपोर्ट में यह प्रतिशत 6.7 प्रतिशत तक जा पहुंचा है, तकरीबन दोगुना. संख्या में देखें तो 2015 में 18 साल से कम उम्र के 1360 बच्चों ने परीक्षा में फेल हो जाने की वजह से आत्महत्या की, इनमें 697 लड़के और 663 लड़कियां शामिल थी. 

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18 साल से कम उम्र के व्यक्ति को हमारे देश में बच्चा माना जाता है. बच्चे ही नहीं 18 साल से अधिक उम्र में भी परीक्षा का यह भूत पीछा नहीं छोड़ता है, यह इस बात से समझा जा सकता है इसी साल में तकरीबन 1183 बच्चों ने इसी कारण से आत्महत्या कर ली, कुल मिलाकर 2646 व्यक्ति ऐसे थे जो परीक्षा में असफल हो जाने के कारण निराश थे और उन्हें उसका एकमात्र रास्ता अपने जीवन के अधिकार को स्वत: समाप्त कर लेना ही लगा. क्या हमारी सामाजिक-आर्थिक और राजनैतिक व्यवस्थाओं में इस बात की इतनी भी गुंजाइश नहीं थी कि वह इनसे मिनट-दो मिनट का संवाद करके अपने उस निर्णय को बदल पाते.

तो अब जबकि देश के प्रधानमंत्री स्वयं बच्चों के साथ एक संवाद कर इस विषय को गंभीरता प्रदान कर रहे हैं तब क्या यह उम्मीद की जानी चाहिए कि अगली बार जबकि राष्ट्रीय अपराध अभिलेखागार इन आंकड़ों को अपनी रिपोर्ट में दर्ज कर रहा हो, वह ढाई हजार से घटकर उस आंकड़े तक जा पहुंचेगी जहां यह गौरव से कहा जा सकेगा कि देखो हमारे समाज में बच्चे परीक्षा में फेल हो जाने की वजह से आत्महत्या नहीं करते. हमारे समाज में बच्चे आत्महत्या नहीं करते.

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