(कान्हा मंडला ) सत्तर साल में विकास के किसी भी आयाम
ने 'डिलीवर' नहीं किया है, इसे स्वीकारने
में हमें इतनी हिचक क्यों होती है? स्वास्थ्य, शिक्षा, खेती,
पानी,
रहन-सहन,
जंगल,
जमीन
जैसे 'विकास-वान' किसी भी मुद्दे पर हम आखिर उतना न्यूनतम
भी तो नहीं कर पाए जितना सत्तर साल पहले अपेक्षा की गई थी? तो क्या अब
हमें उन नीतियों की समीक्षा नहीं करनी चाहिए जो समूचे सात दशकों के बाद भी हमें वह
नहीं दे पा रही हैं जिसके लिए वे रची गई थीं?
इसी समीक्षा के लिए देश के दस राज्यों
के 125 पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता जुटे मध्यप्रदेश के मंडला जिले के
कान्हा में। तीन दिनों तक चले इस संवाद में पत्रकारों और विशेषज्ञों ने आजाद भारत
में विकास शीर्षक के अंतर्गत 14 सत्रों में साठ वक्तव्यों के माध्यम
से विमर्श किया। इनमें खेती के मामलों के जानकार देविन्दर शर्मा, सुप्रीम
कोर्ट के वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण, सेंटर फॉर साइंस एंड एन्वार्यमेंट के
उपनिदेशक चंद्रभूषण, राजस्थान में पानी और पर्यावरण पर काम करने
वाले जमीनी कार्यकर्ता और किसान चतरसिंह जाम और लक्ष्मणसिंह प्रमुख थे। यह
कार्यक्रम विकास और जनसरोकार के मुद्दों पर मीडिया के साथ काम कर रही संस्था विकास
संवाद का था।
सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट के
निदेशक चंद्रभूषण ने कहा कि पं. जवाहर लाल नेहरू को पर्यावरण विरोधी माना जाता है,
क्योंकि
वे बड़े बांधों और औद्योगिकीकरण के समर्थक थे, लेकिन वास्तव
में ऐसा है नहीं। नेहरू भी भांखड़ा नंगल बांध के बाद छोटे बांधों के समर्थक हो गए
थे। उन्होंने बाद में कहा था कि हमें अब और बड़े बांधों की जरूरत नहीं है।
चंद्रभूषण ने साफ-साफ कहा कि केवल कानून से पर्यावरण नहीं बचेगा, इसके
दूसरे पक्षों पर भी सोचा जाना चाहिए। आज की सबसे बड़ी समस्या क्लाइमेट चेंज है।
आईआईएमसी दिल्ली के शिक्षक आनंद प्रधान
ने विकास के मतलब और आर्थिक वृद्धि के बारे में चर्चा की। उन्होंने कहा कि अगर हम
सही सवाल नहीं खड़े कर सकते, तो हमें सही जवाबों की आशा भी नहीं
करनी चाहिए। यह सही है कि असमानता बहुत बढ़ गई है, लेकिन पूंजीवाद
और लोकतंत्र साथ-साथ नहीं चल सकते। ग्रीस इसका एक उदाहरण है। आनंद प्रधान चर्चा
में अनेक विचारोत्तेजक सवाल खड़े किए। उन्होंने सलाह भी दी कि पत्रकारों को क्या
पढ़ना चाहिए। गिरीश उपाध्याय ने देश में हो रहे विभिन्न घटनाक्रम की चर्चा करते हुए
कहा कि इन निराशाजनक घटनाओं के होते हम यह कैसे मान लें कि हम विकास की ओर बढ़ रहे हैं
?
प्रशांत भूषण ने आजादी के बाद अपनाए गए
लोकतंत्र और न्याय के संदर्भ में विकास के मॉडल की चर्चा की। उन्होंने कहा कि
लोगों के लिए जो अनिवार्य जरूरतें है, जैसे शिक्षा और स्वास्थ्य। पब्लिक
सेक्टर को लोगों के स्वास्थ्य, शिक्षा की जवाबदारी संभालनी चाहिए।
उन्होंने कहा कि हरित क्रांति उर्वरक उद्योग को बढ़ावा देने की कसरत है। जीडीपी
बढ़ाने के चक्कर में खदानें खोदना और एक्सपोर्ट बढ़ाना जरूरी हो गया है। भले ही उससे
वनों को कितनी भी हानि हो रही हो। वनों की हानि को हम जीडीपी से नहीं घटाते।
प्रशांत भूषण ने कहा कि न्यायपालिका का
काम लोगों को न्याय देने के साथ ही विधायिका पर नियंत्रण रखना भी है। अभी हमारी
स्थितियां यह है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट से रिटायर हुए 70
प्रतिशत न्यायमूर्ति किसी न किसी ‘जॉब’ में लग जाते
हैं। आर्बीट्रेशन एक इंडस्ट्री के रूप में तब्दील हो गया है, जिसके
15 प्रतिशत फैसले आमतौर पर पब्लिक सेक्टर के पक्ष में नहीं होते।
उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए एक स्वतंत्र आयोग बनना चाहिए और
न्यायिक सुधारों के लिए बड़ा राष्ट्रीय अभियान चलाया जाना चाहिए। न्यायिक व्यवस्था
को सुगम, सस्ता और सर्वमान्य बनाने की कोशिश की जानी चाहिए।
खाद्य और कृषि नीति विश्लेषक और
पत्रकार देविन्दर शर्मा ने एसईझेड से फायदा कम और नुकसान ज्यादा हो रहा है। हमारी
ग्रोथ आर्थिक नहीं है। यह वॉलेट ग्रोथ है। 85 लोगों के पास दुनिया की आधी संपत्ति
है और वे उसे बढ़ाने में लगे है। अमीर लोगों की ग्रोथ भी जीडीपी में शामिल होती है।
पिछले एक साल में इन अमीर लोगों की संपत्ति 240 बिलियन डॉलर बढ़ी है। क्वांटिटी
इजींग के बारे में उन्होंने कहा कि अकेले
अमेरिकी ने पिछले तीन साल में चार ट्रिलियन डॉलर के नोट छापे है। अमेरिका इन डॉलर
को 0.2 प्रतिशत ब्याज पर दे देता है और अमेरिकी पूंजीपति उसे भारत में निवेश कर
देते हैं। इतने कम ब्याज पर मिले धन से वे भारत में लूट मचा देते हैं। यहीं स्थिति
चीन की और यूरोप के देशों की है। देविन्दर शर्मा ने भविष्यवाणी की कि दुनिया का
अंत स्टॉक मार्केट से होगा।
उन्होंने किसानों को दी जाने वाली
सब्सिडी को बढ़ाने और लगातार बढ़ाने का पक्ष लिया। जीएसटी से जरूरत की चीजें तो
सस्ती नहीं होगी, लेकिन विलासिता की चीजें जरूर सस्ती हो जाएंगी।
कारों से टैक्स कम हो जाएगा, लेकिन रोजमर्रा की खाने की चीजों पर
टैक्स बढ़ जाएगा। सरकार जीएसटी की तारीफ ऐसे करती है, मानो जीएसटी,
जीएसटी
न होकर सर्फ एक्सेल हो, जो सारे दाग धो डालेगा।
अगर सरकार कार्पोरेट सेक्टर को 6 लाख
11 हजार की छूट दे सकती हैं, तो किसानों को सब्सिडी क्यों नहीं दे
सकती ? मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद से अब तक कार्पोरेट सेक्टर
को 48 लाख करोड़ की छूट दी जा चुकी है। मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री बनने के बाद 12
साल में एक करोड़ 60 लाख रोजगार बढ़े, लेकिन बीते एक साल में केवल सवा लाख
लोगों को ही रोजगार मिल सका। इसके पहले के वर्ष में साढ़े चार लाख लोग रोजगार में
लगे। हमारे देश में जितने जॉब क्रिएट होने चाहिए, वे नहीं हो रहे
है। आज 42 प्रतिशत लोग खेती छोड़ना चाहते है। 58 प्रतिशत किसान भूखे पेट सोते है।
उन्होंने कहा कि पूरी दुनिया में ही जीडीपी के नाम पर धोखेबाजी हो रही है। यूके,
इटली
आदि सात देशों ने तो वेश्यावृत्ति से होने वाली आय को भी जीडीपी में शामिल कर लिया
है। कुछ देशों ने तो ड्रग के धंधे में होने वाले कारोबार को भी इसमें जोड़ लिया है।
देविन्दर शर्मा ने जोर देकर कहा कि केवल खेती की भारत को इस संकट से बचा सकती है।
विकास और हिंसा के बदलते प्रतिमानों पर
सर्वोदय प्रेस सर्विस के संपादक चिन्मय मिश्र ने कहा कि अमेरिका में मुर्गी पालन
और मांस उद्योग में कर्मचारियों की दशा इतनी बदहाल है कि उन्हें आठ-आठ घंटे तक
बिना विश्राम और सुविधा के कारखानों में काम करना होता है। उन्हें गुसलखाने तक
जाने की भी छूट नहीं होती। मजबूरी में वे डायपर पहनकर काम करते हैं। यह दुनिया के
सबसे सम्पन्न माने जाने वाले देश की स्थिति है। हम जिसे विकास कहते हैं, वह
अनेक स्तर पर हिंसा को बढ़ावा देता है। उन्होंने शुगर डैडी और शुगर मम्मी के बारे
में भी बताया और चेतावनी दी कि विकास की यह हिंसा समाज को कहां तक ले जाएगी।
न्यूजबिट्स डॉट इन की संपादक श्रावणी
सरकार ने बढ़ते जातिवाद पर चिंता जताई और छत्तीसगढ़ में नक्सलियों के नाम पर हो रही
हिंसा के बारे में सतर्क किया। सामाजिक कार्यकर्ता और लेखक संदीप नाईक ने कहा कि
विकास के लिए लड़े और लड़ते रहें।
राजस्थान के कृषक चतर सिंह और लापोड़िया
गांव के किसान लक्ष्मण सिंह ने कहा कि हम लोग पानी को रोकते नहीं, पानी
को रमाते हैं। केवल 11 मिलीमीटर वर्षा में भी हम न केवल अपना गुजारा
करते है, बल्कि वनस्पतियों और मवेशियों के लिए भी पानी की पूर्ति करते हैं।
हमारे बनाए तालाब ऐसे है, जिनमें पानी समाधिस्थ हो जाता है।
ट्यूबवेल से भले ही हम पानी निकाल लें, लेकिन वह पानी वनस्पतियों की रक्षा
नहीं कर सकता। वनस्पति की रक्षा तो तालाबों से ही होती है। हम कोई देवपुरूष नहीं हैं,
लेकिन
हम जो कुछ कर रहे हैं, वह अपनी सामान्य बुद्धि से कर रहे हैं।
दुर्भाग्य की बात है कि अब विकास का भूत हमारे इलाके में भी आ रहा है। अब विकास
सोने की कटारी है, तो क्या उसे अपने पेट में भोंक लें ?
शुक्रवार पत्रिका के संपादक अम्बरीश
कुमार ने कहा कि मीडिया जब भी ऐसे गंभीर विषयों पर सवाल उठाती हैं तो राजसत्ताएं
उन्हें नियंत्रित करने की कोशिश करती हैं। ऐसे में एकजुट होना बेहद जरूरी है।
देशभर के करीब 100 पत्रकार,
सामाजिक
कार्यकर्ता और विशेषज्ञ जुटे। विकास की नीतियों पर तो चर्चा हुई और मीडिया के बारे
में भी लोगों ने अपने विचार खुलकर रखे। मीडिया की भूमिका पर प्रश्नचिन्ह लगाए गए,
सरकार
की नीति और नीयत की पड़ताल की गई और समाज में बदलते परिदृश्यों को रेखांकित करने का
प्रयास भी किया गया।
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